कुमार आलोक |
शाहनवाज हुसैन ने पटना में एक रैली को संबोधित करते हुये कहा कि नीतिश सत्ता से बाहर रह ही नहीं सकते। वो सन् 1995 का हवाला दे रहे थे, जब समता पार्टी बिहार में लालू के मुकाबले बुरी तरीके से पिट गई थी। चुनाव परिणामों के बाद नीतिश ने कहा था कि अब वो राजनीति छोड़कर किताब लिखेंगे।
कुछ
दिनों बाद खबर आई कि नीतिश बिहार में रहकर ही लालू सरकार के खिलाफ सड़क पर संघर्ष
करेंगे। बात आई-गई हो गई। बिहार में उनका भाजपा के साथ गठबंधन हुआ और केंद्र में
एनडीए की सरकार बनी।
नीतिश
कुमार को अटल बिहारी बाजपेयी का आशीर्वाद प्राप्त था। उन्हें रेल मंत्री के पद से
नवाजा गया। बिहार में रहकर संघर्ष करने की बात हवा में रह गई।
नीतिश
और लालू के बीच आपसी वैमनस्य इतना था कि रेल डिब्बों में लालू की जाति के दूधिया
लोगों को नीतिश के आदेश पर आरपीएसएफ डंडों से पीटते थे। रेल के विभिन्न मलाईदार
पदों पर नीतिश ने अपनी जाति के लोगों को चुन-चुन कर बिठाया। हां, नीतिश को इतना
आभास था कि लालू को भविष्य में पछाड़ा जा सकता है।
लालू
कहा करते थे कि वोट के लिए विकास पैमाना नहीं, जातिगत समीकरण हैं। इस नब्ज को
पकडकर नीतिश ने बिहार में रेल के विकास पर बहुत काम किया। पहली बार जब लालू
पशुपालन घोटाले में जेल गये तो बेउर जेल उनके समर्थ उन्हें दूल्हे की तरह बिठाकर
जेल के दरवाजे पर ले गये।
समर्थक
नारे लगा रहे थे कि जेल का फाटक टूटेगा, लालू यादव छूटेगा। राजनीति में परिवारवाद
की मुखालफत करने वाले लालू को अपनी पार्टी के किसी नेता पर विश्वास नहीं रहा। बातें
हवा में चल रही थी। कयास लगाए जा रहे थे कि लालू के जेल जाने के बाद सीएम का पद
कौन संभालेगा।
टाइम्स
आफ इंडिया में एक खबर छपी कि रंजन प्रसाद यादव, जयप्रकाश नारायण यादव या आर के
राणा में से किसी एक को लालू गद्दीनशीं करेंगे। अगले दिन जनसत्ता ने छापा कि अंदरखाने
में लालू ने बिहार की कमान अपनी पत्नी को सौंप दी है।
इस
खबर पर राजद और अन्य दलों के नेता खूब हंसे। अगले दिन विधायक दल की बैठक हुई। किसी
को इसका आभास भी नहीं था कि राबड़ी देवी को नेता चुन लिया जाएगा। हालांकि सब
पूर्व-नियोजित ही था। लालू के सबसे विश्वस्त श्याम रजक ने राबडी के नाम का
प्रस्ताव किया ..भला किसमें दम था इसका विरोध करने का।
राबड़ी
मुख्यमंत्री बनीं और लालू जेल-यात्रा पर निकल गये।
साहब
के लिये खैनी मांगकर लाने वाली राबड़ी, सीएम क्वॉर्टर के आस-पास के लोगों से सीधे
बिहार की पहली महिला मुख्यमंत्री बन गईं। अनपढ और सियासत की गलियों से अनजान राबड़ी
के लिये ये एक डरावना मंज़र रहा होगा।
साथ
ही रहा होगा, पार्टी के अंदर ही सीएम पद का ख्वाब देख रहे तमाम नेताओं के विद्रोह
का डर। तब राबडी ने अपने दोनों प्यारे भाईय़ों के हाथों बिहार की कमान अघोषित रुप
से सौंप दी। एक राजनीतिक अपराधी था तो एक शुद्ध गंवई अपराधी।
साधु
तो राजनीति सीख गये थे लेकिन सुभाष को लगता था कि कमाने का तरीका रंगदारी, अपहरण
और ट्रांसफर-पोस्टिंग से ही हो सकता है।
लालू
के इन दो लाडले सालों ने गदर मचाया कि बिहार की जनता की नजरों में हीरो रहे लालू की
छवि ज़ीरो की हो गई।
मुझे
याद है कि सुभाष यादव का कार्यक्रम अगर बिहार के किसी कोने में आपको लेना है तो
सुभाष की ये शर्त होती थी कि आने के बाद उन्हें सिक्कों से तौला जाये । 85 किलो के
सुभाष यादव को अगर सिक्कों से तौला जाए तो आप उसकी कीमत का आकलन कर लीजिए।
हां,
एक बात जरूर थी कि जिस किसी छुटभैये ने युवा हृदय-सम्राट (?) सुभाष यादव का कार्यक्रम ले लिया, वह
उस इलाके या जिले का डॉन हो गया। अब वो अफसर से लेकर दुकानदारों तक से सारी वसूली इकट्ठा
करता, और उसमें से अपना हिस्सा काटकर सुभाष बाबू को पहुंचाया करता।
जनता
की नजरों में राजद की सरकार दिन-ब-दिन गिरती जा रही थी। इधर, नीतिश एनडीए में रहकर
बतौर रेलमंत्री जो काम कर रहे थे, वो लोगों को दिखने लगा।
बिहार
की जनता को विकास का पहला टेस्ट नीतिश ने रेल में काम करके चखाया। इसके बावजूद
लालू इतने कमजोर नही हुए थे। फरवरी, 2005 में विधानसभा चुनावों में खंडित जनादेश
मिला। नीतिश, सरकार बनाने की जुगत लगा रहे थे। अगर वो जोड़-तोड़कर सरकार बना लेते
तो उनका भी हाल मधु कोडा सरीखा होता।
लालू
को ये क़त्तई बर्दाश्त नहीं था। लालू को उस समय भी यह लग रहा था कि बिहार उनके
परिवार की जागीर है। केंद्र में यूपीए के साथ सांठ-गांठ करके राज्य में राष्ट्रपति
शासन लागू कर दिया गया।
राष्ट्रपति
शासन के दौरान बूटा सिंह और उनके दो पुत्रों बंटी और लवली ने मिलकर वही काम किया,
जो साधु और सुभाष राबड़ी के लिये किया करते थे। यही कारण रहा कि अक्तूबर के चुनाव
में जनता ने नीतीश के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की मुहर लगाकर लालू और पासवान को
बाहर का रास्ता दिखा दिया।
1 comment:
बेहतरीन सम-सामयिक आलेख।
Post a Comment