Saturday, December 13, 2008

मुए, इधर ना आइयो, इधर जनाने हैं

चैनल छान रहा हूं... १४-१५ दिन हो गए चैनल वाले लगातार मुंबई हमले को बेच रहे हैं। मैंने प्रण किया था कि चाहे कुछ हो जाए मुंबई हमले पर लिख कर हमलावरों को फुटेज नहीं दूंगा। लेकिन प्रण गुस्ताख़ का था, टूट गया। अंदर से लग रहा है कि शिवराज पाटिल हो गया हूं।


शख्सियत के तौर पर शिवराज पाटिल होने का मतलब तो जानते हैं न आप? बहरहाल, सरकार के हुंकार पर एक कहानी याद आ रही है। पिछली सरकार का हुंकार और प्रण भी याद आ रहा है... आर या पार की लडाई का हुंकार...।

कहानी थोड़ी देर में बता देगे, काहे परेशान हो रहे हैं। पिछली सरकार ने हज़ारों करोड़ खर्च करके सेना को सरहद पर जमा कर दिया फिर हमला भी नहीं किया। संसद पर हमले के बाद की कहानी है।


हमारे सोच-समझ कर बोलने वाले पीएम को मुमकिन है नोबेल के शांति पुरस्कारों का मन रहा हो। नहीं मिला, मिलेगा भी नहीं।

इस बार देश के मुसलमान पता नहीं क्यों तत्काल प्रतिक्रिया दे रहें हैं। सलमान, शाहरुख, आमिर वहीदुद्दीन खान सबने हमले की निंदा की। अपनी फिल्मों का प्रचार भी कर डाला लगे हाथों। रब ने आने वाली थी शाहरुख ने बयान दिया। हमले की निंदा की। सीएएन-आईबीएन ग्रुप पर एक ही दिन में बैक-टू-बैक शाहरुख डेढ़ गंटा दिखे। आमिर की फिल्म भी रिलीज़ होने वाली है गज़नी। महाशय भी बयान दे रहे हैं। टीवी वाले फुटेज दे रहे हैं, फ्री फोकट में पब्लिसिटी मिल रही है। मौका क्यो गंवाया जाए भला?


गंभीर मसलों पर सलमान आम तौर पर बोलते नहीं। बोलते भी हैं तो कोई उन्हें गंभीरता से लेता नहीं। बहरहाल, वो भी बोले। हालांकि उनकी कोई फिल्म इधर आ नहीं रही है।


लोग डिजाइनर मोमबत्तियां लेकर सड़क पर उतर गए। फैशन डिजाइनर्स जिन्हे देश के प्रधानमंत्री का नाम भी पता नहीं, अपने पुरुष मित्रों के साए से निकल कर पुरुषत्व दिखाने निकले और हाथ में अपने किसी डिजाइनर दोस्त की डिजाइन की गई मोमबत्ती सॉरी कैडल लेकर सड़क पर उतर गए। क्या रस्म निभानी ज़रुरी थी। क्या सचमुच हम एक हो रहे हैं?


यह हम लोग मानने से क्यों हिचकते हैं कि हम भारत के लोग सत्य ही एक लुंजपुंज राष्ट्र हैं। संसद पर हमले करने वाला शख्स आज भी जिंदा है। कहीं सरकार कसाब को भी माफ करने के मूड में तो नहीं? कहीं मानविधाकर आयोग उसके लिए कुछ और सरंजाम तो नहीं जुटा रहा?


ये सवाल गुस्ताखी भरे हैं। लेकिन आपको तो कहानी का इंतजार होगा। चलिए कहानी बता दें। संदर्भ भी बता दें? चलिए बताए देते हैं- संदर्भ है आंतकी हमला और उसके बाद सुरक्षा को लेकर संकल्प। भारतेंदु के साहित्य से कहानी ली है, कहां से याद नही आ रहा।


फरवरी १७३९, दिल्ली पर नादिरशाह हमला करने वाला था। दिल्ली का बादशाह था। मुहम्मदशाह.. पूरा नाम मुहम्मद शाह रंगीला। हमले की खबर रंगीले को दी गई। पूरा दरबार चिंतित था। हमले को कैसे रोकें। बादशाहत हाथ से गई समझो। एक दरबारी बादशाह का मुंहलगा था। कहने लगा, हुजूरे-आला, ऐसा करते हैं कि यमुना के किनारे कनाते लगवा देते हैं। उन कनातो के भीतर हम सब चूडियां पहन कर बैठ रहें। जैसे ही अफ़गानी फौज़ आवे, हम चूडियां चमका करें सीधे औरतो की आवाज़ो में कहें, - मुए, इधर ना आइयो, इधर जनाने हैं।

6 comments:

विवेक said...

बहुत गुस्ताख हैं आप...गुस्ताखी पसंद आई...

sushant jha said...

हिला देल राजा...

ss said...

मुझे अभी तक समझ में नही आया ये लोग मोमबत्ती ही क्यूँ लेके चले आते हैं? शायद टाइम कम लगता होगा, वैसे भी भूख हड़ताल इत्यादि तो लफडे वाला काम है, कहीं पुलिस के डंडे खाने पड़े तो मीडिया शोर मचा देगा| आज मोमबत्ती जलाओ, कल होटल के गेट पर दरबान रोके तो गुर्राओ, ये जांच वी आई पी लोगों के लिए थोड़े ही होती है

राज भाटिय़ा said...

गुस्ताख भाई बहुत सटीक गुस्ताखी है आप की बिलकुल सच बोले है आप शायद सरकार भी यही कह.....
धन्यवाद

यती said...

ghustak aap ise sandharba mai narayan rane ko bhul gaye ???? (over all maharashtra politics )

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

अजी आतंकवाद तो हमारी नियति है। ये तो केवल भूमिका बन रही है, हम पर तो और बड़ी विपत्तियां आने वाली हैं।क्यूं कि 2020 तक महाशक्ति बनने का सपना देख रहे इस देश की हुकूमत चंद कायर और सत्तालोलुप नपुंसक कर रहे हैं।
हर शाख पे ऊल्लू बैठा है अन्जाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा.
बहरहाल आपने पोस्ट बहुत बढिया लिखी.