Tuesday, January 19, 2016

लखनऊ हम पे फिदा!

इस पोस्ट का पहला हिस्सा आपने पढ़ा होगा हम फिदा-ए-लखनऊ बहुत दिनों बाद सूझी कि उस यात्रा को पूरा कर ही दिया जाए। 

लखनऊ पहुंचते-पहुंचते हम सब निढाल हो चुके थे। हम में से तकरीबन सबने आगे जीवन में कभी भी गोमती एक्सप्रेस से सफ़र न करने का फ़ैसला (छोटा लफ़्ज है यह, अस्ल में कसम खाई) कर लिया। गोमती न्यूज़ की हमारी दस साल की रिपोर्टर मिष्टी सो चुकी थी। कानपुर में वृषाली बहन के घर से आय़ा मेरे भोज का सामान उदरस्थ हो चुका था और पच भी गया था। 

अंततः लखनऊ आ ही गया। सुबह होने को थी। जमशेद भाई फोन कर-करके ऊब चुके थे। और उन्होंने भी निर्णय कर लिया था कि अब हम मिलेंगे तभी बात करेंगे। उन्होंने उलाहना भी दिया था, म्यां, अब क्या समारोह खत्म होने के बाद आओगे। 

थोड़ी जानकारी जमशेद भाई के बारे में दे दूं। पूरी जानकारी देना मेरे वश में नहीं। बेहद क्रिएटिव पत्रकार हैं। लिखते हैं तो लफ़्ज काग़ज़ पर अंकित नहीं होते, नदी की धारा की तरह बहते हैं। ज़बान में बेहद मीठे। हंसते हैं तो दिल खोलकर। दांतो का रंग सफेद है, पूरे मुंह में बत्तीसों दांत मौजूद हैं। 

आप कभी मिलें तो लगेगा आप चे ग्वेरा से मुलाकात कर रहे हैं। उनकी धज भी वैसी ही है, कभी-कभार दाढ़ी भी वैसी ही उग आती है। नीलेश मिसरा की आवाज़ में जब उनकी कहानियां सुनने का मौक़ा मिलता है तो रिश्तों का ऐसा पुरकशिश बयान होता है कि आप बस कहानियों के साथ बहते चले जाएंगे। 

बहरहाल, पौ फटने में अभी कुछ देर थी कि हम लोग नीलेश जी के फ्लैट पर पहुंच गए। समारोह के तैयारियों की गहमा-गहमी कुछ ऐसी खास थी कि उस सोसायटी का गेटकीपर मेन गेट खोलते-खोलते परेशां-सा हो गया था। 

सारी रात जगे थे लेकिन नींद कहां? ऑडिटोरियम में कुछ काम बचा था, सारे लोग वहीं थे तो फ्लैट में सुखनींद किसको होगी। हम भी ऑडिटोरियम चल दिए थे। 

लोग काम करते रहे। हम देखते रहे। असल में, हम मिज़ाज से थोड़े आलसी हैं। तो देखते रहे। काम होता रहा। ऑडिटोरियम में मच्छरों का साम्राज्य था। मच्छर ही मच्छर। तो मच्छर भगाने वाली क्रीम की मालिश ली सबने। 

अचानक बिजली चली गई थी। घुप्प अंधेरा। और फिर आई एक तेज़ सीटी की आवाज़। हमने यह भी सोचा कि सीटी मारने वाला हमारी ही बिरादरी का कोई उचक्का लेखक होगा। लेकिन माशाअल्लाह, हम नाम तो नहीं लेंगे, एक भद्रमहिला के गोल होंठों से निकली थी यह सीटी। मैंने इतनी तेज़ और सुरीली सीटी कभी सुनी नहीं थी। लड़को की सीटी में घोर अशालीनता होती है। इसमें मीठापन था। और सीटी बजने के साथ ही बाहर पौ फट गई थी।

सुबह हुई। और क्या सुबह हुई। हम सूरज निकलने के साथ ही फ्लैट पर वापस आ गए थे। थोड़ी नींद जरूरी थी। हमें लगा था कि चाय पीकर इत्मीनान से नींद लेंगे। लेकिन चाय आने में देर हो रही थी। क़ादरी भाईयों ने कमरे में  पड़े सारे सामान एकतरफ ठेलकर जगह बनाई, और कंबल में घुस गए थे। हमने भी वैसा ही किया था। काहे कि हम शुरू से महाजनो येन गतः सः पंथा के अनुयायी बनने की कोशिश करते रहे हैं। बाक़ी कामों में तो महाजनों की हमने कभी सुनी नहीं। सोने-वोने के मामले में हमने हमेशा ज्यादा को तरज़ीह दी है। 

लोगों को सोए हुए मुझ पर तरस आ गई या चाय कम थी। चाय आने के बाद भी, प्रदीपिका, वृषाली, अनुलता, पूजा, हर्ष जी...आज़म. अकबर या जमशेद भाई किसी ने भी मुझे जगाया नहीं। 

तीन घंटे बाद जगा तो लगा देर हो रही है। जल्दी तैयार होकर ऑडिटोरियम भागा। 

आगे की कहानी अगली पोस्ट में। 


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