Sunday, July 26, 2009

लमही में


बहुत छोटा था जब मैंने गोदान पढ़ ली थी। उससे भी पहले छठी क्लास में हिंदी की पाठ्य पुस्तक में प्रेमचंद के बचपन का ज़िक्र था। तो मन में एक उत्कंठा थी कि आखिर प्रेमचंद का वह गांव, जहां का वर्णन वह इस तल्लीनता से करते हैं होगा कैसा?

बजट यात्रा के दौरान इस बात का मौका मिला कि लमही जाऊं। कबीर साहब के गांव से निकलते ही मैंने राजीव (ड्राइवर ) को कहा सीधे लमही चलने के लिए। राजमार्ग पर ही एक बड़ा से गेट बना है, मुंशी प्रेमचंद स्मारक गेट। उसके साथ ही दसफुटिया पक्की सड़क आपको लमही तक ले जाएगी।
गांव में घुसते ही पहले तो आपको एक बड़ा-सा बोर्ड नज़र आएगा। निर्मल ग्राम-लमही। यहां-वहां दीवारों पर नरेगा के नारे। उसी बोर्ड के पीछे दिखेगा एक साफ-सुथरा पेयजल का इंतजाम। हैंडपंप नहीं... टैपवाटर। पानी की टंकी और उससे लगे आठ नलकियां। यहीं उसके उलटे हाथत पर प्रेमचंद का पैतृक आवास है।

कुछेक साल पहले यह टूटी-फूटी हालत में था। लेकिन अभी ठीक-ठाक है। सफेद पुताई के साथ गरिमामय मौजूदगी। उससे ठीक पीछे है प्रेमचंद स्मृति भवन। ज़िला प्रशासन ने थोड़ा ध्यान तो दिया है। गोदान पढ़ें और आज के लमही को देखें, तो बड़ा अंतर है।

मुझे लगता है कि प्रेमचंद ने जब गोदान लिखा होगा तो लमही कहीं-न-कहीं उनके मन में साकार रहा होगा। ऐसे में मुझे लगा कि होरी, धनिया, गोबर और झुनिया से मिला जाए। स्वाति मुझसे सहमत नहीं थी। लेकिन उनकी असहमति की परवाह किए बगैर मैंने एक किसान खोज ही निकाला। चेहरे पर झुर्रियों वाले बुजुर्गवार से मिलते ही लगा यही तो होरी है। एक पैर में चोट लगी थी सो थोड़ा लंगड़ा कर चल रहे थे। एक नौजवान ने कंधे का सहारा दे रखा था।

हमसे मिलते ही कहने लगे दरवाजे पर चलो, तो खटिए पर बैट कर बातें करें। हमारे होरी के घर पर तीन गाएं बंधी थी , दो भैसे भी थी। उन्होंने बताया कि घर पर टीवी भी है, और डीटीएच भी। हां, ये सारा कुछ महज किसानी से नहीं आया। राजमार्ग के बगल वाली ज़मीन उनने निकाल दी (यानी बेच दी) और खेती तो है ही। दूध से भी कमाई हो जाती है। दूध बनारस चला जाता है। खाने-पहनने की कमी नहीं। हमारी बातचीत के दौरान उनकी घरवाली (हमरे हिसाब से धनिया) चटख रंग की सा़ड़ी को कोर मुंह में दबाए मुस्कुराती रही।

झुनिया की हालत में भी सुधार आया है। और होरी के गांव में झुनिया सिलाई-कढाई का स्कूल चलाती है। गोबर अब गोवर्धन बन गया है। लखनऊ जाने की ज़रुरत नहीं। बदलते वक्त और बाजार ने गोबर के लिए मौके भी दिए है, और सम्मान भी। गांव के नौजवान के पास मोबाइल पोन और उसका बेझिझक इस्तेमाल.. मुझे फील गुड हो रहा था। (हालांकि आगे की यात्रा में यह एहसास कायम नहीं रह पाया।)

पूरे गांव की सड़के साफ-सुथरी थी। नरेगा के ज़रिए ठीक काम हो रहा था। नालियां भी साफ थी। एक आम भारतीय गांव से थोड़ा अलग लगा लमही। कम से कम पहली नज़र में ..। गांव में कई भारत मार्का हैंडपंप लगे थे। खेत में फसल भी थी ठीक ही थी। शायद मूंग थी।

लेकिन लमही का हमारा तजुर्बा पूरे भारत की बदलती तस्वीर बयां नहीं करता। बाकी के भारत में होरी अभी भी मर ही रहा है। किस्से भले ही बाहर नहीं आ पाते..। फिर भी लमही जाकर एक अलग किस्म का अनुभव हुआ, जो कबीर साहब के गांव से थोड़ा अलग था। अलहदा था...

आगे हम निकले तो ग़ाजीपुर आज़मगढ़ होते हुए गोरखपुर पहुंचे। उसका भी अलग अनुभव था। अगली पोस्ट में...

4 comments:

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

अगली सुनाइए।
अगोर रहे हैं।

सतीश पंचम said...

इंतजार है, अगली पोस्टवा का।

समयचक्र said...

बढ़िया यात्रा संस्मरण आगे की प्रतीक्षा में.....

मुकेश कुमार तिवारी said...

वाह!!!

जी खूब सैर कराई उस पावन भूमि की। और आज के सन्दर्भों में गोदान को समझना बहुत ही रोचक और अनूठा प्रयोग रहा।

गोरखपुर का हाल जल्दी ही लिखियेगा।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी