एफ एम रेडियो से तब से बावस्ता हूं, बतौर एक श्रोता...जब से एफएम शुरु हुए। रेडियो जॉकीज़ की चीख-चिल्लाहट...उनकी उल्टी-पुल्टी खुराफातों और लफ्फाजियों...बकवास और बेसिर-पैर की बातों की आदत हो गई धीरे-धीरे।
सिंधी घोड़ीवालों से लेकर बेहूदा किस्म के विज्ञापनों के बीच...रेडियों ज़ॉकीज़ की बातों को झेलना आदत बनी..तो गानों के लिए लंबा इंतजार करना...पारंपरिक अनुष्ठान बन गया। गाने भी ऐसे थे जो सुन तो लें लेकिन गुनगुनाने के लिए बिलकुल मुफीद नहीं।
एफएम गोल्ड और रेनबो अपवाद था। लेकिन इसके जॉकी उपदेशक की मुद्रा अपनाए रहते। गानों और कथ्य का कोई तालमेल नहीं...बात कर रहे हों दार्जिलिंग के पर्यटन और आबोहवा की..गाना बिग ट्विस्ट। लफ्फाजियां..जोर-जोर से बकवास, फूहड़ किस्म के चुटकुले.. रात हो जाए तो शेरो-शायरी..फुसफुसाकर बातें करना...आधुनिक रेडियों ज़ॉकिइँग इसी के इर्द गिर्द घूमती नजर आती रही।
फिर कल, एक बेहद साधारण-सी शाम को एक रेडियों कार्यक्रम ने बेहद खास तजुरबेवाला बना दिया।
नीलेश कल शाम को नौ बजे बिग एफ एम पर किस्सा सुना रहे थे। किस्सा एक आलमारी से जुडी थी, तीन पुश्तों वाली आलमारी...।
कहानी से जुड़े गाने आप ही आप सिलसिलेवार ढंग से आते गए..। जगजीत सिंह से लेकर कैलाश खेर तक...और भूपिंदर की पुरकशिश आवाज से आशा तक....मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है...नीलेश की कहानी को आगे बढाते गए..उनके मूड के लिहाज से शानदार गानों का खूबसूरत चयन। नीलेश की किस्सागोई का तरीका सबसे अलहदा है..। नीलेश मिसरा को सुनकर महसूस होता है कि दरअसल अब तक हमारे यहां कायदे के रेडियो जॉकी हुए ही नहीं।
पत्रकारिता और लेखन में अपनी छाप छोड़ने के बाद नीलेश ने रेडियों जॉकिइंग में भी नई ज़मीन फोड़ी है। कुछ परिभाषाएं बदलनी शुरु होंगी अब। मेरे दोस्त विकास सारथी भी नीलेश के प्रशंसकों में से एक हैं। पूछने पर बताते हैं, कि नीलेश रेडियो के सबसे बेहतरीन और सेंसिबल बन कर सामने आए हैं।
मैं रोजाना इसके श्रोताओं में शामिल हो रहा हूं, इस कार्यक्रम की तारीफ में मेरे पास शब्द नही है। उम्मीद यही कि यह ऐसा ही बना रहे..।
सिंधी घोड़ीवालों से लेकर बेहूदा किस्म के विज्ञापनों के बीच...रेडियों ज़ॉकीज़ की बातों को झेलना आदत बनी..तो गानों के लिए लंबा इंतजार करना...पारंपरिक अनुष्ठान बन गया। गाने भी ऐसे थे जो सुन तो लें लेकिन गुनगुनाने के लिए बिलकुल मुफीद नहीं।
एफएम गोल्ड और रेनबो अपवाद था। लेकिन इसके जॉकी उपदेशक की मुद्रा अपनाए रहते। गानों और कथ्य का कोई तालमेल नहीं...बात कर रहे हों दार्जिलिंग के पर्यटन और आबोहवा की..गाना बिग ट्विस्ट। लफ्फाजियां..जोर-जोर से बकवास, फूहड़ किस्म के चुटकुले.. रात हो जाए तो शेरो-शायरी..फुसफुसाकर बातें करना...आधुनिक रेडियों ज़ॉकिइँग इसी के इर्द गिर्द घूमती नजर आती रही।
फिर कल, एक बेहद साधारण-सी शाम को एक रेडियों कार्यक्रम ने बेहद खास तजुरबेवाला बना दिया।
नीलेश कल शाम को नौ बजे बिग एफ एम पर किस्सा सुना रहे थे। किस्सा एक आलमारी से जुडी थी, तीन पुश्तों वाली आलमारी...।
कहानी से जुड़े गाने आप ही आप सिलसिलेवार ढंग से आते गए..। जगजीत सिंह से लेकर कैलाश खेर तक...और भूपिंदर की पुरकशिश आवाज से आशा तक....मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है...नीलेश की कहानी को आगे बढाते गए..उनके मूड के लिहाज से शानदार गानों का खूबसूरत चयन। नीलेश की किस्सागोई का तरीका सबसे अलहदा है..। नीलेश मिसरा को सुनकर महसूस होता है कि दरअसल अब तक हमारे यहां कायदे के रेडियो जॉकी हुए ही नहीं।
पत्रकारिता और लेखन में अपनी छाप छोड़ने के बाद नीलेश ने रेडियों जॉकिइंग में भी नई ज़मीन फोड़ी है। कुछ परिभाषाएं बदलनी शुरु होंगी अब। मेरे दोस्त विकास सारथी भी नीलेश के प्रशंसकों में से एक हैं। पूछने पर बताते हैं, कि नीलेश रेडियो के सबसे बेहतरीन और सेंसिबल बन कर सामने आए हैं।
मैं रोजाना इसके श्रोताओं में शामिल हो रहा हूं, इस कार्यक्रम की तारीफ में मेरे पास शब्द नही है। उम्मीद यही कि यह ऐसा ही बना रहे..।
5 comments:
aapki gustakhi acchi yaadon mein le gayi. dhanyawaad
शब्दों में शायद कहना मुश्किल है. नीलेश को सुनना ही उनकी प्रशंसा है.
सादर | नीरज भूषण
hum....time batayo...tab tune karke sunne ki koshish karte hai.....
डॉक्टर साब सॉरी वक्त शायद हौले से कही बताया जरुर है..रोज रात नौ से दस ाता है। रविवार को तीन से सात सुनिए..और गुनिए
बातें तो आप ने अच्छी कही...वाकई याद शहर का लुत्फ उठाना अच्छा लगता है...
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