विस्थापन लोगों को जड़ो से उखाड़ता है। देश भर में और शायद दुनिया भर में भी विकास बनाम पर्यावरण, वन्य जीव बनाम इंसान जैसी बहसें चल रही हैं और शायद बुद्धिजीवी तबके से लेकर सरकारें और संयुक्त राष्ट्र समेत अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं तक पर्यावरण, विकास, वन्यजीवों के संरक्षण और मानव के कल्याण और उनके रहवास जैसे विषयों की प्राथमिकता पर एकमत होने की कोशिशों में लगे हैं।
आज मैं वन्य जीवों के संरक्षण से जुड़ी परियोजनाओं में से एक के बारे में बात करना चाहता हूं कि किसतरह वन्य जीवों के संरक्षण के क्रम में इंसानों को हाशिए पर धकेला गया है। यह ठीक है कि वन्यजीवों और उनकी नस्लों को बचाना बेहद ज़रूरी है, लेकिन उनको बसाने के लिए जिन लोगों को उजाड़ा जाता है, खासकर उनमें आदिवासी लोग और आदिम जनजातियां ही उजड़ती हैं, उनके पुनर्वास पर संवेदनशील तरीके से सोचने और उसे कार्यरूप में बदलने की जरूरत है।
भारत की बात करें, तो देश भर में हुए विस्थापनों के आंकड़े बताते हैं कि सन् 1950 के बाद से भारत में वन्य जीवों से जुड़ी परियोजनाओं में करीब 6 लाख लोग विस्थापित हुए हैं। यह बाक़ी सभी योजनाओं-परियोजनाओं की वजह से हुए विस्थापन का 2.8 फीसद ही है। इनमें से करीब 21 फीसदी यानी 1.25 लाख लोगों का पुनर्वास किया गया। इसका आंकड़े का दूसरा पहलू यह है कि 4.75 लाख लोगों का पुनर्वास नहीं हो पाया। यह वन्य जीवन विस्थापन की कुल आबादी का 79 फीसदी है। गौरतलब है कि कुल विस्थापितों में से 4.5 लाख लोग जनजातीय समुदाय के हैं। यानी करीब तीन चौथाई। सिर्फ एक लाख जनजातियों का ही पुनर्वास हो सका, यानी 78 फीसद विस्थापित जनजातियों का पुनर्वास आजतक नहीं हो पाया है।
मैं मध्य प्रदेश के एक जिले श्योपुर के गांव टिकटोली गया था। टिकटोली कूनो-पालपुर अभयारण्य की सरहद पर बसा है। यहां मिले थे मुझे रंगू। धंसे गालों वाले रंगू ने मुझे एक किस्सा सुनाया। उस किस्से का मुख्तसर यह कि सृष्टि की रचना के बाद ब्रह्मा जी ने सहरिया नाम के कबीले को धरती के आसन के ठीक बीच में बिठाया था। लेकिन सहरिया लोग सीधे-सादे थे। उनके बाद रचे गए लोग आते गए और सहरियाओं से थोड़ा खिसकने को कहते रहे। बहुत देर बाद जब ब्रह्मा जी आए, तो उन्होंने देखा जिस सहरिया को वह बीच में बिठाकर गए थे वह सबसे किनारे बैठा है।
इस कहानी को महज कहानी नहीं प्रतीक मानिए। कूनो-पालपुर जंगल में शेर-चीतों और बाघ को बसाने की सरकारी कोशिश में सहरिया जनजाति—जो कि भारत सरकार द्वारा आदिम जनजाति घोषित है—को जंगल से धकेलते-धकेलते किनारे बंजर-ऊसर ज़मीनों तक धकेल दिया गया है, जहां न उनके पास जोतने लायक खेत हैं, न सिंचाई के लिए कुआं, न खाने के ठीक अनाज।
नतीजतन, आज सहरिया समुदाय भारत का सबसे कुपोषित समुदाय है और सबसे कम साक्षर भी। भारत भर में जनजातीय साक्षरता जहां 41.2 फीसद है, वहीं सहरिया जनजाति में यह 28.7 फीसदी ही है। सहरिया महिलाओं में यह प्रतिशत तो 15 फीसद से थोड़ी ही अधिक है।
कूनो पालपुर से जिन 28 गांवों का विस्थापन हुआ है, उनमें 24 गांव सहरिया बहुल हैं। सहरिया वह जनजाति है, जिनकी आबादी में 2001 और 2011 की जनगणना के अनुसार लगातार कमी दर्ज की गई है। इसकी सबसे प्रमुख वजह है, इनकी जिंदगी का लगातार मुश्किल भरा होता जाना। भूख, कुपोषण, आजीविका का संकट और सबसे महत्वपूर्ण; जंगलों पर खत्म होती इनकी निर्भरता ने समुदाय के सामने पहचान का संकट खड़ा कर दिया है।
विस्थापन से पहले सहरिया कूनो पालपुर के 345 वर्ग किलोमीटर में फैले घने जंगलों में लघु वनोपज, कंद-मूल, जड़ी-बूटियां, गोंद, चिरौंजी और महुआ बीनकर उन्हें बाजार में बेचकर अच्छा-खासा मुनाफा कमा लेते थे। सहरिया अच्छे शिकारी भी होते हैं। जंगली खरगोश, बत्तख वगैरह का शिकार उनके लिए मांस का स्रोत हुआ करता था। इससे उनके लिए प्रोटीनयुक्त खाना मिल जाया करता था। इसके अलावा वे जंगलों में झूम खेती के जरिए अपने लिए मोटे अनाज, चना, कई तरह की साग-सब्जियां उगा लेते थे।
श्योपुर जिला अमूमन सूखा प्रभावित रहा है। इसके बावजूद सहरिया आदिवासियों में इस कदर कुपोषण और बच्चों की मौत के मामले देखने को नहीं मिलते थे। इनमें मवेशी पालने का भी अच्छा शऊर था, ऐसे में उन्हें खाने लायक दूध, दही, घी तो मिल ही जाता था। जंगलों पर उनका आश्रित होना इस बात से झलकता है कि उनकी आमदनी का पचास से पैंसठ फीसदी हिस्सा गैर-जलाऊ सामान को बाजार में बेचकर हासिल हो जाता था। इसके अलावा उन्हें जंगलों से सूखी लकड़ियां, चारा और घरेलू इस्तेमाल के सामान भी मिल जाते थे़।
विकास के क्रम में, या फिर वन्य जीव संरक्षण जैसी गतिविधियों में कई दफा विस्थापन अपरिहार्य बन जाता है। लेकिन, ऐसे में अपनी जड़ों से उजाड़े लोगों को ससमय, उचित मुआवाज़ा, ज़मीन, रोज़गार, स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधाएं भी दी जानी चाहिएं। आखिर, शेर-चीतों को बचाते-बचाते हम अपने इंसानों को ब्रह्माजी की कहानी की तरह हाशिए पर धकेल तो नहीं सकते।
आज मैं वन्य जीवों के संरक्षण से जुड़ी परियोजनाओं में से एक के बारे में बात करना चाहता हूं कि किसतरह वन्य जीवों के संरक्षण के क्रम में इंसानों को हाशिए पर धकेला गया है। यह ठीक है कि वन्यजीवों और उनकी नस्लों को बचाना बेहद ज़रूरी है, लेकिन उनको बसाने के लिए जिन लोगों को उजाड़ा जाता है, खासकर उनमें आदिवासी लोग और आदिम जनजातियां ही उजड़ती हैं, उनके पुनर्वास पर संवेदनशील तरीके से सोचने और उसे कार्यरूप में बदलने की जरूरत है।
भारत की बात करें, तो देश भर में हुए विस्थापनों के आंकड़े बताते हैं कि सन् 1950 के बाद से भारत में वन्य जीवों से जुड़ी परियोजनाओं में करीब 6 लाख लोग विस्थापित हुए हैं। यह बाक़ी सभी योजनाओं-परियोजनाओं की वजह से हुए विस्थापन का 2.8 फीसद ही है। इनमें से करीब 21 फीसदी यानी 1.25 लाख लोगों का पुनर्वास किया गया। इसका आंकड़े का दूसरा पहलू यह है कि 4.75 लाख लोगों का पुनर्वास नहीं हो पाया। यह वन्य जीवन विस्थापन की कुल आबादी का 79 फीसदी है। गौरतलब है कि कुल विस्थापितों में से 4.5 लाख लोग जनजातीय समुदाय के हैं। यानी करीब तीन चौथाई। सिर्फ एक लाख जनजातियों का ही पुनर्वास हो सका, यानी 78 फीसद विस्थापित जनजातियों का पुनर्वास आजतक नहीं हो पाया है।
मैं मध्य प्रदेश के एक जिले श्योपुर के गांव टिकटोली गया था। टिकटोली कूनो-पालपुर अभयारण्य की सरहद पर बसा है। यहां मिले थे मुझे रंगू। धंसे गालों वाले रंगू ने मुझे एक किस्सा सुनाया। उस किस्से का मुख्तसर यह कि सृष्टि की रचना के बाद ब्रह्मा जी ने सहरिया नाम के कबीले को धरती के आसन के ठीक बीच में बिठाया था। लेकिन सहरिया लोग सीधे-सादे थे। उनके बाद रचे गए लोग आते गए और सहरियाओं से थोड़ा खिसकने को कहते रहे। बहुत देर बाद जब ब्रह्मा जी आए, तो उन्होंने देखा जिस सहरिया को वह बीच में बिठाकर गए थे वह सबसे किनारे बैठा है।
इस कहानी को महज कहानी नहीं प्रतीक मानिए। कूनो-पालपुर जंगल में शेर-चीतों और बाघ को बसाने की सरकारी कोशिश में सहरिया जनजाति—जो कि भारत सरकार द्वारा आदिम जनजाति घोषित है—को जंगल से धकेलते-धकेलते किनारे बंजर-ऊसर ज़मीनों तक धकेल दिया गया है, जहां न उनके पास जोतने लायक खेत हैं, न सिंचाई के लिए कुआं, न खाने के ठीक अनाज।
नतीजतन, आज सहरिया समुदाय भारत का सबसे कुपोषित समुदाय है और सबसे कम साक्षर भी। भारत भर में जनजातीय साक्षरता जहां 41.2 फीसद है, वहीं सहरिया जनजाति में यह 28.7 फीसदी ही है। सहरिया महिलाओं में यह प्रतिशत तो 15 फीसद से थोड़ी ही अधिक है।
कूनो पालपुर से जिन 28 गांवों का विस्थापन हुआ है, उनमें 24 गांव सहरिया बहुल हैं। सहरिया वह जनजाति है, जिनकी आबादी में 2001 और 2011 की जनगणना के अनुसार लगातार कमी दर्ज की गई है। इसकी सबसे प्रमुख वजह है, इनकी जिंदगी का लगातार मुश्किल भरा होता जाना। भूख, कुपोषण, आजीविका का संकट और सबसे महत्वपूर्ण; जंगलों पर खत्म होती इनकी निर्भरता ने समुदाय के सामने पहचान का संकट खड़ा कर दिया है।
विस्थापन से पहले सहरिया कूनो पालपुर के 345 वर्ग किलोमीटर में फैले घने जंगलों में लघु वनोपज, कंद-मूल, जड़ी-बूटियां, गोंद, चिरौंजी और महुआ बीनकर उन्हें बाजार में बेचकर अच्छा-खासा मुनाफा कमा लेते थे। सहरिया अच्छे शिकारी भी होते हैं। जंगली खरगोश, बत्तख वगैरह का शिकार उनके लिए मांस का स्रोत हुआ करता था। इससे उनके लिए प्रोटीनयुक्त खाना मिल जाया करता था। इसके अलावा वे जंगलों में झूम खेती के जरिए अपने लिए मोटे अनाज, चना, कई तरह की साग-सब्जियां उगा लेते थे।
श्योपुर जिला अमूमन सूखा प्रभावित रहा है। इसके बावजूद सहरिया आदिवासियों में इस कदर कुपोषण और बच्चों की मौत के मामले देखने को नहीं मिलते थे। इनमें मवेशी पालने का भी अच्छा शऊर था, ऐसे में उन्हें खाने लायक दूध, दही, घी तो मिल ही जाता था। जंगलों पर उनका आश्रित होना इस बात से झलकता है कि उनकी आमदनी का पचास से पैंसठ फीसदी हिस्सा गैर-जलाऊ सामान को बाजार में बेचकर हासिल हो जाता था। इसके अलावा उन्हें जंगलों से सूखी लकड़ियां, चारा और घरेलू इस्तेमाल के सामान भी मिल जाते थे़।
विकास के क्रम में, या फिर वन्य जीव संरक्षण जैसी गतिविधियों में कई दफा विस्थापन अपरिहार्य बन जाता है। लेकिन, ऐसे में अपनी जड़ों से उजाड़े लोगों को ससमय, उचित मुआवाज़ा, ज़मीन, रोज़गार, स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधाएं भी दी जानी चाहिएं। आखिर, शेर-चीतों को बचाते-बचाते हम अपने इंसानों को ब्रह्माजी की कहानी की तरह हाशिए पर धकेल तो नहीं सकते।
मंजीत ठाकुर
4 comments:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "१४ अगस्त और खुफिया कांग्रेस रेडियो “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बढ़िया रिपोर्ताज ।
Bohot khub
Bohot khub
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