Thursday, February 16, 2012

बौद्धिकता के बहाने

आपने मेरी तस्वीर, जिसे मैं प्यार से फोटू कहता हूं, देख ही ली होगी। इस तस्वीर को खिंचवाने में बहुत मेहनत करनी पड़ी मुझे। मुझे लगा कि ऐसी तस्वीर के ज़रिए लोग मुझे भी बुद्धिजीवी समझने लगेंगे। मैं सीधे तोप हो जाऊंगा। टाइमबम। किसी ने छेड़ा नहीं कि सीधे फट पड़ने वाला...। घाघ तोपचियों की खुर्राट किस्म की तस्वीरों से मुझमें हीन भावना आने लगी थी...यह तस्वीर जरुरी हो रिया था।

कृपया, यह सवाल न करें कि आखिर बौद्धिक होने के लिए तस्वीर की क्या जरुरत आन पड़ी। लेकिन यह तय है कि आप सवाल पूछेंगे ही, बिना पूछे आप मानने वाले कहां ठहरे?

दरअसल, तस्वीर खिंचवाने और मन की स्थिति को बुद्धिजीवियों के स्तर तक लाने में बहुत झख मारनी पड़ती है। लेकिन मन में बैठी उस बात का क्या किया जाए। बचपन से देखता आया हूं कि जिस किसी को भी मन ही मन यह यक़ीन हो कि उसमें भी इंटेलेक्चुअलत्व है ज़रा भी। वह अपनी खुद की प्रायोजित किताब में ऐसी ही तस्वीरें चस्पां करवाते हैं।

जितने विचारक जाति के लोग हैं, साहित्यकारनुमा लोग, साहित्यिक लठैतों  से लेकर साहित्यिक चपरासी तक, साहित्यिक पान वाले से लेकर पानेवाले तक, गाल बजाने वाले से लेकर गाने-बजाने वाले तक...वह ऐसी ही तस्वीर खिंचवाते हैं।

हाथ गाल पर..या यूं कहें कि ठुड्डी पर। आंखें उधर .. जिधर फोटोग्राफर के स्टूडियो में कंघी-शीशा टांगने की जगह होती है।

पहले तो मैंने भी वैसा ही करने का पूरा प्रयास किया था। हाथ को ठुड्डी पर टिकाया, लेकिन ससुरा टिका ही नहीं। हाथ और ठुड्डी में उमा भारती और राहुल गांधी जैसा बुआ-भतीजे का रिश्ता...या यह रिश्ता भी समझ में न आए तो आरएसएस और दिग्गी राजा जैसा रिश्ता...अब समझे। आप लोगों को भी एक दम ऐसे समझाना पड़ता है जैसे राहुल वोटरों को समझाते हैं कि पैसा भेजा था केन्द्र से और बीच में न जाने कहां तो अटक गया।

हत् तेरे की...।

तो जनाब ठुड्डी और हाथ एक दसरे के साथ न जमे। काहे कि मेरे चेहरे पर दाढ़ी भी वैसे ही उगती है, जैसे चुनाव के ऐन पहले न जाने कैसी-कैसी नई  पार्टियां उग आती हैं, या पाक-नापाक, साफ-हाफ गठबंधन तैनात हो लेते हैं।

ये पार्टियां जैसे जीतनेवाले मजबूत उम्मीदवारों की आंखों में गड़ती हैं ना, वैसे ही दाढी के कड़े बाल मेरे हथेलियों में गड़ने लगे। बुद्धिजीवी की तरह तस्वीर खिंचवाने के मेरे प्रण का कौमार्य भंग होने लगा।

मुट्ठी खोलने की कोशिश की तो हथेलियों से चेहरा छिपने लगा, कैमरावाला मोबाईल फोन हाथ में लिए दोस्त फिकरा कसने लगा, यार मनोज कुमार की तरह लग रहे हो। मै पस्त हो गया। लेकिन मैं भी बुद्धिजीवी बनने के लिए उतारू था।

हाथ में कलम लेकर ऊपर की तरफ ताकना..शून्य में निहारना..मानो दुनिया में सुकरात के अब्बा और अफलातून के दादा,  मेरे कंधो पर सारी दुनिया की समस्याओं का बोझ डालकर निंश्चिंत हो गए हों, निश्चिंत होकर ज़न्नत की अप्सराओं के साथ चांदनी रात में नौका विहार कर रहे हों..।

मेरा स्वभाव भी कुछ ऐसा ही ऐं-वईं हंसी आने लगती है। सोनिया जी भ्रष्टाचार पर बोलें,  आडवाणी रथ यात्रा का प्रण साध लें, मनमोहन कहें हम लोकपाल पास कराने के लिए कृतसंकल्प हैं....ऐसी ही तमाम उम्दा बातों पर हंसी आने लगती है।

आम आदमी हूं..आम आदमी अपनी बुरी दशा में भी हंसता है, नेताओं के बयानों पर हंसता है। आम आदमी कुल मिलाकर खुश रहता है, नेता कहते हैं हमने आम आदमी को हंसाया, आम आदमी हंसता-हंसता अपनी जाति के नेता जी को वोट दे आता है।

हंसता नहीं होता आम आदमी तो हम खुश रहने वालों के सूचकांक में इतने ऊपर होते क्या? हमें तो रोटी के साथ नमक मिल जाता है तो हम खुश हो जाते हैं। ध्यान दीजिए. प्याज और तेल नहीं जोड़ा है मैंने।

सरकार की महती कृपा से मैं पूर्णतया शाकाहारी और अल्पहारी हो गया हूं। हरी सब्जियां खरीदने की औकात रही नहीं, वेतन वृद्धि के आसार दिल्ली में हिमपात की तरह दूर-दूर तक नजर नहीं आते, आलू उबालकर खा रहा हूं। रही बात अल्पहारी की तो कृषि मंत्री शरद पवार ने क्रिकेट की राजनीति और मुंबई नगर निगम चुनावों के बीच आम आदमी को अपनी कीमती वक्त देते हुए कहा था कि आम आदमी खाने लगा है इसलिए मंहगाई बढ़ रही है।

देश का नागरिक होते हुए मुझे मंहगाई कम करने की कोशिश तो करनी चाहिए ना। और योजना आयोग का बहु-प्रशंसति 32 रुपये वाला समीकरण भी है।

मां को शक हो गया है कि घर के सभी लोगों को पेट की कोई गंभीर बीमारी हो गई है, जभी मैंने सबके तेल और प्याज खाने पर रोक लगा दी है। कौन समझाएगा कि बीमारी किसको हुई है पेट की.. बीजेपी की तरह मुझे एक बीमारी ज़रूर हो गई है, मुद्दे से भटकने की। माफी चाहूंगा...बात मैं कर रहा था, तस्वीर खिंचवाने की।

तो जनाब, तस्वीर खिंचवाने के लिए गंभीर होना सबसे बड़ी समस्या थी। वैसे किसी दोस्त ने सलाह दी कि कुरता पहनो , बुद्धिजीवी लगोगे..बुद्धिजीवी होने के लिए कुरता पहनना बहुत ज़रूरी है। लेकिन हमारे शरीर की ढब कुछ ऐसी है कि कुरता पहनूं तो लगता है, खूंटी में टांग दी गई है। सो यह ख़्याल हमने खुदरा में एफडीआई के विचार और राइट टू रिजेक्ट की तरह तत्काल प्रभाव से खारिज कर दी।

वैसे जहां तक गंभीरता का सवाल है, वह तो हम आजतक हुए ही नहीं.. बहुत कोशिश की गौतम गंभीर ही हो जाएं, कभी तो धोनी का छींका टूटेगा और हम भी कप्तान बन लेंगे की तरह की उम्मीद में...लेकिन जानकार कहते हैं गंभीरता आते-आते ही आती है।

गोया गंभीर हम तब हो गए, जब हमारे मजहब के बड़े स्तंभों ने हमें निराश करना शुरु  कर दिया। सुनने लगे कि सहवाग-गंभीर वगैरह धोनी के खिलाफ साजिश रचने में लगे हैं, इंग्लैंड में चार और पाताल देश में चार टेस्ट यानी कुल आठ टेस्ट हारने के बाद हमको बहुत जोर का झटका लगा। वो भी इसलिए कि पैसों की खातिर खिलाड़ी उसी से दगा कर रहे हैं, जिसने उनको बनाया, स्टार बनाया रुतबा दिया। यानी क्रिकेट।

इन पराजयों से हम गंभीर (संजीदा गुरु.. गौतम वाला नहीं) हो गए, मेरा दोस्त मेरा खांटी दोस्त है, इसी मौके की तलाश में था, चट् से फोटू टांक दी। तबसे हर जगह यही तस्वीर टांकता चलता हूं, ताकि लोगों को लगता रहे कि यह जो चंट जैसा इंसान पिचके गालों को ढंकने के लिए चेहरे पर हाथ रखे हुए है, छंटा हुआ बुद्धिजीवी है।

4 comments:

Rahul Singh said...

कौन कहता है, एक तस्‍वीर हजार शब्‍दों पर भारी...

संजय @ मो सम कौन... said...

इतने सपष्टीकरणों के बाद भी बौद्धिक न मानें, ऐसा कैसे हो सकता है?

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

चंट जैसा इंसान में बहुत कुछ है हो। बढिया लगा जायका। कठवरिया सराय के सिंघाड़ा जैसन। बेबाक...मुझे अच्छा लगा यह बेबाक राइट-अप। लिखते रहिए हो, कुछ कुछ खुराक मिलता रहेगा सबको।

Anonymous said...

भई आम आदमी जो चाहे कर सकता है और सारी बौद्धिकता की दूकान भी उसके सहारे ही चलती है।