Saturday, March 3, 2012

पढ़ाई-लिखाई, हाय रब्बा- 2

तिलक कला मध्य विद्यालय सरकारी स्कूल था। उस वक्त, जब हमने स्कूल की चौथी कक्षा में एडमिशन लिया था, सन् 87 का साल था। देश भर में कूखा पड़ा था। सर लोग अखबार बांचकर बताते थे कि कोई अल-नीनो का प्रभाव है। हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ता था। लेकिन उस अकाल के मद्देनजर सरकार ने यूनिसेफ की तरफ से दी जाने वाली दोपहर का भोजन किस्म की योजना चलाई थी।

हर दोपहर हमारे क्लास टीचर अशोक पत्रलेख पूरी कक्षा में हर बच्चे को कतार में खड़ा कर भिंगोया हुआ चना देते थे। हालांकि, ज्यादातर चना उनके घर में घुघनी ( बंगाली में छोले को घुघनी कहते हैं) बनाने के काम आता था।

स्कूल का अहाता बड़ा सा था जिसमें हम कब़ड्डी या रबर की गेंद से एक दूसरे को पीटने वाले क्रूर खेल बम-पार्टी खेला करते थे। हमारी पीठ पर गेंदो की दाग़ के निशान उभर आते। लेकिन वो दाग़ अच्छे थे। स्कूल के आहाते में यूकेलिप्टस के कई ऊंचे-मोटे पेड़ थे। जिनकी जड़ों के पास दो खोमचे वाले अपना खोमचा लगाते।

ये खोमचे वाले भुने चने को कई तरह से स्वादिष्ट बनाकर बेचते। उनके पास मटर के छोले होते, खसिया (आधा उबले चने को नमक मिर्च के साथ धूप में सुखाने के बाद बनाया गया खाद्य) फुचका, जिसे गुपचुप कहा जाता या बाद में जाना कि असली नाम गोलगप्पे हैं।

अमड़े का फूल


काले नमक के साथ खाया जाने वाला बेहद खट्टा नींबू होता। यह मुझे कत्तई  पसंद न था। खट्टा खाना मुझे आज भी नापसंद है।

अहाते में कई पेड़ अमड़े के भी थे। अमड़ा जिसे अंग्रेजी में वाइल्ड मैंगो या हॉग प्लम भी कहते हैं। हिंदी में इसको अम्बाडा कहते हैं।

मधुपुर में बांगला  भाषा के बहुत असर था, इसलिए हम इसे अमड़ा ही कहते। इसके फूल वसंत के शुरुआत में आते थे...इनके फूल भी हम कचर जाते। हल्का खट्टापन , हल्का मीठा पन...सोंधेपन के साथ।

अमडा जब फल जाता तो उसकी खट्टी और मीठी चटनी बनाई जाती। यह हमारे स्कूल के आसपास का खाद्य संग्रह था...डार्विन ने अगर शुरुआती मानवों को खाद्यसंग्राहक माना था तो हम उसे पूरी तरह सच साबित कर रहे थे।
फला हुआ अमड़ा


लेकिन, इन खाद्यसंग्रहों के बीच पढाई अपने तरीके से चल रही थी...पढाई का तरीका कुछ वैसा ही था जैसा 19वीं सदी की शुरुआत में हुआ करता होगा।

आज की पोस्ट महज खाने पर। हम लोग हाथों में मध्यावकाश तक पढाई जाने वाली चार किताबें और कॉपियां लेकर स्कूल जाते। बस्ते का तो सवाल ही नहीं था। भोजनावकाश में दौड़कर घर जाते, खाना खाकर, वापस स्कूल लौटने की जल्दी होती।

हम जितनी जल्दी लौटते उतना ही वक्त हमें खेलने के लिए मिलता। लड़कियां इस खाली वक्त में पंचगोट्टा खेलतीं थी। पांच पत्थर के टुकड़े, हथेलियों में उंगलियों के बीच से बाहर निकालने का खास खेल, हम बम पार्टी या कबड्डी खेलते...क्रिकेट के लिए शाम का वक्त सुरक्षित रखा जाता।


--जारी

3 comments:

sushant jha said...

मंजीत..बहुत बढ़िया प्रस्तुति। वधाई। अमड़ा का पेड़े मेरे गांव में भी पाया जाता था..पता नहीं अब भाई लोगों ने रहने दिया है नहीं। उसका अचार बढ़िया बनता था। मेरे स्कूल के पास भी एक अहमद नामका खोमचा वाला झाल-मुड़ी बेचने आता था। उस जमाने के हिसाब से 1 रुपया में पर्याप्त मिल जाता था।

प्रवीण पाण्डेय said...

बचपन की कोमल स्मृतियाँ...बहुत भाती हैं..

Shubham Dalvi said...

School ke din hote hi aise....yunhi nahi SCHOOL DAYS ko GOLDEN DAYS kahaa jaata hai.....!