Friday, May 8, 2015

दो-टूक : भूकंप का कूटनीतिक अखाड़ा

पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर इंडियन मीडिया गो-बैक ट्रेंड कर रहा था। भीषण भूकंप के बाद जिस तरह से भारत नेपाल के पक्ष में आकर खड़ा हुआ और तुरंत मदद मुहैया कराई, उसके बाद नेपाल से ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी। भारतीय मीडिया की तेज़ी और कई दफा फर्जीवाड़े की हद तक जाकर चीजों को सनसनीखेज़ बनाने की आदत की वजह से मीडिया पर लगे ऐसे आरोपों में फौरी तौर पर दम नजर भी आता है। लेकिन असल में चीजें और तथ्य इतने सीधे और सरल नहीं हैं।

वर्तमान स्थिति यह है कि नेपाल ने विदेशी राहत व बचाव एजेंसियों को नेपाल से बाहर जाने को कह दिया है। नेपाल के पास न तो आपदा प्रबंधन की तकनीकी दक्षता है न ही संसाधन ऐसे में खुद नेपाल बिना विदेशी मदद के बचाव तो क्या राहत का काम भी चला पाएगा इसमें घना संदेह है। वहां भूकंप से 30 लाख की आबादी प्रभावित हुई है और तीन लाख से अधिक घरों को नुकसान पहुंचा है।
इस तथ्य के बावजूद की मीडिया की अतिरंजना भरी रिपोर्टिंग के बावजूद कई इलाकों में राहत और बचाव पहुंच पाया तो इसके पीछे मीडिया की रिपोर्ट्स ही थीं।

मैं कुछ अन्य तथ्य यहां सामने रखने की कोशिश कर रहा हूं। शायद इससे तथ्यों का एक पैटर्न हासिल होगा, और एक दूसरे किस्म की राय कायम की जा सकेगी।

पहली बात तो यह कि नेपाल में सेना की छवि कुछ अच्छी नहीं रह गई थी। साल 2006 में संघर्ष के बाद से नेपाली सेना को जरूर लगा होगा कि आपदा के इस वक्त में वह अपनी छवि सुधार सकता है। लेकिन राहत के काम में भारत के एनडीआरएफ को मिल रही वाह-वाही इसमें रोड़ा साबित हो सकती थी।

आखिरकार, भारत ने नेपाल को 95 टन खाने के पैकेट और राशन, 94 टन पानी, 7.5 टन दवाएं, 15 टन मेडिकल सप्लाई, 1.10 लाख कंबल, 8730 टेंट जैसे सामान मुहैया कराए थे।

ऐसे में, नेपाली सियासी तबके को भी अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता रही होगी। उन्हे जरूर लगा होगा कि सारी मदद विदेशी एजेंसियां ही कर देगीं, तो संविधान तैयार होने के बाद के चुनाव में उन्हें कौन पूछेगा। खासकर, भारतीय मीडिया में नेपाल के प्रधानमंत्री के नेपाल में हूटिंग और प्रभावित स्थल पर नहीं पहुंचने देने के मामले की रिपोर्टिंग के बाद यह ट्रेंड अलग एंगल से देखने की मांग करता है।

ट्विटर पर ट्रेंड कर रहा इंडियन मीडिया गो-बैक की ट्रेंडिंग पैटर्न पर ध्यान दिया जाए, तो साफ है कि यह मुंबई, हैदराबाद, कोलकाता जैसे भारतीय शहरों से ट्रेंड कर रहा था न कि नेपाल से। भारतीय मुख्यधारा मीडिया और सोशल मीडिया में पाकिस्तान द्वारा आपूर्ति किए गए खाद्य राहत सामग्री में मसाला बीफ भेजे जाने की रिपोर्टिंग से पाकिस्तान की छवि खराब हुई। नेपाल में बहुसंख्यक आबादी हिन्दू है और उनकी धाराम्कि भावनाएं आहत करने के आरोप के बाद पाकिस्तान की छवि को धक्का लगा था।

वैसे, आपको याद होगा कि नेपाल ने ताईवान से यह कहते हुए मदद लेने से इनकार कर दिया था कि वह अपने निकट पड़ोसियों से मदद को प्राथमिकता देगा। यहां यह ध्यातव्य है कि नेपाल ने जापान से मदद को इनकार नहीं किया, जबकि टोकियो काठमांड के मुकाबले ताइपेई से डेढ़ हजार किलोमीटर आगे है। ताईवान की चीन से ठनी रहती है और इस मसले पर चीनी कूटनयिक कोण को खारिज़ नहीं किया जा सकता।

इसीतरह, सबसे पहले मदद पहुंचाकर भारत ने नेपाल में जो बढ़त हासिल की थी, उसे भी चीन पचा नहीं पा रहा होगा। इसलिए, यह मुमकिन लगता है कि भारत के खिलाफ, और तदनुसार, भारतीय मीडिया के खिलाफ हवा बांधने में चीन और पाकिस्तान के गुटों का हाथ रहा होगा।

बहरहाल, भारतीय मीडिया ही क्यों तमाम विदेशी राहत एजेंसियां भी नेपाल से लौट रही हैं। अब नेपाल अपनी त्रासदी के साथ अकेला है, शायद आत्मचिंतन करने के लिए। आखिर, कूटनीतिक अखाड़े में उसके सामने मदद को दो मजबूत हाथ हैः भारत और चीन का। नेपाल किसका हाथ थामेगा, इस सवाल का जवाब ही दक्षिण एशिया में शांति के नए समीकरण तय करेगा।

मंजीत ठाकुर



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