Sunday, June 19, 2022

रघुबीर यादव का मैसी साहब से लेकर पंचायत के प्रधानजी का सफर अद्भुत भी है और चक्रीय भी

मंजीत ठाकुर

रघुबीर यादव के साथ तस्वीर सोशल मीडिया पर डालने के साथ ही कई सौ टिप्पणियां सिर्फ इस बारे में आईं कि ‘प्रधानजी साथ में कौबला लौकी लाए थे या नहीं?’ आगे बढ़ने से पहले बता दूं कौबला मतलब खिच्चा, ताजा एकदम नाजुक लौकी.

15 मिनट की लोकप्रियता के इंटरनेटी दौर में भला कोई किरदार यूं लोगों के जेहन में समाए तो उस एक्टर के रेंज की तारीफ करनी हो होगी. और रघुवीर यादव कमाल के एक्टर हैं यह कहना भी बस, क्लीशे पंक्ति ही होगी. आखिर, पंचायत वेबसीरीज के दोनों सीजन में अपनी ट्रेडमार्क मुस्कुराहट के साथ प्रधानजी, ओह माफ कीजिएगा प्रधान-पति दूबे यानी रघुवीर यादव लोगों के जेहन में बस गए.

हल्की दाढ़ी और स्क्रीन पर दिखने वाले सामान्य हेयर कट की तुलना में कहीं अधिक लंबे बालों के साथ प्रधानजी का नाम का सुनते ही रघुवीर यादव की आंखों में चमक आ जाती है. वह कहते हैं, “हमलोग गंगा-जमुनी तहजीब की जो बात करते हैं, यही है. इसमें आप देख लीजिए, रिलेशंस हैं लोगों के. हर इंसान की खूबी सहजता और सरलता में ही है. जिस सहज तरीके से बढ़े हैं लोग... लेकिन जिंदगी में कहां से कहां पहुंच गए. हम उस विरासत को छोड़ते जा रहे हैं इसी वजह से हम बिखरते भी जा रहे हैं. हमारी इंसानियत खोती चली जा रही है.”

एक दर्शक के तौर पर आपको रघुवीर यादव की सबसे पुरानी याद क्या है? याद है जब ब्लैक ऐंड व्हाइट टीवी का जमाना था और जोहरा सहगल बच्चों को मुल्ला नसीरुद्दीन की कहानियां सुनाया करती थीं. जब एक हंसोड़ चरित्र परदे पर आता था और परदे पर उसके खींसे निपोरते ही क्रेडिट शुरू हो जाता थाः मुल्ला नसीरुद्दीन. वह रघुवीर यादव थे.

उन्हीं दिनों, एक और चरित्र लोगों के दिलो-दिमाग पर छा रहा था जो अपने रिटायर्ड पुलिसिया ससुर से परेशान था, जो सामान्य व्यक्ति था और जो नाकाम इसलिए था क्योंकि सीधा और सरल था, जिसकी परेशानियों का हल व्यावहारिक जिंदगी में नहीं बल्कि उसके सपनों में था. जहां उसके सारे दुश्मन मात खा जाते थे और उसकी हसीन इच्छाएं पूरी होती नजर आती थीं. नाम थाः मुंगेरी लाल के हसीन सपने.

प्रकाश झा का यह टीवी सीरियल इतना प्रसिद्ध हुआ कि यह हिंदी में एक कहावत ही बन गया और बाद में झा ने इसका एक सीक्वेल भी बनाया था, मुंगेरी के भाई नौरंगी लाल (इसमें राजपाल यादव मुख्य किरदार में थे)

बहरहाल, टीवी से शुरू हुआ अभिनय का चक्र फिर से टीवी (इस बार ओटीटी की शक्ल में) पर आ गया है. अच्छी कहानियों और स्क्रिप्ट की तलाश में रघुबीर पहले ही चुनिंदा फिल्में किया करते थे. पर इसकी तलाश उन्हें पंचायत तक ले आई. सहज-सरल किरदार, सहज सरल परिवेश, जिसमें सायास नहीं, एकाध गालियां आती भी हैं तो धारा में बहकर निकल जाती हैं. जहां गांव के समाज के छोटे-छोटे डिटेल्स हैं.

यादव कहते हैं, “पंचायत कहानी सुनकर तो किया ही था, लेकिन उसमें जो माहौल रचा जा रहा था, तो मैंने कहा इस सीरीज को तो किया ही जाना चाहिए. किसी ने कह दिया था कि बहुत कॉमिक है, तो मैंने कहा कि ये कॉमिक तो कत्तई नहीं है. इसमें तो ट्रेजिडी भरी हुई है. पहले से कॉमिडी सोचकर क्यों हाथ-पैर हिलाना, किरदार को बस निभाते रहो.”

लेकिन पंचायत के दोनों सीजन आम लोगों की पसंद है. खासकर, एक्शन और थ्रिलर वेबसीरीज के दौड़ में, जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गेम ऑफ थ्रोन्स से लेकर हाउस ऑफ कार्ड्स तक और वाइकिंग्स से लेकर फौदा जैसी कड़क सीरीज मौजूद हो और हिंदुस्तानी ऑडियंस को सेक्रेड गेम्स, पाताललोक, द फैमिली मैन और मिर्जापुर का जायका लग चुका हो, वैसे में सीधी-सादी कहानी पंचायत की लोकप्रियता का क्या राज है भला!

यादव कहते हैं, “सहजता, सरलता यही गुण है जो मुझे नजर आता है. असल में, सरलता बहुत मुश्किल से आती है. सरलता से काम करना बहुत मुश्किल काम है. जैसे ही बड़े प्रोडक्शन हाउस जुड़ते है तो एक्टिंग-विक्टिंग सब खत्म हो जाता है. फिर वो नोचने लगते हैं कि ऐसे करोगे तो ऐसे कमाई होगी. यह पंचायत में नहीं था.”

पंचायत के बारे में रघुवीर यादव कहते हैं कि अब तो शादी-ब्याह में बारातों में लोग पंचायत सीरीज देख रहे हैं, पूरा परिवार वेबसीरीज बैठकर देखने लग गया है. यादव कहते हैं, “पंचायत के विलेन से भी मुहब्बत होती है. विलेन भी कैसा जो सड़कों के बारे में बात कर रहा है, जो कहता है कि सड़कों पर गड्ढा है और इसको ठीक करवाइए. वो विलेन कैसे हो गया... वह तो कायदे की बात कर रहे हैं. लेकिन अब जो है विधायक, उसमें थोड़ा रंग है लेकिन कोई नफरत नहीं कर रहा है. चाहते सब हैं कि ऐसा कुछ हो कि उसको भी बिठाया जाए. अब लोग मेरे पीछे पड़े हैं कि क्या चुनाव लड़ोगे?”

पंचायत की खासियत है कि उसमें पंचायत सचिव और प्रधानजी की बिटिया का प्रेम भी बहुत महीन तरीके से चलता है. पंचायत की कामयाबी इसके संवादों की भाषा का बेहद ऑथेंटिक होना है. यादव कहते हैं, “पंचायत में पूर्वांचल-बिहार की भाषा को बहुत ऑथेंटिक रखा गया है. पूरे बिहार में ‘हम जाता हूं’ कही नहीं बोला जाता. कई लोगों ने फिल्मों में मुझसे ऐसी भाषा बोलने को कहा भी तो मैंने हमेशा मना किया. वो कहते रहे कि ये पंच है, पर भाषा का कैरिकेचर बनाना कहां तक उचित है?”

आने वाले 25 जून को रघुवीर यादव 65 साल के हो जाएंगे. इस उम्र में सामान्य लोग रिटायर हो जाते हैं, सरकारी हुए तो पेंशन खाने लगते हैं और गैर-सरकारी हुए तो जिंदगी में थोड़ा रुककर आने वाले बचे हुए सालों की जिंदगी की थाह लेने लग जाते हैं. बचत, परिवार, अब तक किया काम, छूटे हुए का दुख और आने वाली दुश्वारियों से बच निकलने की तरकीबें. पर, अभिनेता के लिए ऐसा करने की छूट नहीं होती. खासकर, तब जब आप मुख्यधारा के सोकॉल्ड स्टार न हों और व्यापक रेंज और गहराई वाले अभिनय के बावजूद फिल्मी पोस्टर पर आपका चेहरा नमूदार न होता हो. शो बिज सामान्य लोगों के लिए कुछ अधिक ही बेरहम होता है.

लेकिन जो लोग खुद अभिनय के स्कूल हैं, और सिनेमा में कोई पैंतीस-छत्तीस बरस बिता चुके हैं, उनके लिए मील का पत्थर वाला मुहावरा बेमानी है.

वह कहते हैं, “संघर्ष शब्द मैं कभी इस्तेमाल नहीं करता. ये जो तजुर्बे होते हैं ये मेरी पाठशाला थी. अगर मैं नहीं करता तो मुझे कुछ हासिल होता क्या. क्या लगता है कि गलीचे पर और गद्दे तकिए पर सोकर आप कुछ हासिल कर लोगे? आपको जमीन पर तो उतरना पड़ेगा कभी न कभी.”

जबलपुर के पास के रांझी गांव से कभी भागकर पारसी थिएटर कंपनी में शामिल हुए बेहद विनम्र और संकोची रघुबीर यादव में एक गंवई सादगी मौजूद है. खुद की खामियों पर हंसने के मामले में वे चार्ली चैप्लिन की एक झलक दे जाते हैं.

पारसी कंपनी में भर्ती के मौके पर उनके गंवई उच्चारण को लेकर जब मालिक ने 'तलफ्फुज़ (उच्चारण)" ठीक न होने की शिकायत की तो उन्होंने सफाई दी कि तबले पर गाऊंगा तो ठीक हो जाएगा. उन्हें लगा कि तलफ्फुज़ का ताल्लुक तबले से है. यह किस्सा वे मजे लेकर सुनाते हैं.

लेकिन, अपने उन दिनों की याद में खोते हुए यादव भावुक हो जाते हैं. वह कहते हैं, “पारसी थियेटर के दिनों में जब भूखे मरते थे हम तो ज्यादा मजा आता था मुझे. हमें रोज का डेढ़ रुपया मिलता था तो बारह आने का आटा ले आते थे और बारह आने का टमाटर. कहीं से तवा लेकर आए और कोने में बैठकर रोटी लगा देते थे, टमाटर की चटनी बना लेते थे. आधी खा लेते थे और आधी लपेटकर पेड़ पर रख देते थे कि शाम को खाएंगे.” ठहाका लगाते हुए रघुवीर कहते हैं, “वहां कुछ जुआरी रहते थे जो जुए में हार जाते थे और वे लोग हमारी रोटी खा जाते थे. और उस शाम हमें भूखा सोना पड़ता था.”

रघुवीर यादव पारसी थियेटर के जमाने का एक किस्सा भी बड़े मौज में आकर सुनाते हैं. मध्य प्रदेश के राघोगढ़ में रघुवीर अपने समूह के साथ मंचन के लिए गए थे और तब उनके निर्देशक थे मशहूर रंगकर्मी रंजीत कपूर.

टीम के खाने के लाले पड़े थे. अपनी खिलखिलाती हंसी के साथ यादव बताते हैं, “पूरी टीम के गाल पिचक गए थे. बस एक मैं था कि मेरे गाल और लाल हुए जा रहे थे.”

असल में, जहां यह टीम मैदान में रिहर्सल करती थी वहीं तालाब के पास एक मंदिर था और वहां साधुओं की एक टोली ठहरी थी. टोली के साधु दिनभर आसपास के गांवों से आटा वगैरह मांगकर लाते, उनमें से एक सारा आटा एकसाथ गूंथकर मोटी रोटी सेंकने के लिए रख देता. यादव गाने में उस्ताद थे और वह रोज शाम को मंदिर में साधुओं के साथ भजन गाते. यादव पुलकते हुए बताते हैं, “मैं रोज गाता था सांवरे आ जइयो, नदिया किनारे तेरा गांव... और भजन खत्म होते ही साधु मंडली मुझसे कहती कि चलो कुंवर जी भोजन कर लो और हर शाम मैं उनके साथ भरपेट खा लेता.”

वह कहते हैं, “एक दिन रंजीत कपूर ने छिपकर मेरी कारस्तानी देख रहे थे. साधुओं ने उनको छिपे हुए देख लिया और कहा कि आपके साथी उधर हैं उनको भी बुला लीजिए. मैंने रंजीत कपूर को आवाज दी, वो तो नहीं आए पर बाद में मुझे बहुत डांटा कि एक तो ये साधु भीख मांगकर लाते और तुम उसमें भी हिस्सा खा लेते हो. मैंने कहा, कि मैंने तो मेहनत की है. कपूर ने पूछ लिया कि क्या मेहनत की तुमने, तो मैंने कहा, मैंने भजन नहीं गाए डेढ़ घंटे! उसके बाद भी मैंने गाना और खाना नहीं छोड़ा.”

पारसी थियेटर के बाद यादव ने कठपुतलियों से नाता जोड़ा था. यादव उसका भी एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं. बिहार के हाजीपुर में वह कठपुतलियों के एक शो के सिलसिले में हाजीपुर गए थे और महेश ऐंड पार्टी में वह गाने के लिए जाते थे. महेश खुद रेलवे में टिकट कलेक्टर था.

अपनी ही यादों में खोते हुए रघुवीर यादव बार-बार खिलखिलाते हैं. लल्लन, जगदीश जैसे दोस्त थे जो शो से जुड़े थे. यादव रेलवे क्वॉर्टर के बाहर खटिए पर सोते थे. रघुवीर कहते हैं, “महेश रात को पहलेजा घाट से महेंद्रू के बीच चलने वाले स्टीमरों के टिकट की पंच की गई तारीख के निशानों को बेलन से मिटा देते थे और उसी टिकट पर हम सबकी यात्रा करवाते थे.”

वह कहते हैं, “हमलोगों को अंधेरे में जाना पड़ता था. हाजीपुर के चौहट्टा के पास रहते थे और रास्ते में खेत बहुत थे. यादव बताते हैं, एक रोज हमलोग ढाई बजे रात को गुजर रहे थे और घर में खाने को कुछ था नहीं तो महेश ने गोभी के खेत से कुछ गोभी उखाड़ लिए और आधी गोभी तो हम कच्चा खा गए और बाकी का सब्जी पकाया.

अगली सुबह खुद महेश खेत पर आए और लल्लन को बुलाया, ऐ लल्लन, हियां आ रे. और फिर गोभी चुराने वाले को खूब गालियां दीं. रघुवीर बताते हैं, मैंने पूछा खुद को क्यों गालियां दे रहे हो. तो बोले, गालियां खा ली पाप कट गए.”

उसके बाद यादव ने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का रुख किया. वह कहते हैं, “मेरा असल जीवन तो रंगमंच है, फिल्में तो मैं बस कर लेता हूं.”

वह बताते हैं, “सत्तर के दशक में बहुत गुलजार रहती थी दिल्ली. दिल्ली में सीखने को मिलता बहुत था. बिष्णु दिगंबर जयंती... बाल गंधर्व... बहुत सारे म्युजिक और थियेटर हुआ करते थे. बहुत खूबसूरत माहौल था. अस्सी के बाद वो धीरे-धीरे बिखरना शुरू हुआ. फिर मीडियोकर लोग घुस गए. मीडियोकर कौन होता है, लेजी लोग जो मेहनत नहीं करना चाहते. हमें अल्काजी चौबीस में बाइस घंटे काम करवाते थे. क्योंकि वह काम के प्रति दीवानगी पैदा करवा देते थे. जुनून पैदा कर देते थे.”

मैसी साब, सलाम बॉम्बे, लगान, पीपली लाइव, न्यूटन जैसे उम्दा सिनेमा करते आए यादव, दोस्तों के बीच रघु भाई के नाम मशहूर हैं और उनके रचना संसार मे अभिनय तो बस एक ही आयाम है. उनकी जीवन यात्रा में सुर भी हैं और ताल भी. अनुषा रिजवी की फिल्म ‘पीपली लाइव’ में व्यंग्य गहरे धंसता है और उसका एक गाना बेहद लोकप्रिय भी है. निर्देशक ने रघुवीर की आवाज में एक लोकगीत को फिल्म में इस्तेमाल किया था.

यादव कहते हैं, “लोकसंगीत की एक खासियत होती है कि इसके दायरे के अंदर आप इसको इंप्रोवाइज कर सकते हैं. इसको बदला जा सकता है. पीपली लाइव के इस गाने के साथ जब निर्देशक आईं तो उनके पास महज दो लाईनें थीं, सखी सैयां तो खूबै कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है...वो महंगाई पर जोर दे रहे थे...”

हमारी टीम में से किसी ने टोचन दिया आपने डायन पर जोर दिया... रघुवीर अपने अंदाज में ठठाकर हंसते हैं और कहते हैं, “नहीं, मैंने सैंया पर जोर दिया था. आखिर सारी तकलीफ तो सैंया से ही है न. तो उसका पूरा मूड ही बदल गया और जो हारमोनियम लेकर आए थे उसके बीच की कुंजियां ही सही थीं, बाकी काम की नहीं थी. तो मैंने बाकी के सुर बंद कर दिए और बीच के स्केल का मैंने सुर लगाया और गांव से सारे पतीले और कड़ाहियां मंगाईं... उसी के बीच से हमने सुर ढूंढे.”

रघुवीर ने गाने के मुखड़े को रखा और अंतरे में कुछ पंक्तिया जोड़ी. वह कहते हैं, “हर महीना उछले पेट्रोल...डीजल का भी बढ़ गया मोल...शक्कर बाई के क्या बोल... बाद में फिर मेरे जेहन में आया कि साल घसीटा लग गया जून...महंगाई मेरो पी गई खून...और हाफ पैंट हो गई पतलून...” और कहकर कहकहा लगाते हैं.

मुंबई के गोरेगांव वेस्ट में ओबेरॉय वूड्स कॉलोनी के एक टावर की बीसवीं मंजिल के उनके टू बेडरूम आशियाने की बैठक में दीवार पर रैक में विश्व सिनेमा की क्लासिक फिल्मों की डीवीडी हैं, पर अपनी फिल्मों की नहीं.

रघुवीर का इन दिनों का प्यार संगीत है और उनके घर में बनी, अधबनी बांसुरियों का ढेर है. बांस के 5-5 फुट तक के लट्ठे, पीवीसी पाइप की भी बांसुरियां, यहां तक कि कोल्ड ड्रिंक पीने के काम आने वाले स्ट्रॉ भी बांसुरियों में बदल दिए गए हैं,

बांसुरी बजाना उन्होंने खुद ही सीखा है और बनाना भी, उनके संग्रह में ईरानी बांसुरी 'नेय और मिस्र की बांसुरी कवाला भी है. 2013 में आई उनकी फिल्म क्लब 60 के निर्देशक ने उन्हें स्लोवाकिया की बांसुरी फुजरा बनाते हुए देखा तो उसे बाकायदा उस फिल्म का हिस्सा बना लिया.

इन दिनों रघुवीर यादव प्रधानजी की अपनी धज में खुश हैं, पटकथाएं लिख रहे हैं, बांसुरियां बजा रहे हैं और उतने ही सहज और सरल हैं, जितनी लौकी होती है. सामान्य और बगैर मसालों के मिलावट के.

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