Tuesday, March 13, 2012

क्रिकेट-एक भलेमानस का सन्यास

आज नीलम शर्मा के साथ क्रिकेट पर एक बहुत संक्षिप्त बातचीत हुई। जब कल के सचिन के संभावित महाशतक की बात की, तो उन्होंने मुझसे कहा कितने धैर्यवान् हो कि अब भी सचिन के महाशतक बल्कि क्रिकेट की बातें कर लेते हो।

यह बात छेद गई। उन दिनों जब किशोरवय सचिन बूस्ट के विज्ञापन में कपिल के साथ आया करते थे और स्टारडम उन्हें छू भी न गया था। क्रिकेट सम्राट ने सोने की प्रॉमिनेंट जंजीर दिखाता उनका एक पोस्टर छापा था। तब से मेरे पढ़ने वाली मेज के सामने सचिन आ जमे थे। सचिन देखते-देखते क्रिकेट के भगवान हो गए। उन्हीं कुछ सालों बाद द्रविड़ और गांगुली टीम में आए थे। भारत की मजबूत दीवार बन गए द्रविड़ ने क्रिकेट को अलविदा कह दिया है।
विजयी दीवार
बच्चे थे तो द्रविड़ की धीमी बल्लेबाज़ी हमें बोर करती थी। दरअसल, सचिन की आक्रामकता ने बल्लेबाजी को नए आयाम दिए थे। लेकिन द्रविड़ की बल्लेबाजी ने क्रिकेटीय कौशल की गहराई और गहन धैर्य की मिसाल पेश की। क्रिकेट से मोहभंग के दौर में भी राहुल द्रविड़ एक विश्वास की डोर की तरह रहे, जिनकी नीयत पर किसी को संदेह न था। यहां तक कि भगवान तेंद्या पर भी लोगों ने अपने लिए खेलने के आरोप जड़े, लेकिन द्रविड़ पर धीमा खेलने के सिवा कोई छींटा तक नहीं।

अपने करिअर की शुरुआत में समझबूझ कर शॉट चयन की आदत से वह एकदिवसीय टीम से बाहर हो चुके थे और तब उनने हर गेंद पर शॉट लगानेवाला अपना बयान दिया था। टेस्ट में द्रविड़ भरोसे का प्रतीक बनते चले गए। लेकिन इस भरोसे के बावजूद किसी ने उनसे चमत्कार की उम्मीद नहीं की थी। आखिर, वीवीएस वेरी वेरी स्पेशल बने जब ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ उनने कोलकाता टेस्ट फॉलोऑन के मुंह से खींच लिया था, लेकिन किसी को याद भी है कि उसी पारी में वीवीएस को राहुल ने 180 रन का साथ दिया था। राहुल को कभी किसी ने लारा या सचिन जैसा महान नहीं माना। हमने भी नहीं। राहुल बल्ले का जादूगर नहीं, बल्ले का मजदूर था।

अगर वह फंसे हुए मैच में शतक लगा देता तो भी, या शतक पूरा करने के पांच रनों के लिए 20-25 गेंद खेलकर झिलाता तो भी। कभी 21 गेंदों में 50 रन ठोंक देता या ऑस्‍ट्रेलिया के खिलाफ 233 रन बनाकर पासा पलट देता। भारत का पहला विकेट जल्दी गिर जाता- और विदेशों में प्रायः पहला विकेट जल्दी गिर ही जाता था-यही निकलता- अरे, द्रविड़ है ना! हमने उसे हमेशा फोर ग्रांटेट लिया। और खिलाड़ी जहां एक एक रन से हीरो हो गए, द्रविड़ शतक ठोंककर भी हमारे जश्‍न का कारण नहीं बन पाया।

सचिन व लारा महान होने के लिए ही पैदा हुए थे। द्रविड़ ने अपनी किस्मत खुद लिखी। द्रविड़ के प्रति अपना सम्मान प्रकट करने के लिए मैं कोई आंकड़ा नहीं दूंगा, 2001 का कोलकाता,  2002 का जॉर्ज टाउन, 2002 में ही लीड्स, 2003 में एडीलेड और 2004 में रावलपिंडी के विकेटों पर उसके पसीने की बूंदों ने वहां की माटी में द्रविड़ की दास्तान बिखरी है।

द्रविड़,टेस्‍ट क्रिकेट का वह बेटा रहा जिसने कभी कोई मांग नहीं की। जो मिला उसी में खुश होता गया। वह हमारे दौर या पूरे इतिहास में टेस्‍ट क्रिकेट का सबसे होनहार, मेहनती व अनडिमांडिंग बेटा रहा है।

द्रविड़ के टेस्ट मैचों को अलविदा कहने के बाद हमारे पास कितने खांटी क्रिकेटर रह जाएंगे? विज्ञापनी बादशाह धोनी तो टेस्ट खेलना ही नहीं चाहतेबाकी बच्चे लोगों को न तो टेस्ट की समझ है और न ही उनका टेस्ट  वैसा है

अभी द्रविड़ का जाना शायद उतना न खले, क्योंकि अभी टेस्ट मैच हैं नहीं। लेकिन कुछ महीनों बाद जब टेस्ट मैच में सहवाग हमेशा की तरह अपना विकेट फेंक कर पवेलियन लौट जाएंगे, तब तीसरे नंबर पर बल्लेबाजी करने वाले की रक्षा प्रणाली की व्याख्या करते समय हर कोई यही कहेगा, द्रविड़ होते तो इस गेंद को ऐसे खेलते, ऐसे डिग करते, या वैसे मारते।

भलेमानसों के खेल से एक और भलामानस कम हो गया है....।

3 comments:

अनूप शुक्ल said...

राहुल द्रविड़ सच में ऐसा ही है जैसा आपने बताया। क्रिकेट का मजदूर। घर का अनडिमांडिंग बच्चा।

प्यारा लेख।

प्रवीण पाण्डेय said...

भारतीय क्रिकेट को द्रविड का योगदान अतुलनीय है।

SITARAM NIRMALKAR said...

राहुल के बाद कौन है जो विदेश मेँ संकट मे टीम इंडिया को उभरे गा ?