Tuesday, September 24, 2019

अमिताभ को न मिलता तो दादा साहेब फाल्के पुरस्कार अर्थहीन हो जाता.

उस दौर में जब राजेश खन्ना का सुनहरा रोमांस लोगों के सर चढ़कर बोल रहा था, समाज में थोड़ी बेचैनी आने लगी थी. बेचैनी इसलिए क्योंकि आजादी के बाद का खुमार उतर चुका था. आराधना जैसी सुपर हिट फिल्म से राजेश खन्ना का आविर्भाव हुआ था. खन्ना का रोमांस लोगों को पथरीली दुनिया से दूर ले जाता, यहां लोगों ने परदे पर बारिश के बाद सुनसान मकान में दो जवां दिलों को आग जलाकर फिर वह सब कुछ करते देखा, जो सिर्फ उनके ख्वाबों में था.

राजेश खन्ना अपने 4 साल के छोटे सुपरस्टारडम में लोगों को लुभा तो ले गए, लेकिन समाज परदे पर परीकथाओं जैसी प्रेम कहानियों को देखकर कर कसमसा रहा था. इस तरह का पलायनवाद ज्यादा टिकाऊ होता नहीं. सो, ताश के इस महल को बस एक फूंक की दरकार थी. दर्शक बेचैन था. उन्ही दिनों परदे पर रोमांस की नाकाम कोशिशों के बाद एक बाग़ी तेवर की धमक दिखी, जिसे लोगों ने अमिताभ बच्चन के नाम से जाना.




महंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और पंगु होती व्यवस्था से लड़ने वाली एक बुलंद आवाज़ की ज़रुरत थी. ऐसे में इस लंबे लड़के की बुलंद आवाज़ परदे पर गूंजने लग गई. इस नौजवान के पास इतना दम था कि वह व्यवस्था से खुद लोहा ले सके और ख़ुद्दारी इतनी कि फेंके हुए पैसे तक नहीं उठाता.

गुस्सैल निगाहों को बेचैन हाव-भाव और संजीदा-विद्रोही आवाज़ ने नई देहभाषा दी. उस वक्त जब देश जमाखोरी, कालाबाज़ारी और ठेकेदारों-साहूकारों के गठजोड़ तले पिस रहा था, बच्चन ने जंजीर और दीवार जैसी फिल्मों के ज़रिए नौजवानों के गुस्से को परदे पर साकार कर दिया.

विजय के नाम से जाना जाने वाला यह शख्स, एक ऐसा नौजवान था, जो इंसाफ के लिए लड़ रहा था, और जिसको न्याय नहीं मिले तो वह अकेला मैदान में कूद पड़ता है.

कुछ लोग तो इतना तक कहते है कि अमिताभ के निभाए इसी गुस्सेवर नौजवान किरदार ने सत्तर के दशक में एक बड़ी क्रांति की राह रोक दी. लेकिन बदलते वक्त के साथ इस नौजवान के चरित्र में भी बदलाव आया. जंजीर में उसूलों के लिए सब-इंसपेक्टर की नौकरी छोड़ देने वाला नौजवान फिल्म देव तक अधेड़ हो जाता है. जंजीर में उस सब-इंस्पेक्टर को जो दोस्त मिलता है वह भी ग़ज़ब का. उसके लिए यारी, ईमान की तरह होती है.

बहरहाल, अमिताभ का गुस्सा भी कुली, इंकलाब आते-आते टाइप्ड हो गया. जब भी इस अमिताभ ने खुद को या अपनी आवाज को किसी मैं आजाद हूं में या अग्निपथ में बदलना चाहा, लोगों ने स्वीकार नहीं किया.

तो नएपन के इस अभाव की वजह से लाल बादशाह, मत्युदाता, और कोहराम का पुराने बिल्लों और उन्हीं टोटकों के साथ वापस आया हुआ अमिताभ लोगों को नहीं भाया. वजह- उदारीकरण के दौर में भारतीय जनता का मानस बदल गया था. अब लोगो के पास खर्च करने के लिए पैसा था, तो वह रोटी के मसले पर क्यों गुस्सा जाहिर करे.

उम्र में आया बदलाव उसूलों में भी बदलाव का सबब बन गया. देव में इसी नौजवान के पुलिस कमिश्नर बनते ही उसूल बदल जाते हैं, और वह समझौतावादी हो जाता है.

लेकिन अमिताभ जैसे अभिनेता के लिए, भारतीय समाज में यह दो अलग-अलग तस्वीरों की तरह नहीं दिखतीं. दोनों एक दूसरे में इतनी घुलमिल गए हैं कि अभिनेता और व्यक्ति अमिताभ एक से ही दिखते हैं. जब अभिनेता अमिताभ कुछ कर गुज़रता है तो लोगों को वास्तविक जीवन का अमिताभ याद रहता है और जब असल का अमिताभ कुछ करता है तो पर्दे का उसका चरित्र सामने दिखता है.

अमिताभ का चरित्र बाज़ार के साथ जिस तरह बदला है वह भी अपने आपमें एक चौंकाने वाला परिवर्तन है. जब ‘दीवार के एक बच्चे ने कहा कि उसे फेंककर दिए हुए पैसे मंज़ूर नहीं, पैसे उसको हाथ में दिए जाएं, तो लोगों ने ख़ूब तालियां बजाईं.

बहुत से लोगों को लगा कि यही तो आत्मसम्मान के साथ जीना है. फिर उसी अमिताभ ने लोगों के सामने पैसे फ़ेंक-फेंककर कहा, ‘लो, करोड़पति हो जाओ.’ कुछ लोगों को यह अमिताभ अखर रहा था लेकिन ज्यादातर लोगों को बाज़ार का खड़ा किया हुआ यह अमिताभ भी भा गया.

अपनी फिल्मों के साथ आज अमिताभ हर मुमकिन चीज बेच रहे हैं. वह तेल, अगरबत्ती, पोलियो ड्रॉप से लेकर रंग-रोगन, बीमा और कोला तक खरीदने का आग्रह दर्शकों से करते हैं. करें भी क्यों न, आखिर उनकी एक छवि है और उन्हें अपनी छवि को भुनाने का पूरा हक है. दर्शक किसी बुजुर्ग की बात की तरह उनकी बात आधी सुनता भी है और आधी बिसरा भी देता है.

बहरहाल, अमिताभ बच्चन ने अपनी फिल्मों के साथ जो विज्ञापन किए उसमें बाजार के साथ और चलन के साथ उनका खड़ा होना स्पष्ट दिखता है. विज्ञापन में कंघी-शीशा-तेल बेचने के साथ-साथ अमिताभ ने अपनी सियासी दोस्ती भी निभाई. एक तरफ वे कमिटमेंट और मजबूरी के तहत पोलियो के ब्रांड एंबेसेडर बने तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बताने का काम भी किया. (काम किया यह तकियाकलाम है समाजवादियों का) और फिर बदलते वक्त के साथ अमिताभ ने जाहिर न होने देते हुए पाला बदल लिया.

अब वे दर्शकों से गुजारिश करते हैं कि कुछ दिन तो गुजारिए गुजरात में.

बहरहाल, अमिताभ बच्चन की सबसे बुरी फिल्मों में किसी को अमिताभ के अभिनय से शिकायत नहीं हुई है. तूफान, जादूगर से लेकर अक्स, निशब्द, तीन..किसी भी फिल्म का नाम लीजिए, अमिताभ काम के समय और काम को लेकर पाबंद रहे हैं. उनके इन गुणों को लेकर टनों कागज खर्च किए जा चुके हैं.

फिल्हाल, उनके कद और अभिनय को देखते हुए हम यही कहते हैं देर-सबेर इंडस्ट्री के शहंशाह को यह तो मिलना ही था. न मिलता, तो दादा साहेब फाल्के पुरस्कार ही अर्थहीन होता.



1 comment:

Roli Abhilasha said...

वाह सर मन की बात लिख दी आपने 👌👌👌