पीयूष सौरभ लखनऊ आर्ट ऐंड क्राफ्ट कॉलेज से ललित कला में परा-स्नातक हैं. जितनी सफाई से उनके ब्रश कैनवस पर चलते हैं, उतनी ही कारीगरी वह शब्दों के साथ भी करते हैं. मेरा सौभाग्य कि वह मेरे बचपने के मित्र हैं. हम सभी मित्रों के आग्रह पर उनने फिर से कविताई शुरू की है. आप से शेयर कर रहा हूं.
भावों की अभिव्यक्ति है,
या फिर, शब्दों का मेला है.
बांट रहा जब सुख-दुख सबसे
मन क्यों निपट अकेला है?
न होठों पर प्रेमगीत है.
ना तो विरह वेदना ही,
आशाओं के उजले तट पर
स्याह-सा ये क्या फैला है?
शुभ्र ज्योति है, शुभ्र है चिंतन
सब तो शुभ्र धवल सा है.
नयनों में तैर रहा क्या जाने
फिर भी कुछ मटमैला है.
--पीयूष सौरभ
भावों की अभिव्यक्ति है,
या फिर, शब्दों का मेला है.
बांट रहा जब सुख-दुख सबसे
मन क्यों निपट अकेला है?
न होठों पर प्रेमगीत है.
ना तो विरह वेदना ही,
आशाओं के उजले तट पर
स्याह-सा ये क्या फैला है?
शुभ्र ज्योति है, शुभ्र है चिंतन
सब तो शुभ्र धवल सा है.
नयनों में तैर रहा क्या जाने
फिर भी कुछ मटमैला है.
--पीयूष सौरभ
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