पाम ऑएल की पैदावार देश में बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार पूर्वोत्तर समेत देश के कई हिस्सों में इसकी खेती को बढ़ावा दे रही है, पर इसके पर्यावरणीय दुष्प्रभाव काफी गंभीर होंगे
मंजीत ठाकुर
देश में मुद्दे और मसले इतने सारे हैं कि किसी का ध्यान महंगाई की तरफ जा ही नही रहा है. बे-गुन जैसी चीज 15 रुपए का पाव मिल रहा है, और सरसों तेल और रिफाइंड ऑइल की तो बात ही मत कीजिए. हमारे सार्वजनिक विमर्श में एकाध मीम और दसेक ट्वीट को छोड़कर महंगाई है नहीं कहीं.
मैं भी महंगाई की बात करके नक्कू थोड़े ही बनूंगा. पर सरकार सोच रही है कि खाद्य तेलों की महंगाई कैसे कम की जाए. इसके लिए तिलहन और पाम ऑयल पर राष्ट्रीय मिशन को वनस्पति तेलों के उत्पादन पर निर्भरता कम करने के लिहाज से नीति-नियंता देख रहे हैं. पर, यह नीति एकांगी है और महज एक ही दिशा की ओर देखती है. आपको ‘पीली क्रांति’ की याद होगी. नब्बे के दशक की इस ‘क्रांति’ ने तिलहन की पैदावार को बढ़ाया था. हालांकि, इसके बाद विभिन्न तिलहनों, मसलन मूंगफली, सरसों, सोयाबीन और राई, की पैदावार में लगातार बढ़ोतरी हुई है, लेकिन तेल सरपोटने वाले देश में घरेलू मांग से यह अभी भी कम है.
अब सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन-ऑएल पाम (एनएमईओ-ओपी) योजना पेश की है, जिसमें पूर्वोत्तर राज्यों और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह पर खास ध्यान दिया गया है. इस योजना का मकसद खाद्य तेलों के आयात पर निर्भरता कम करने के लिए भारत के ताड़ तेल (पाम ऑएल) पैदावार को बढ़ाना है.
सरकार का लक्ष्य अगले पांच साल में सालाना पैदावार को 11 लाख टन और अगले दस साल में बढ़ाकर 28 लाख करना है. और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए देश में ताड़ तेल के रकबे को बढ़ाकर 6,50,000 हेक्टेयर किया जाएगा. अगले एक दशक में इस रकबे में 6,70,000 हेक्टेयर और जोड़ा जाएगा.
नीति-नियंताओं का आकलन है कि भारत में, ताड़ तेल, (अरे वही पाम ऑएल) की खेती 28 लाख हेक्टेयर में की जा सकती है जिसमें से करीब 9 लाख हेक्टेयर पूर्वोत्तर में हैं. एनएमईओ-ओपी योजना की कुल लागत 11,040 करोड़ रुपए है, जिसमें से 8,844 करोड़ रुपए केंद्र देगा और बाकी का हिस्सा राज्य सरकारें वहन करेंगी.
सरकार बेशक खाद्य तेलों का आयात कम करना चाह रही है और देश के कुल खाद्य तेल आयात में ताड़ तेल का हिस्सा 50 फीसद से अधिक है. आपने गौर किया होगा, पिछले साल भर में इस तेल की कीमत 60 फीसद तक बढ़ गई है. 1 जून, 2021 ताड़ तेल की कीमत 138 रुपए प्रति किलो तक हो गई थी, जो 1 जून, 2020 को 86 रुपए प्रति किलो था. यह पिछले 11 सालों में सर्वाधिक कीमत थी.
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए, सरकार ताड़ तेल के उत्पादक किसानों को इनपुट लागत में मदद दे रही है और यह मदद 29,000 रुपए प्रति हेक्टेयर कर दी गई है. उपज के लिए भी खेतिहरों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ एक तय कीमत दी जाएगी.
लेकिन, असली चिंता यह नहीं है कि इस कृषि वानिकी की लागत क्या होगी. असली चिंता वह लागत है जो पारिस्थितिकी के नुक्सान से पैदा होगी. सुमात्रा, बोर्नियो और मलय प्रायद्वीप मिसालें हैं जहां वैश्विक पाम ऑयल का 90 फीसद पैदा उत्पादित किया जाता है. इन जगहों पर इसकी व्यावसायिक खेती के लिए बड़े पैमाने पर जंगल काटे गए और स्थानीय जल संसाधनों पर इसका भारी बोझ पड़ा, क्योंकि ताड़ तेल की खेती के लिए पानी की काफी जरूरत होती है.
अंग्रेजी के अखबार, द इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, “इंडोनेशिया में सिर्फ 2020 में ही मुख्य रूप से तेल ताड़ के वृक्षारोपण के लिए 1,15,495 हेक्टेयर वन क्षेत्र का नुक्सान हुआ है. सन 2002-18 की अवधि में, इंडोनेशिया में 91,54,000 हेक्टेयर प्राथमिक वन क्षेत्र का नुक्सान हुआ है. इस जंगल कटाई ने वहां की जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने के साथ-साथ जल प्रदूषण को भी बढ़ाया है.”
ताड़ तेल के बागानों से सरकारी नीतियों और परंपरागत भूमि अधिकारों के बीच संघर्ष हो सकता है. अपने देश में, पूर्वोत्तर के राज्य राजनैतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र हैं और पाम ऑयल की खेती की पहल से वहां तनाव पैदा हो सकता है.
दूसरी तरफ, पूर्वोत्तर में पक्षियों की करीबन 850 नस्लें पाई जाती हैं. पूरे पूर्वोत्तर में खट्टे फल पाए जाते हैं, औषधीय पौधे और दुर्लभ पौधों और जड़ी-बूटियां यहां कुदरती तौर पर उगती हैं. यही नहीं, पूर्वोत्तर के विभिन्न इलाकों में 51 प्रकार के वन हैं. सरकारी अध्ययनों में भी पूर्वोत्तर की समृद्ध जैव विविधता पर प्रकाश डाला है. ऐसे में, पाम तेल नीति इस क्षेत्र की जैविक समृद्धि को नष्ट कर सकती है.
वैसे, पर्यावरण और जैव-विविधता की रक्षा के लिए इंडोनेसिया और श्रीलंका ने पाम ट्री पौधारोपण पर बंदिशें आयद करनी शुरू कर दी हैं. 2018 में, इंडोनेशिया सरकार ने पाम आयल उत्पादन के लिए नए लाइसेंस जारी करने पर तीन साल की रोक लगा दी. पिछले साल, श्रीलंका सरकार ने भी चरणबद्ध तरीके से ताड़ तेल के पेड़ों को उखाड़ने के आदेश जारी किए थे.
ताड़ तेल की पैदावार को भारत में बढ़ावा दिया जा रहा है जबकि तथ्य यह भी है कि देश के अधिकांश परिवार रोजाना के खर्च में पारंपरिक तेलों (सरसों, नारियल, सोयाबीन, तिल) का इस्तेमाल ही करता है. ऐसे में, ताड़ तेल पर जोर देने से वर्षाआधारित तिलहन से ध्यान हट जाएगा. इसका असर लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण की सेहत पर क्या पड़ेगा इसका गहरा अध्ययन जरूरी है.
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