Monday, May 6, 2019

साथ पर न बात पर, मुहर लगेगी जात पर

भारत की राजनीति के विश्लेषक आम तौर पर यह मानकर चलते हैं कि भारतीय वोट डालते वक्त अपनी ही जाति को वोट देते हैं. यह मोटे तौर पर सही भी है. पर 2014 के चुनाव से जाति के भीतर वर्ग से जुड़े तत्व की अहमियत की झलक मिलती है. जो कुछ हद तक इन जति समूहों की सामाजिक -आर्थिक भिन्नता का नतीजा है. लेकिन यह जानना क्या दिलचस्प नहीं होगा कि किसी तरह कुछ खास जातियां प्रमुख राज्यों में सत्ता का पलड़ा किसी के पक्ष में झुका सकती हैं.

सबसे पहले बात राजस्थान की. इस सूबे में भाजपा और कांग्रेस दोनों ने जाति के गणित को ध्यान में रखकर उम्मीदवार चुने हैं. भाजपा विधानसभा चुनाव में हार के बाद अपने राजपूत वोट बैंक को वापिस हासिल करने को बेताब है. उसने गुर्जर नेता किरोड़ी सिंह बैंसला और जाट नेता हनुमान सिंह बेनीवाल को भी शामिल किया है ताकि ग्रामीण इलाकों में दबदबा रखने वाली इन दो और जातियों को साथ ला सके. कांग्रेस राजपूत वोटों को लाने के लिए भाजपा छोड़कर आए मानवेंद्र सिंह पर भरोसा कर रही है. मुसलमान अगर एकमुश्त वोट डालते हैं तो 2019 में अहम हो सकते हैं. राजस्थान में गुर्जर 5 फीसदी हैं जो कांग्रेस और भाजपा में बंटते हैं. राजपूत करीबन 9 प्रतिशत है, मेघवाल 5 प्रतिशत और जाट 11 प्रतिशत हैं. जाटों का समर्थन कांग्रेस भाजपा के अलावा आरएलपी बांट सकती है.

राजस्थान से सटे हरियाणा में 2016 के जाट आंदोलन के बाद दूसरे समुदाय जाटों के खिलाफ एकजुट होने को राजी हो गए हैं. अभी तक चौटाला की इनेलोद और कांग्रेस के बीच बंटा जाट वोट और ज्यादा बंट गया है. चौटाला के बड़े बेटे अजय सिंह के बाहर निकल कर जननाय़क जनता पार्टी बना लेने के हबाद इनलोद दोफाड़ हो चुकी है. जाटों में फूट का फायदा भाजपा को मिल सकता है, पर उसे ओबीसी नेता राजकुमार सैनी की लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी के अब बहुजन समाज पार्टी के साथ चले जाने का खामियाजा भुगतना होगा. राज्य में जाटों की तादाद करीबन 22 फीसदी है, अनुसूचित जाति करीब 20 फीसदी हैं और अहीर य़ा यादव 16 फीसदी. इनमें से जाटों का वोट इनेलोद, जेजेपी और कांग्रेस की तरफ झुक सकता है.

उधर, मध्य प्रदेश में प्रमुख असरदार जातियों में यादर और लोध हैं. यादवो की आबादी में हिस्सेदारी करीबन 5-7 फीसदी है, जबकि इस वोट बैंक में भाजपा और कांग्रेस का हिस्सा है. दूसरी तरफ लोध हैं उनकी भी आबादी 7 फीसदी के आसपास ही है.

मध्य प्रदेश में इस लोकसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों ओबीसी वोटों पर ही निगाह लगाए हुए है जो सूबे में 50 फीसदी के आसपास हैं. ओबीसी पहले भाजपा के साथ रहे हैं मगर उनके लिए आरक्षण का कोटा बढ़ाने (14 फीसदी से 27 फीसदी) के कांग्रेस के ऐलान से समुदाय में उसकी संभावनाओं पर इजाफा होना चाहिए. ओबीसी में यादव और लोध जो असरदार जातियां हैं.

मध्य प्रदेश से अलग हुए राज्य छत्तीसगढ़ में वोटिंग पैटर्न पर असर डालने वाली तीन प्रमुख जातियां कुरमी, साहू और सतनामी हैं. कुर्मी राज्य में कोई 10 फीसदी, साहू 8 फीसदी और सतनामी 10 फीसदी हैं. इनमें भी सतनामी (एससी) और साहू (ओबीसी) यहां दो सबसे मजबूत जाति समूह हैं. सतनामियों की समुदाय के तौर पर पहचान मजबूत है जबकि साहुओं को राजनीति में आम तौर पर बहुत ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला है. कुरमी एक और बड़ा जाति समूह है. इस चुनाव में कुर्मी (मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कुर्मी हैं) और सतनामी कांग्रेस के साथ जा सकते हैं और साहू भाजपा के पीछे गोलबंद हो सकते हैं.

उत्तर प्रदेश के कद्दावर जाति समूहों की बात करें तो जाहिर है यादवों, जाटवों, ब्राह्मणों और ठाकुरों का नाम आएगा. यादव करीब 11 फीसदी हैं जाटव 14 फीसदी, ब्राह्मण 9 फीसदी और ठाकुर 5 फीसदी हैं. प्रदेश में भाजपा की घोषित 77 सीटों में से अगड़ी जातियों (20 फीसदी वोट) को 32 (ब्राह्मण 16, ठाकुर 13) और गैर-यादव ओबीसी को 28 टिकट मिले हैं. बसपा ने 38 उम्मीदवारों का ऐलान किया है, जिनमें 10 दलित आरक्षित सीटों पर और 10 ओबीसी उम्मीदवार हैं. उसने ब्राह्मणों (6), वैश्यों (3) ठाकुरों (2) और भूमिहारों (1) को भी टिकट दिए हैं.

बिहार में यादव 14 फीसदी हैं और उसे राजद का वोटबैंक माना जाता है. कुर्मी 3 फीसदी हैं और उसे जद-यू का वोटबैंक माना जाता है. पासवान 5 फीसदी हैं और उस पर रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा का कब्जा रहता है. मुसहरों की आबादी 4 फीसदी के आसपासा है और जीतनराम मांझी उनके नेता माने जाते हैं. जबकि कुशवाहा के 7 फीसदी वोटों पर उपेंद्र कुशवाहा अपना दावा जताते हैं.

भाजपा के ऊंची जाति-ओबीसी गठजोड़ वोटों में इजाफा करने के वास्ते एनडीए अत्यंत पिछड़ी जतियों के 30 फीसदी वोटों के बड़े हिस्से के लिए जेडी-यू और 5 फीसदी पासवान वोट के लिए लोजपा पर भरोसा कर के चल रहा है. राजद का आधार (16.5 फीसदी मुसलमान, 14 फीसी यादव) विपक्ष के उस महागठबंधन की बुनियाद है जिसमें कांग्रेस, रालोसपा और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा और मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी शामिल है.

थोड़ा दक्षिण चलें तो कर्नाटक में मूलतः दो असरदार जाति समुदाय हैं. वोक्कालिगा और लिंगायत. वोक्कालिगा की आबादी राज्य में अनुमानतः 13 फीसदी है और लिंगायतों की 17 फीसदी. आम तौर पर लिंगायत भाजपा का समर्थन करते हैं और वोक्कालिगा जेडी-एस का. वोक्कालिगा ग्रामीण इलाकों में जेडी-एस का समर्थन करते हैं और शहरी इलाकों में वे कांग्रेस और भाजपा के बीच बंटे हैं. कांग्रेस और जेडी-एस को एससी और एसटी (23 फीसदी) ओबीसी (21 फीसदी) और अल्पसंख्यकों (13 फीसदी) का समर्थन हासिल है.

इसी तरह आंध्र प्रदेश में रेड्डी 5 फीसदी हैं. कम्मा 4.8 फीसदी और कापू 18 फीसदी हैं. तेलुगुदेशम पार्ट में कम्मा जाति का और वाइएसआर कांग्रेस में रेड्डियों का दबदबा है. पवन कल्याण की जन सेना को मुख्य रूप से कापू समुदाय का समर्थन हासिल है, जिसे नौकरियों और शिक्षा में उपजातियों के लिए राज्य सरकार के प्रस्तावित 5 प्रतिशत का आरक्षण का फायदा मिलेगा. जनसेना ने बसपा, भाकपा और माकपा के साथ गठबंधन किया है.

तमिलनाडु में पल्लार जाति 17 फीसदी है, पेरियार 9 फीसदी और वनियार 10 फीसदी हैं. पट्टालि मक्काल काच्चि सबसे ज्यादा पिछड़े वनियारों की नुमाइंदगी करती है और नौ सीटों पर असरदार खिलाड़ी है. पीटी पल्लार दलित उपजाति की नुमाइंदगी करती है, जिनकी 28 जिलों में अहम मौजूदगी है. डीएमके के साथी दल विदुतलाई चिरुतैगल काच्चि और कोंगुनाडु मक्कल देसिया काच्चि पेरियारों और गौंडरों (मुख्यमंत्री ई.के. पलानीसामी का समुदाय) की नुमाइंदगी करते हैं.

खैर जो भी हो, जाति के आधार पर वोटिंग का यह चलन देश के सियासी तबके की मायूस करने वाली तस्वीर से रू ब रू कराती है और हमें भारत की चुनावी राजनीति के मुक्तिदाता होने के वादे और साथ ही सियासी पार्टियों के समावेशी होने के दावों पर सवाल भी खड़े करती है.


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