Friday, February 24, 2012

द पोएट चाइल्ड-जिजीविषा की गाथा

जिजीविषा की अद्भुत गाथा
भारत में ही नहीं दुनिया भर में ईरानी फिल्मों को लेकर एक शानदार उत्साह है। लोग उन्हें देखना चाहते हैं। गोवा फिल्मोत्सव कवर करने का फायदा मुझे मिला कि 2006 में इसी फिल्मोत्सव ने ईरानी फिल्मों से परिचय कराया, और 2007 में एफटीआईआई ने इस परिचय को प्रगाढ़ कर दिया।


मुझे जो फिल्म अभी याद आ रही है, दरअसल डायरी में जो नोट्स लिखे थे, उनसे गुजरते वक्त ताजा हो गया पूरा किस्सा। फिल्म थी द पोएट चाइल्ड। 

फिल्म एक पिता-पुत्र के बीच के बेहद मार्मिक रिश्ते की कहानी है। अनपढ़ पिता अब अपंग होने की वजह से कारखाने में काम नहीं कर सकता। लेकिन पिता-पुत्र में एक शानदार कैमिस्ट्री है। बच्चे का अभिनय ऐसा कि बड़े-बड़ों को भी मात दे दे।

बच्चा स्कूल में पढ़ने जाता है, लेकिन अनपढ़ पिता अपने रिटायरमेंट के लिए खुर्राट सरकारी अधिकारियों से पार नही पा पाता। एक समझदार इंसान की तरह लड़का अपने पिता को पढ़ाई न करने के बुरे नतीजे बताता रहता है, और साथ ही साथ सरकारी अधिकारियों को नियम-कायदों की असली और नई किताब के ज़रिए लाजवाब भी करता जाता है.( वैसे यह साबित हो गया कि ईरान हो या भारत, सरकारी अधिकारी हर जगह एक जैसे अडंगेबाज होते हैं)

फिल्म में कई प्रसंग ऐसे हैं, जो बच्चे को बच्चा नहीं एक पूरी पीढ़ी का प्रतिनिधि साबित करते हैं। कई जगहों पर फिल्मकार ने एक्वेरियम की अकेली मछली के ज़रिए बेहतरीन मेटाफर का इस्तेमाल किया है।

वह बच्चा जो अपनी दुनिया में अकेला है, जिसे बूढे बाप की देखभाल भी करनी है, उससे संवाद भी करना है, अधिकारियों से अपने अधिकारों के लिए लड़ना भी है। और बीच-बीच में अपना बचपन भी बचाए रखना है।


यह फिल्म समाकालीन झंझावातों के बीच जिजीविषा की अनोखी दौड़ है। फिल्म के एक दृश्य में एक चोर उसके पिता की साइकिल चोरी करके भागने लगता है। यह साइकिल उसके पिता की आखिरी और एकमात्र संपत्ति है। उसी दिन जिस दिन सरकारी अधिकारी लड़के के पिता को पेंशन देना मंजूर कर लेते हैं।

हाथ में मछली का बरतन लिए लड़का उस चोर के पीछे भागता है। और अचानक आपको द बाइसिकिल थीव्स की याद आ जाती है.।

बहरहाल, चोर का पीछा करके आखिरकार उसे पकड़ लेता है। पर भागमदौड़ में मछली का बरतन टूट जाता है... लड़का कपड़े वाले प्लास्टिक के थैले में नाली का पानी भर के मछली डालता है।


फिल्म के इस आखिरी दृश्य में नाली के पानी में भी मछली जिंदा है, लड़के के बाप को नाममात्र को पेंशन मिली है, फिर भी वह खुश है, लड़का अपने पिता को पढना सिखाता है। इससे बेहतर जिजीविषा की गाथा क्या हो सकती है भला? जहां तक साक्षरता के सवाल है.. यह फिल्म किसी भी सरकारी प्रचार से ज़्यादा प्रभावी साबित होगी।

 

3 comments:

संजय @ मो सम कौन... said...

कम ही देखी हैं, लेकिन प्रभावी लगती हैं। ’द मिरर’ जरूर देखी होगी आपने? बच्ची का अभिनय क्या खूब है.

प्रवीण पाण्डेय said...

जहाँ जहाँ अंग्रेजों के द्वारा स्थापित उदासीन प्रशासनीय व्यवस्था हैं, वहाँ वहाँ इस तरह की फिल्में बनने की अपार संभावनायें हैं। मछली का प्रतीक प्रभावित कर गया।

gyaneshwaari singh said...

aapak blog itiminaan se padhungi lekin apki sochne ki mudra aur usme apke dwara dia sapstikaran achha laga