Friday, September 17, 2010

हिंदी की चिंदी

हिंदी दिवस गुजर गया, हिंदी पखवाड़ा भी बस चला ही गया समझ लो। पर साल पितृपक्ष की तरह यह पखवाड़ा भी थोड़े मन से और ज्यादा अनमने ढंग से निभा ले जाते हैं हम। तर्पण कर देते हैं हाथो में कुश लेकर..। हम जिस हिंदी की खा रहे उसके भी नही हुए हैं।

हिंदी के सरेबाजार खड़ी कर दिया है। बहसे जारी हैं। कानों में आई-पॉड के कनटोप ठूंसे युवापीढी कहती है कि आप लोग बहुत शुद्ध हिंदी लिखते-बोलते हो।

कोई बताए यह शुद्ध हिंदी क्या बला है..।

क्या किसी ने शुद्ध अंग्रेजी की  शिकायत की है। ऐसे में एक समारोह में अगर राजदीप कह देते हैं कि हिंदी के लोगो में आत्मविश्वास इतना कम क्यो है तो इसका जवाब ढूंढना मुश्किल हो जाता है।

हिंदी की शुरुआत ही एक खिचड़ी भाषा के तौर पर हुई थी। इसमें सभी भाषाओं तक के शब्द हैं, उर्दू-फारसी संस्कृत, देशी भाषाएं...यहां तक कि पुर्तगाली के भी। तो आज मुश्किल क्या है।

मुश्किल यह है कि हिंदी की मौजूदा स्वरुप बदलता जा रहा है। बहस यह है कि उसे कितना बदलना चाहिए। क्या हम उस बदलाव को रोक पाने में सक्षम हैं? और यह भी क्या किसी भाषा के स्वरुप को बदलने से रोकना क्या ठीक है...?

सबसे पहली बात तो यह कि भाषा की रवानगी तभी बरकरार रह पाती है, जब वह वक्त के साथ बदलती रहे। आज से दस साल पहले की हिंदी और आज की हिंदी में जबरदस्त शाब्दिक बदलाव आ गए हैं। कई जगह यह भाषाई बदलाव स्वागतयोग्य है तो कई जगह खटकता भी है।

मॉरीशस में जो भाषा बोली जाती है वह है क्रेयोल। वहां फ्रांसिसी शासको की भाषा और कुलियों की भोजपुरी ने मिलकर नई भाषा ही तैयार कर दी थी। मसलनः लताब पर कितबिया रख द। यानी  मेज पर किताब रख दो। लताब फ्रेंच है, बाकी भोजपुरी है। क्रेयोल में हिंदुस्तानी कुलियों ने महज संज्ञा ही शासकों से ली बाकी की विभक्तियां वगैरह भोजपुरी और दूसरी हिंदुस्तानी भाषाओं की ही रहने दीं।

हिंदी में यही नही हो पा रही। जब तक हम हिंदी में दूसरी भाषाओं से संज्ञा, यानी नाम और विशेषण लेते रहेंगे, हिंदी बची रहेगी। वरना हिंदी को हिंगलिश हो जाने से कोई नही बचा सकता।

हिंदी के लिए एक अच्छा तरीका जो जन संचार के स्कूलों में पढाया जाता है वह ये हो सकता है कि हिंदी को आसान बनाया जाए। ताकि वह ज्यादा से ज्यादा लोगों की समझ में आ सके। हिंदी फिल्मों का मॉडल इसका बेहतरीन उदाहरण है जहां हिंदी फिल्मों के संवाद समझने में देश के किसी हिस्से के दर्शक को कोई परेशानी पेश नही आती।

दोयम यह कि हिंदी को उसकी क्षेत्रीयता के साथ पनपने दिया जाए। मानकीकरण के चक्कर में खड़ी बोली वाले लोग बिहार के, उत्तराखंड के और बंगाल के लोगों को हेय दृष्टि से देखते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से भले ही  मानक हिंदी भले ही दिल्ली के आसपास बोली जाने वाली खड़ी बोली को मान लिया गया हो, लेकिन हिंदी की जान और दिल बिहार-उत्तर प्रदेश-मध्य प्रदेश-राजस्थान में ही है।

तो नेरा खयाल है कि हिंदी को उडिया के शब्दो, तमिल के शब्दों, तेलुगू, मराठी..बंगला के साथ खिचड़ी पकाने दीजिए। इन इलाके के लोगो को हिंदी इनके ही लहजे में बोलने दीजिए..। देशी क्रेयोलाइजेशन हो तो अति-उत्तम है..लेकिन उस सावधानी के साथ हो जिसका जिक्र मैंने किया।

अगर हिंदी को सम्मान नही मिल रहा तो इसकी एक वजह ज्ञानसंबंधी साहित्य में हिंदी की विपन्नता भी है। सृजनधर्मी साहित्य और रचनाएं चाहे हम जितनी लिख लें, लेकिन ज्ञान संबंधी किताबों के मामले में हम गरीब हैं। हिंदी के उपन्यासों का दूसरी विदेशी भाषाओं मे अनुवाद हो जाता है , लेकिन हिंदी विचारको की किताबों का नही। क्यों कि कही न कही विदेशी हमारे बौद्धिकों को बौद्धिक ही नही मानते।

वह मानते हैं कि रचनाशीलता हममें, यानी भारतीयो में चाहे जितनी हो, वैज्ञानिकता और बौद्धिकता की खासी कमी है। यही वजह है कि हमारे वैचारिक ग्रंथों का दूसरी विदेशी भाषाओं में अनुवाद होता ही नही, या होता हो तो बेहद कम।

हिदीवालों की आत्मदया का एक कारण यह भी है।

फिर भी, पखवाडा़ मना लिया गया, तर्पण भी हो गया। एक दिन श्राद्ध भी हो जाएगा...। सो बाजार में खड़ी हिंदी ने कुछ पेशेवर अंदाज की वजह से सम्मान तो हासिल किया है, यह सम्मान उसे पूंजी ने दिलाया है। लेकिन उसे
बाजारु होने से बचाने की जिम्मेदारी भी है, किसकी है कौन जाने..।

1 comment:

vidhi mehta said...

Nice post.
Of course hindi is our national language,and we should know it properly.And also try to speak correctly.That's why we can make it our national language in real sense.