Tuesday, March 5, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः लमही में

हुत छोटा था, जब मैंने 'गोदान' पढ़ ली थी। उससे भी पहले छठी क्लास में हिंदी की पाठ्य पुस्तक में प्रेमचंद के बचपन का ज़िक्र था। तो मन में एक उत्कंठा थी कि आखिर प्रेमचंद का वह गांव, जहां का वर्णन वह इस तल्लीनता से करते हैं, होगा कैसा?

यात्रा के दौरान इस बात का मौका मिला कि लमही जाऊं। बनारस से मैंने सीधा रूख किया लमही का। थोड़ा वक्त था, तो मैंने राजीव (ड्राइवर ) को कहा सीधे लमही चलने के लिए।
राजमार्ग पर ही एक बड़ा से गेट बना है, मुंशी प्रेमचंद स्मारक गेट। उसके साथ ही दसफुटिया पक्की सड़क आपको लमही तक ले जाएगी।

गांव में घुसते ही पहले तो आपको एक बड़ा-सा बोर्ड नज़र आएगा। निर्मल ग्राम-लमही। यहां-वहां दीवारों पर मनरेगा के नारे। उसी बोर्ड के पीछे दिखेगा एक साफ-सुथरा पेयजल का इंतजाम। हैंडपंप नहीं... टैपवॉटर। पानी की टंकी और उससे लगे आठ नलकियां। यहीं उसके उलटे हाथ पर प्रेमचंद का पैतृक आवास है।

कुछेक साल पहले यह टूटी-फूटी हालत में था। लेकिन अभी ठीक-ठाक है। सफेद पुताई के साथ गरिमामय मौजूदगी। उससे ठीक पीछे है प्रेमचंद स्मृति भवन। ज़िला प्रशासन ने थोड़ा ध्यान तो दिया है। गोदान पढ़ें और आज के लमही को देखें, तो बड़ा अंतर है।

मुझे लगता है कि प्रेमचंद ने जब गोदान लिखा होगा तो लमही कहीं-न-कहीं उनके मन में साकार रहा होगा। ऐसे में मुझे लगा कि होरी, धनिया, गोबर और झुनिया से मिला जाए।  मैंने एक किसान खोज ही निकाला। चेहरे पर झुर्रियों वाले बुजुर्गवार से मिलते ही लगा, यही तो होरी है। एक पैर में चोट लगी थी सो थोड़ा लंगड़ा कर चल रहे थे। एक नौजवान ने कंधे का सहारा दे रखा था।

हमसे मिलते ही कहने लगे दरवाजे पर चलो, तो खटिए पर बैठ कर बातें करें। हमारे इस नए होरी के घर पर तीन गाएं बंधी थी , दो भैंसें भी थीं। उन्होंने बताया कि घर पर टीवी भी है, और डीटीएच भी। हां, ये सारा कुछ महज किसानी से नहीं आया। राजमार्ग के बगल वाली ज़मीन उनने निकाल दी (यानी बेच दी) और खेती तो है ही। दूध से भी कमाई हो जाती है। दूध बनारस चला जाता है। खाने-पहनने की कमी नहीं।

हमारी बातचीत के दौरान उनकी घरवाली (हमारे हिसाब से धनिया) चटख रंग की सा़ड़ी को कोर मुंह में दबाए मुस्कुराती रही।

झुनिया भी बदल गई है। होरी के गांव में झुनिया सिलाई-कढाई का स्कूल चलाती है। गोबर, अब गोवर्धन बन गया है। लखनऊ जाने की ज़रूरत नहीं। बदलते वक्त और बाजार ने गोबर के लिए मौके भी दिए है, और सम्मान भी। 

गांव के नौजवान के पास मोबाइल फोन है और उसका बेझिझक इस्तेमाल... मुझे फील गुड हो रहा था। (हालांकि आगे की यात्रा में यह एहसास कायम नहीं रह पाया।)


पूरे गांव की सड़कें लगभग साफ-सुथरी थी। नालियां भी साफ थी। एक आम भारतीय गांव से थोड़ा अलग लगा लमही। कम से कम पहली नज़र में ..। गांव में कई भारत मार्का हैंडपंप लगे थे। खेत में फसल भी थी ठीक ही थी। मसूर, अरहर, गेहूं और पीले सरसों के खेत।


लेकिन, साथ ही बहुत कुछ सालता भी है। प्रेमचंद इतने बड़े साहित्यकार हुए, उनके नाम पर देश भर में कोई विश्वविद्यालय तक नहीं, प्रेमचंद के नाम पर राजधानी दिल्ली में कोई सड़क नहीं। दिल्ली ने मार्शल टीटो से लेकर कर्नल नासिर तक के नाम पर सड़क बनाकर सम्मान जाहिर किया गया है।


पता नहीं क्यों प्रेमचंद सम्मान के हकदार नहीं हो पाए। जनता उन्हें कितना प्यार करती है ये बात और है।


मैंने सुना है कि लंदन में वह शहतूत का पेड़ आज तक सुरक्षित है, जिसे शेक्सपियर ने लगाया था। लेकिन, भारत को और भारतीयों को अपनी विरासत पर पता नहीं ज़रा भी गर्व नहीं होता। थाती को संभाल कर रखना तो दूर है।


जहां तक किसानों की बात है, लमही का हमारा तजुर्बा पूरे भारत की बदलती तस्वीर बयां नहीं करता। बाकी के भारत में होरी अभी भी मर ही रहा है। किस्से भले ही बाहर नहीं आ पाते..।  लमही अलहदा था...।

पूर्वी उत्तर प्रदेश का यह गांव आपने आसपास के गांवों से अलग है। सौ किलोमीटर दूर ही बुंदेल खंड है..वहां की दास्तां अलग है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवो की जो दशा है लमही कम से कम पहली नज़र में अपवाद लगता है। मुझे बड़ी शिद्दत से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली जिले के किसान की याद आई जो संपन्न गांव में अपवाद था...जिसने राष्ट्रपति से आत्महत्या की अनुमति मांगी है।


अपवाद कितनी चटख रंगो के होते हैं, अपनी ओर फटाकदेनी से ध्यान खींचते हैं। है ना।

जारी

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

लमही का प्रभाव प्रेमचन्द का कहानियों में निश्चय ही होगा..

sushant jha said...

बढ़िया। सुना कि लमही में हीरा-मोती बैलों की जोड़ी के तर्ज पर काष्ठ आकृतियां बनी है। सच है क्या...?

Manjit Thakur said...

नहीं...ऐसा कुछ दिखा नहीं मुझे

अनूप शुक्ल said...

हमें भी घुमा दिया आपने लमही। धन्यवाद!