एक और सहयोगी को खो बैठने के डर से बिहार में भाजपा 2019 के लिए संसदीय सीटों की नीतीश की मांग के आगे झुकी
राज्य में 2014 में भाजपा को 40 में से 22 पर जीत मिली थी, जबकि अकेले लडऩे वाले जद (यू) को सिर्फ दो सीटें हासिल हुई थीं. नए तालमेल का मतलब यह है कि भाजपा के कम से कम पांच मौजूदा सांसदों का टिकट कट सकता है. राज्य में एनडीए के पास फिलहाल 33 सीटें हैं, जिनमें रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के पास छह और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के पास तीन सीटें हैं.
खबर है कि भाजपा को यह घोषणा करने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि नीतीश कुमार ने गठबंधन की किसी भी बैठक में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया था. मौजूदा गणित में भाजपा और जद-यू 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी. इस तरह लोजपा के लिए सिर्फ चार और आरएलएसपी के लिए सिर्फ दो सीटें बचेंगी. आरएलएसपी के उपेंद्र कुशवाहा तो खुलकर खीर बनाने की कोशिशें करते नजर आ सकते हैं. दो सीटों के विकल्प के साथ उनके पास नाक बचाने के लिए एनडीए छोड़ने के सिवा ज्यादा चारा है नहीं.
भाजपा के झुकने की वजह यह मानी जा रही है कि बिहार में अच्छे नतीजों के लिए भाजपा नीतीश कुमार पर निर्भर है. तो क्या यह माना जाए कि चंद्रबाबू नायडू के कांग्रेस के पाले में चले जाने के बाद भाजपा नहीं चाहती कि नीतीश से उनका ब्रोमांस खत्म हो जाए.
बिहार में नीतीश अपरिहार्य हैं. इसकी एक वजह यह भी है कि 2005 से 2015 के बीच (सिर्फ 2014 में नरेंद्र मोदी लहर को छोड़ दें तो) हुए चार विधानसभा और दो लोकसभा चुनाव के दौरान जीत उसी धड़े को हासिल हुई जिसकी तरफ नीतीश कुमार थे. साथ ही यह बात भी समझिए कि 2014 में जहां भाजपा मोदी लहर और सत्ताविरोधी रूझान को साथ लेकर उड़ रही थी अब 2019 में हमें उसे खुद सत्ताविरोधी रुझान का सामना करना है. जनता के एक तबके में मोदी से मोहभंग जैसा माहौल भी है, उससे निपटना भी आसान नहीं होगा.
शायद यही वजह है कि भाजपा ने बिहार में एनडीए के लोकसभा अभियान का नेतृत्व नीतीश को सौंप दिया है. उत्तर प्रदेश में लोकसभा उपचुनावों में भाजपा की हार और मोदी लहर के ठंडे पड़ते जाने से भगवा पार्टी के पास इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है. इसके साथ ही कीर्ति आजाद जैसे कई कमजोर खिलाड़ियों का पत्ता साफ हो सकता है. दरभंगा के मौजूदा सांसद आजाद वैसे भी अरूण जेटली की हिट लिस्ट में हैं. आजाद उन पांच भाजपा सांसदों में होंगे जिनकी जगह जद-यू के किसी प्रत्याशी को दी जा सकती है. संजय झा जद-यू के महासचिव और नीतीश कुमार के काफी करीबी हैं.
जो भी हो, फिलहाल भाजपा ने ध्वज नीतीश के हाथों में पकड़ा दिया है.
भाजपा के झुकने की वजह यह मानी जा रही है कि बिहार में अच्छे नतीजों के लिए भाजपा नीतीश कुमार पर निर्भर है. तो क्या यह माना जाए कि चंद्रबाबू नायडू के कांग्रेस के पाले में चले जाने के बाद भाजपा नहीं चाहती कि नीतीश से उनका ब्रोमांस खत्म हो जाए.
बिहार में नीतीश अपरिहार्य हैं. इसकी एक वजह यह भी है कि 2005 से 2015 के बीच (सिर्फ 2014 में नरेंद्र मोदी लहर को छोड़ दें तो) हुए चार विधानसभा और दो लोकसभा चुनाव के दौरान जीत उसी धड़े को हासिल हुई जिसकी तरफ नीतीश कुमार थे. साथ ही यह बात भी समझिए कि 2014 में जहां भाजपा मोदी लहर और सत्ताविरोधी रूझान को साथ लेकर उड़ रही थी अब 2019 में हमें उसे खुद सत्ताविरोधी रुझान का सामना करना है. जनता के एक तबके में मोदी से मोहभंग जैसा माहौल भी है, उससे निपटना भी आसान नहीं होगा.
शायद यही वजह है कि भाजपा ने बिहार में एनडीए के लोकसभा अभियान का नेतृत्व नीतीश को सौंप दिया है. उत्तर प्रदेश में लोकसभा उपचुनावों में भाजपा की हार और मोदी लहर के ठंडे पड़ते जाने से भगवा पार्टी के पास इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है. इसके साथ ही कीर्ति आजाद जैसे कई कमजोर खिलाड़ियों का पत्ता साफ हो सकता है. दरभंगा के मौजूदा सांसद आजाद वैसे भी अरूण जेटली की हिट लिस्ट में हैं. आजाद उन पांच भाजपा सांसदों में होंगे जिनकी जगह जद-यू के किसी प्रत्याशी को दी जा सकती है. संजय झा जद-यू के महासचिव और नीतीश कुमार के काफी करीबी हैं.
जो भी हो, फिलहाल भाजपा ने ध्वज नीतीश के हाथों में पकड़ा दिया है.
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