Sunday, October 17, 2010

रे रे मेघनाद..बचपन की दुर्गापूजा

...लक्ष्मण ने मेघनाद से गुर्रा कर कहा, रे रे मेघनाद..तुज्झे तो मौत आण परी है...गेरुए कपड़े में लिपटे लक्ष्मण को ऐसे चीखते देख मेघनाद को किसी ने मंच के कोने से एक तीर पकड़ा दिया। बाण के फलक पर एक फुलझड़ी जल रही थी। ...ये ले दुष्ट सौमित्र..कहते हुए फुलझड़ी वाला बाण मेघनाद ने लक्ष्मण की ओर छोड़ दिया। प्रत्यंचा ढीली होते ही, बाण जमीन चाट गया, लेकिन यह मान लिया गया कि शक्ति लक्ष्मण को लग चुकी है। मंच के कोने से एक शर्ट-पैंट पहने आयोजक आकर जलती फुलझडी उठा ले गया। मंच पर वानर के भेष में सजे बच्चों में हाहाकार मचा, अपनी पूंछ की फिक्र करते हनुमान ने लक्ष्मण को उठा लिया ओर यवनिका पतन हुआ।....यह सीन है अभी नवमी की रात को मंचित हो रहे राम लीला का।

जगह- वैशाली, गाजियाबाद

सामने लोगों की भीड़ थी। बगल के पंडाल में माता के जागरण का आयोजन हो रहा था। लेकिन इन्ही दृश्यों के साथ मेरे मन में मूर्तिमान हो उठे, मेरे बचपन के दिन।

मेरा मधुपुर...। मेरा मधुपुर, बंगाल से बहुत सटा है, और कभी बिहार का हिस्सा था आजकल झारखंड का है। लेकिन बिहार का भाग होते हुए भी मधुपुर की तहजीब पर बंगाल का असर ज्यादा था। हमारे यहां दुर्गापूजा की बहुत धूम हुआ करती थी।

षष्ठी से ही समां बंधने लगता था। दुर्गापूजा के लिए हम सभी, मेरे भाई बहन और मेरे मुहल्ले के दोस्त सभी, गुल्लक में पैसे इकट्टे करते थे। साल भर। हालांकि साल भर जमा करने का धैर्य मुझमें था नहीं, लेकिन काफी रोने -पीटने के बाद भैया और मां मुझे इतने तो दे ही देते थे कि मेला घूमने का खर्च निकल ही आता था। वो भी किंग साइज..।

हमारे घर से थोड़ी ही दूरी पर है एडवर्ड जॉर्ज हाई स्कूल । सुना है इसका नाम बदल दिया गया है, क्यों कि यह जॉर्ज पंचम के वक्त में खोला गया था और उन्ही के नाम पर था। बहरहाल, इसका अहाता काफी बड़ा था। तो तरुण समिति नाम की बंगालियों की संस्था चंदा वसूल कर इस पूजा का आयोजन करती थी।

हालांकि, पूजा पूरे मधुपुर में अब भी कई हुआ करते हैं , लेकिन मेले की जो धूम तरुण समिति वाले पूजा  में होती थी, वह किसी और पूजा समिति को नसीब नहीं।

वैसे वो मेला भी क्या था..उन दिनों जब कोक और पेप्सी पीने का चलन क़स्बे में उतना आम नही हुआ था, हमारे लिए मेले में कोक और पेप्सी, सेवेन-अप, स्प्राइट, सिट्रा, थम्ज-अप वगैरह पीने का अजेंडा सबसे ऊपर होता था। मैं शुरु से साइनस का मरीज रहा, तो घर में खूब धमाके से पीटा भी जाता, आइसक्रीम खाने और फिर ठंडा पीने की वजह से। लेकिन ..सुधर गए तो कैसे गुस्ताख़..।

मेले में खिलौने की दुकानों की खूब बहार हुआ करती। हमारे सबसे लोकप्रिय खिलौने थे, डुगडुगी। इसके दो प्रकार थे। पहले में मिट्टी की चकरी पर एक झिल्ली लगी होती और बांस की करची घुनाने पर तिगिर-तिरिग की आवाज निकलती। पूरे मेले में हम इस खिलौने से गंध मचाए रखते। अकेले हमीं क्यों..हमारे सारे दोस्त हमीं जैसे थे। दूसरा वाली खिलौना बेसिकली यही था लेकिन वह गाड़ी की शक्ल में था, बाकी चलने पर उससे भी ऐसी ही आवाज निकलती।

फोटोः मंजीत ठाकुर

 एक खिलौना था, जो बांस की खपच्ची और ताड़ के पत्ते से बनाया जाता। बांस की खपच्ची पर जोर दो, जो ताड़ के पत्ते से बने इंसान का पोश्चर बदल जाता। नाचने की मुद्रा में...माया ऐसे ही नचाती है इंसान को। माया महाठगिनी हम जानी..।

बाद में जाकर पिस्तौल हमारे लिए बहुत लोकप्रिय खिलौना साबित हुआ। हमारी सारी बचत इस खिलौने के लिए रील वाली गोली खरीदने में उड़ जाती।

एक और आकर्षण था, गोलगप्पों का। गोल गप्पे देश के बाकी हिस्सों में तो पानी बताशे, पानी पूरी वगैरह कहे जाते हैं , लेकिन बांगला में कहे जाते हैं फुचकाच और गुपचुप। फचका नाम के पीछे का इतिहास तो पता नही, लेकिन गुपचुप नाम इसलिए पड़ा होगा क्यों कि यह पूरे मुंह के साइज का होता है। मसालेदार पानी से भरा फुच्का लोग गुप्प से मुंह में लेते हैं और फिर चुप हो जाते हैं..संभवतः  इसी लिए गुपचुप नाम है।



फोटोः मंजीत ठाकुर
विजयदशमी को हमारे यहां ग्रामीण, जनजातियों की भीड़ उमड़ पड़ती है। संताल लोग।  तीर-धनुष लेकर आते तो देखा है लेकिन बेवजह किसी पर चलाते नहीं देखा। वह भी आकर गुपचुप ही ज्यादा खाते।

हम लड़को में तो गुपचुप खाने का क्रेज उतना नहीं था, क्योंकि खट्टा हमें और हमारे दोस्तों को पसंद आता नही था। लेकिन गुपचुप दुकानों के आसपास लड़कियों की भीड़ रहती थी, तो अपनी माशूका से मिलने, उसे छू लेने, या उसके साथ दो बातें कर लेने के लिए गुपचुप दुकानें सर्वोत्तम थीं। क्यों कि यही वो जगह थी जहां परिवार उन्हें सहेलियों के साथ छोड़ देता था।

दोपहर में होता खिचड़ी का भोग। खिचड़ी का भोग मुझे आज भी याद है। सखु ए के पत्ते के दोने में दिया जाता। एक कोने में पायस पड़ी होता, बस उतना ही जितना सुहागन औरते सिंदूर का टीका लगाती हैं। कोंहड़े की सब्जी, आमतौर पर जिसे घर पर खाते वक्त उबकाई आ जाती थी, वही सब्जी प्रसाद के रुप में मिलती तो स्वर्गीय सा लगता। इसका रहस्य आजतक समझ नही पाया हूं।

लगता है कि एक बार फिर बचपन के दिनों में लौट जाऊं, गले खराब होने के डर से कोसों दूर, खूब आइसक्रीम खाऊं, बॉस छुट्टी नही देगा, टिकट वेटिंग है, सेलरी में इनक्रीमेंट नही हुआ है, मुद्रास्फीति बढ़ गई है, टमाटर 40 और गोभी 30 रुपये किलों के तनाव से मुक्त हो जाऊं।

एक बार फिर गुल्लक के पैसों से बलून खरीदने को मन मचल रहा है। मेरा समवयस्क भतीजा मेरे साथ है, बलून खरीदने पर मजाक बना देगा। यहां वैशाली में भी -गुपचुप- बिक रहा है, लेकिन कहता है अंकल मत खाओ एसिडिटी हो जाएगी। शीशे के बड़े -बड़े जारो में भरे गुपचुप मधुपुर में हैं..मुझे बुला रहे हैं।

3 comments:

मनोज कुमार said...

विजयादशमी के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!

Parijat Kaul said...

अबे सिकुड़े हुए गोलगप्पे,
मकान मिल गया तो चौड़ा हो रहा है.
अभी सुन!
पड़ोसी कौन है, उससे कैसे डील करना है, लीफ मे बहुत इम्पोर्तेर्न्त होने वाला है. तो ज़रा संभल कर, इतना आसान (सरल) नहीं है जीवन.
अभी गुस्ताखी करने का है तो वर्चुअल रहना. एक्चुअल मे बज जायेगी, मारपीट भी हो सकती है.

Parijat Kaul said...

अच्छा,
बाई द वे, विजयदशमी की शुभकामनाएं और आने वाले बचे हुए वर्ष के लिए भी.