Saturday, March 4, 2017

वोटबैंक का बंटवारा

उत्तर प्रदेश में अब बस आखिरी चरण की वोटिंग होनी बाक़ी है। बहुत कुछ हो गया, बहुत कुछ गुज़र गया। जुमलेबाज़ी, लफ्फाजी, वायदे, घोषणापत्र...सब कुछ हुआ। लेकिन सिर्फ भारत जैसे बड़े और अजूबे किस्म के किमियागरी वाले लोकतंत्र में ही मुमकिन है कि चुनाव घोषणा-पत्र में किए गए वादों की बजाय एक-दूसरे का खौफ दिखाकर जीते जाएं।

बिना किसी का पक्ष लिए कहूंगा कि यह (और पिछले कई चुनाव) मुद्दों (इस बार यूपी में मुद्दो की बात न कें) की बजाय किसी एक पार्टी को रोकने के नाम पर लड़े जा रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के वोटों की चिंता कथिक सेकुलर पार्टियों को है। इन पार्टियों के नेता जब मुस्लिमों से मिलते हैं, तो आम वोटर उनसे यही पूछता है कि अल्पसंख्यक की शिक्षा, रोज़गार, तरक़्क़ी और सेहत के लिए, विकास की समस्याओं के हल के लिए उनके पास योजनाओं का क्या खाका है? नेता जी उंगली से वोटर को चुप कराते हैं और कहते हैं, चुप हो जाओ वरना बीजेपी आ जाएगी।

यह सच है कि सेकुलर कहे जाने वाली पार्टियों के पास अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा का नारा तो है, लेकिन उनका विकास कैसे होगा, इस बात का कोई ठोस रोडमैप नहीं है। यह नदारद है। जाहिर है, ठगा महसूस कर रहा मुसलमान अपने दुख-दर्द में शामिल छोटी पार्टियों पर भी भरोसा कर रहा है ।

इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि बहुजन समाज पार्टी—जिनकी सुप्रीमो मायावती ने खुलेआम मुसलमानों से उनकी पार्टी को वोट देने का आह्वान किया—और समाजवादी पार्टी, जिनके नेता खुद को मुसलमानों का एकमात्र रहनुमा मानते हैं, का यह वोटबैंक या तो बंट रहा है, या खिसक रहा है। यह वोटबैंक मजलिस-ए-इत्तिहाद उल मुस्लिमीन और पीस पार्टी को भी वोट दे रहा है। जाहिर है, इन छोटी पार्टियों की वजह से और वोटबैंक में हिस्सा बंटाने से 11 मार्च को कई दिग्गजों का खेल खराब होगा। यकीनन होगा।

इन दोनों छोटी पार्टियों को ज्यादा सीटें हासिल नहीं होंगी, लेकिन खेल खराब होगा।

इन कथित सेकुलर पार्टियों की दिक्कत है कि नोटबंदी का मसला भी हाथ से फिसल गया। आम जनता में नोटबंदी कोई बहुत बड़ा मसला नहीं है। जबकि, सपा और बसपा दोनों को बुरी तरह यकीन था कि नोटबंदी वोटरों के सामने बहुत बड़ा मसला साबित होगा। ऐसे में इन दलों ने बाकी सारे मुद्दे ठंडे बस्ते में डालकर नोटंबदी को उछाला। उन्हें लगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनाव के ऐन पहले, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। कांग्रेस और सपा तो यही समझती रही कि उन्हें बैठे-बिठाए हाथों में लड्डू थमा दिया गया है। लेकिन, सच यह है कि बीजेपी अगर चुनाव हारेगी भी (क्योंकि चुनाव परिणाम अनिश्चित हैं) तो उसकी वजह नोटबंदी नहीं होगी।

नोटबंदी के बाद के दौर में, कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने सेकुलर वोटों को इकट्ठा करने की रणनीति पर काम करना शुरू किया। मुस्लिम लीडरों क घास न डालने की सलाह उन्होंने अपने दल को दे दी। समाजवादी पार्टी की खुशफहमी की एक वजह यह भी रही कि उनके घरेलू सियासी ड्रामे पर समाजवादी पार्टी के अधिकांश कार्यकर्ता अखिलेश का साथ देते रहे, और उसे रणनीतिकारों ने उसे जनता का समर्थन मान लिया।

अब बात बसपा की। जिस वक्त में अखिलेश जनता के समर्थन की खुमारी में थे, मायावती ने नोटबंदी मुद्दे की व्यर्थता को भांप लिया था। उन्होंने नसीमुद्दीन सिद्दीकी को मुस्लिम उलेमा को साथ लाने के एकसूत्रीय काम पर लगा दिया। तो एक तरफ तो भारतीय जनता पार्टी के नेता नोटबंदी को अपनी उपलब्धि को तौर पर जनता के सामने ले जा रहे हैं। प्रधानमंत्री ने तकरीबन हर चुनावी रैली में, काले धन के खिलाफ नोटबंदी के इस कदम की सराहना की और मायावती और मुलायम के नोटबंदी पर रूख की खिल्ली उड़ाई वहीं, समाजवादी पार्टी मुस्लिम वोटों के विभाजन को रोक पाने में नाकाम रही है।

नोटबंदी की वजह से जनता को जो परेशानी हुई थी, अब वह पुरानी बात हो गई और अब उनके सामने कुर्ते की फटी जेब से उंगलियां बाहर निकालकर दिखाने से जनता के ठहाके हासिल किए जा सकते हैं, वोट नहीं।

फिर अखिलेश यादव और उनकी टीम ने, मायावती को अपने युद्ध में निशाने पर रखा ही नहीं। लेकिन यकीन मानिए उत्तर प्रदेश में फैसला कुछ अनोखा भी आ सकता है। यह अनोखा चुनावी नतीजा, कुछ भी हो सकता है, त्रिशंकु विधानसभा भी। तब, मायावती और बीजेपी साथ आ जाएं तो क्या ताज्जुब! आखिर, सियासत गुंजाइश से ही शुरू होती है।


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