Friday, November 13, 2015

जड़ो को बचाने की असली सांस्कृतिक चिंता

बिहार चुनाव को कवर करना बेहद अहम है। पिछले सप्ताह जब मैं इस स्तंभ में लिख रहा था तो मैंने कहा था कि बिहार के इस बार के चुनाव देश की राजनीति के समीकरण बदल देंगे। इस बार का चुनाव भी नए सियासी ककहरे गढ़ रहा है।

इन दिनों मैं उस इलाके में हूं, और खूब घूम रहा हूं जिसे सीमांचल और मिथिलांचल कहा जाता है। यानी दरभंगा-मधुबनी और कटिहार-किशनगंज-पूर्णिया वाला इलाका।

ऐसे ही दरभंगा में घूमते चाय की दुकान पर लोगों को टहोकते हुए एक शख्स टकरा गए। काफी गरम हो रहे थे। करते रहिए रिपोर्टिंग। लिखते रहिए। टीवी पर दिखाते रहिए, मिथिलांचल खत्म हो रहा है, विरासत मिट रही है। दही-चूड़ा-पान-मखाना-मछली की तहजीब गायब होती जा रही है और किसी को इस बात की चिंता भी नहीं। भोगेन्द्र झा चौक है दरभंगा में। गंदे नाले के किनारे चाय पर चुनावी चर्चा में वह शख्स कहे जा रहे थे कि चुनावी आपाधापी में लोगों को वोट की चिंता है, लेकिन संस्कृति की बात करना दक्षिणपंथी हो जाना हो गया है आजकल। संस्कृति के नाम पर असली काम कम, हो-हल्ला ज्यादा है।

असल में, दही-चूड़ा-पान-मखाना-मछली मिथिला की पहचान है। मिथिला में तालाबों-पोखरों की बहुतायत रही है। बढ़ते और अनियोजित शहरीकरण (घटिया शब्द है यह, असल में यह बस्तियों का कंक्रीटीकरण है) ने तालाबों को पाट दिया। बचे-खुचे तालाबों में जलकुंभी पनप आए है। पोखरों के गाद की उड़ाही की फुरसत न सरकार को है। और आम आदमी अपने हिस्से की जिम्मेदारियों को निभाने से मुकरता रहा है। ऐसे में, जिस मधुबनी जिले में एक हजार से अधिक तालाब-पोखर थे, वहां अब मछलीपालन से उत्पादन और बाहर मछली भेजना तो दूर की बात, घरेलू जरूरत भी पूरी नहीं होती।

मधुबनी दरभंगा में डेढ़ दशक पहले तक मछलीपालन बड़ा व्यवसाय था और यहां से मछली कोलकाता तक भेजी जाती थी। लेकिन अब मत्स्यपालन बंद कर दिया गया है। कुछ तालाबों में खेत बन गए हैं कुछ बस्तियों में बदल गए हैं। इस वजह से हर रोज़ मधुबनी जिले में आठ से दस ट्रक मछली आंध्र से आया करती है। यही हाल दूध और दही का भी है। पहले हर घर में पशुपालन हुआ करता था अब सहकारी संघो में भी महज 11 हजार लीटर ही दूध इकट्ठा किया जाता है। मिथिला के गांवों में शादी-ब्याह मुंडन-जनेऊ में दूध दही की भारी मांग होती है और उसे पूरा किया जाता है पाउडर वाले दूध से।

मधुबनी में साल 2009 में 450 मिलीलीटक दूध की खपत प्रति व्यक्ति थी, जो साल 2013 में घटकर 120 मिलीलीटर रह गई है। मखाना, सिंघाड़ा और पान के उत्पादन को सरकार ने बढ़ावा देने की बातें कहीं थीं, लेकिन वह चुनावी वादा महज वादा ही रहा। जमीन पर कोई चीज़ नहीं उतरी।

गांवों में घूमने पर बुजुर्गवार भी नौजवानों से कुछ परेशान नजर आते हैं। हर नौजवान के पास स्मार्ट फोन है और इंटरनेट सहज उपलब्ध है तो पॉर्न साइटों तक इन नाबालिगों की भी पहुंच है। झंझारपुर के पास महनौर गांव के बुजुर्गों ने मुझसे कहा कि इस इंटरनेट ने बच्चों को साफ बिगाड़ दिया है।

हर नौजवान के मोबाइल के मेमरी कार्ड में भोजपुरी गीत भरे पड़े हैं। अश्लील गीत। इस पर न तो रोक है न रोक लगाई जा सकती है। लेकिन मिथिला की जिस शांत और साहित्यनिष्ठ संस्कृति को हाल तक बचाए रखा जा सका था वह छीज रही है। मुझे इंटरनेट के रास्ते पूरी दुनिया के एक विश्वग्राम में बदल जाने में कोई उज्र नहीं है लेकिन सवाल मथता है उन संस्कृतियों का, जिसे यह ग्लोबल विलेज लील रहा है।

मिथिला के गांव-गांव में विद्यापति के बदेल गुड्डू रंगीला का अश्लील शोर है। बालिगों की अभिव्यक्ति की आजादी पर मुझे कोई दुविधा नहीं, वह है और होनी चाहिए। लेकिन हम जिन सांस्कृतिक निधियों को दुनिया के सामने पेश करना चाहते हैं उसे बचाए रखना हमारा फर्ज है। मिथिला के गांवों में गूंजने वाले नचारी, सोहर, बारहमासा जैसे गीत, विदापत, लोरिक-लोरिकाइन, जट-जटिन जैसी सांस्कृतिक परंपराएं अस्तित्व खोती जा रही है। क्यों भला? क्या मिथिला में ऐसी कोई औद्योगिक क्रांति हो गई कि सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य बदलने जरूरी हो गए हैं? नहीं। कत्तई नहीं।

अगले स्तंभ में, मिथिला इलाके के कुछ औद्योगिक संस्थानों की हालत बताऊंगा तो शायद स्थिति अधिक साफ होगी। फिलहाल तो मैं गांवो से लेकर शहरों तक एकरसता-सा अनुभव कर रहा हूं। पूरे बिहार में, एक जैसे मकान, एक जैसी गंदगी, एक जैसे होते जा रहे पहनावे और एक जैसी सांस्कृतिक दुविधा। हर जगह एक जैसा शोर है। कहीं जींस ढीला करने का तो कहीं गमछा बिछाने का। मिथिला की गलियों में ऐसी अवांछित अश्लीलता कभी न थी।

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