Sunday, December 6, 2015

हम फिदा-ए लखनऊ

उन्नाव के बाद चलती हुई गोमती फिर कहीं किसी अंजान सी जगह पर रूकी थी। रुकना गोमती एक्सप्रेस के लिए, और उसके मुसाफिरों के लिए कोई खबर नहीं थी। वह रूकती आ रही थी और रूकती ही आ रही थी।

कानपुर में वृषाली के मम्मी-पापा खाना लेकर आए थे। और खाने को मैंने पूरी तवज्जो दी थी। मेरा सारा ध्यान उसी खाने पर था। मक्खन-मलाई, जिसका हल्का-धीमा मीठापन जिंदगी जैसा था। मृत्यु का स्वाद, तेज मीठा होता है, जीवन का हल्का मीठा।

मैं एक बार पहले ही उस मक्खन का एक कटोरा साफ कर गया था और मेरी बहन वृषाली के सामने दो चिंताएं थी। भाई पूरा खाए, भरपेट खाए। और मक्खन बचा न रह जाए।

तो जनाब, गाड़ी उन्नाव के आगे किसी अनजानी-अनचीन्ही सी जगह पर न जाने कब से खड़ी थी। और ऐसा लग रहा था अब हमेशा के लिए यहीं खड़ी रहेगी।

हर्ष जी की बड़ी बिटिया मिष्टी--वह अपने नाम की तरह ही काफी मीठा बोलती है--अपने रिपोर्टर अवतार में आ गई थी। नाक पर चढ़े चश्मे को बड़ी अदा से संभालते हुए और खाने में व्यस्त मुझतक आते हुए गोमती न्यूज (उसने तुरत-फुरत अपना न्यूज़ चैनल बना लिया) की उस छुटकी दस साल की रिपोर्टर मिष्टी का पहला सवाल यही थाः आपको याद है आप गोमती एक्सप्रेस में कब चढ़े थे?

मैंने बस इतना ही जवाब दिया थाः पिछले जन्म में।

नई दिल्ली से जब गोमती एक्सप्रेस चली थी, तो सही वक्त पर चली थी। अच्छा हुआ, मिष्टी ने मुझसे यह नहीं पूछा कि आप को क्या लगता है आप कब तक लखनऊ पहुंचेंगे।

मैं गीता (किताब) की कसम खाकर कहता हूं (खाने दीजिए ना, यह न कहिएगा, आप तो खुद को नास्तिक कहते फिर गीता की कसम क्यों खा रहे, मेरा तर्क यह है कि पारंपरिक रूप से यह मान्य है, फिर भी आप कह रहे हैं तो मैं सत्यनिष्ठा की शपथ लेता हूं) कि गोमती एक्सप्रेस में दोबारा चढ़ने की कोशिश कभी नहीं करूंगा। हो सके, तो मैं यात्रा रद्द ही कर देने की कोशिश करूंगा।

यात्राएं लंबी हो जाएं तो बुरा नहीं होता। कई बार लंबी यात्राएं मजे़दार भी होती हैं। लंबा इंतजार कई दफ़ा अच्छा भी लगता है। लेकिन अगर रेल यात्रा हो, रेल कहीं भी कभी भी रूक रही हो, पीने का पानी न हो, सीट फटी-पुरानी हो, टूटी हो, आप जिधर झुकें सीट भी झुक जाए...बाथरूम गंदे हों... अर्थात् आप कहें कि स्थिति नारकीय हो, तब लंबा सफर और इंतजार मजेदार नहीं रह जाता।

मेरे साथ 200 बार में 199 बार हुआ है कि मेरी बगल की सीट किसी झक्की बूढ़े की हो। रेलवे वालों की खास कारस्तानी है यह। इस दफा भी मेरी बगलवाली सीट एक ऐसे बुजुर्गवार की थी, जिनने अपने दो मोबाईलों का मुझेस तेरह बार सिम बदलवाया, और अपने खाने को थैला सत्ताईस बार चढ़वाया-उतरवाया। मेरे साथ लखनऊ जाने वालों में हर्ष जी, उनके दो बच्चे, बहन वृषाली, प्रदीपिका समेत महिलाओं की संख्या अधिक थी इसलिए मैं अपने सारे गुस्से को जब्त किए बैठा रहा, और बूढ़े चचा के लिए कभी मोबाईल रिपेयरिंग और कुलीगीरी करता रहा। साथ के लोग, खासकर बच्चे मुझ जैसे शांत-सुशील (?) शख्स को बदतमीज होते देखेंगे तो बुरा असर होगा उन पर।

चचा ने मुझसे पूछा, नाम क्या लिखते हो? उनके मुंह से थूक की पिचकारी निकली और मेरी कलाई पर आकर गिर गई। गुस्सा तो बहुत आय़ा, लेकिन तय किया मन में, कि अगर कभी बूढ़ा हुआ तो ऐसी ही थूक की पिचकारी किसी और नौजवान पर छोड़ूंगा। उस वक्त तो मैं चचा से यही कहकर बाहर निकला कि अभी हाथ धोकर आता हूं और फिर बताता हूं कि नाम क्या लिखता हूं। 

वापस आकर, मैंने चचा से यही कहा, हम जो हैं वही नाम लिखते भी हैं। बहरहाल, गाड़ी अपनी दुलकी चाल चलती रही। बाहर का मौसम बेहद सुहाना हो रहा था।

बिजली की घनी कड़क के साथ बौछारें गिर रही थीं। बच्चे भूख से बेहाल हो रहे थे। लेकिन चेअरकार में सोना बड़े सिद्धपुरूषों का काम है। मिष्टी की छोटी बहन पाखी सोने की बहुतेरी कोशिश कर रही थी।

और तब आया था कानपुर। जहां बारिश थी, जहां से लखनऊ बस थोड़ी ही दूर है--की सांत्वना थी, जहां खाना था।

जारी

3 comments:

Blossoming Brain said...

Fantastic piece !!! I enjoyed a lot while reading it. kudos kudos!!! Manjit Thakur rocks!!

कुमारी सुनीता said...

ha ha ha ... interesting .

निवेदिता श्रीवास्तव said...



पढ़ने में आनंद आ रहा था इसलिए लग रहा था आपका गंतव्य थोड़ी और देर में आता ...... :)