Thursday, March 10, 2011

सिनेमा-राजा रविवर्मा का असर

राजा रवि वर्मा भारतीय चित्रकला के इतिहास में एक खास स्थान रखते हैं। भारतीय चित्रकला के सौंदर्यबोध को उन्होंने एक जीवंत छवि दी। बेशक उनपर यूरोपीय खासकर रोमन शैली का प्रभाव था। लेकिन इससे भारतीय चित्रकला को नए आयाम मिले।


कई जानकार मानते हैं कि राजा रवि वर्मा का योगदान इससे कहीं बढ़कर रहा और कला के क्षेत्र में इसने राष्ट्रीयता की भावना को बढावा दिया। राजा रवि वर्मा पहले भारतीय चित्रकार थे, जिन्होंने पश्चिमी शैली के रंग-रोगन-सामग्रियों और तकनीक का प्रयोग भारतीय विषयवस्तुओं पर किया।  तकनीक का यह फ़्यूज़न कला के क्षेत्र में आधुनिकता और राष्ट्रीयता के विकास के सहायक सिद्ध हुआ।
        छाया-प्रकाश का अद्भुत मेलः चित्र राजा रवि वर्मा 
 
रवि वर्मा ने भारतीय मिथकों के चित्रों में पश्चिमी प्रकाश-छाया तकनीक और पर्सपेक्टिव का इस्तेमाल किया।


राजा  रवि वर्मा पर तंजाउर की कला शैली का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। साथ ही उन्नसीवी सदी की यूरोपीय कला के नव-शास्त्रीय यथार्थवादी चित्रकला का असर भी उन पर था, जिनमें ऐतिहासिक विषयों की चित्रकारी की जाती थी। जाहिर है, यह यथार्थवादी असर रवि वर्मा की चित्रकला पर भी पड़ा। 

यथार्थवाद का यह आयात देश में अनोखा था, क्योंकि उस वक्त तक ऐसी कोई यथार्थवादी कला धारा मौजूद नहीं थी। जाहिर है, रवि वर्मा के चित्रों की कामयाबी ने हिंदू देवी-देवताओं की ऐसी छवियां पेश करनी शुरु की, जैसी पहले कभी नहीं की गई थीँ। देवताओं की यह छवियां चित्रीय रुप में पहले से दैवीय और शारीरिक गुणों को प्रदर्शित करने वाली थीं। रिकन्स्ट्रक्शन और महिमामंडन करनेवाले इन चित्रों ने शिक्षित कुलीनों का ध्यान आकर्षित किया, और रवि वर्मा की कला को नई चित्रकला और भारतीय संवेदऩाओं की चित्रकला माना गया। जाहिर है, इसके इन्हीं गुणों ने रवि वर्मा की चित्रकला को राष्ट्रीयता के गुण भी दिए। 

उनके चित्रों की मांग इतनी ज्यादा थी कि रवि वर्मा ने बॉम्बे के पास 1892 में एक प्रिंटिंग प्रेस स्थापित किया, जो उनके चित्रों को ओलियोग्राफ के रुप में छापता था। ये कैलेंडरनुमा चित्र बहुत लोकप्रिय हुए और रवि वर्मा के चित्रों को पूना चित्रशाला प्रेस और कलकत्ता आर्ट स्टूडियो ने भी बड़े पैमाने पर छापा।

इन प्रिंट्स(कैलेंडरों) को अगर शुरुआती फिल्मो से मिलाएं तो साफ हो जाता है कि शुरुआती मिथकीय. फिल्मों के पोस्टर इसी शैली में चित्रित  किए गए हैं। 1927 में बाबूराव पेंटर के निर्देशन में बनी फिल्म सती सावित्री के पोस्टर से यह बात साबित भी होती है।

हालांकि पोस्टर बनाने वाले कलाकारों का काम रवि वर्मा के सधे हाथों के मुकाबले करीब-करीब बेडौल लगता था, लेकिन ये पोस्टर रवि वर्मा के प्रकाशित सस्ते कैलेंडरों की ठेठ नकल थे। जिस कलात्मकता और राष्ट्रीयता की झलक हम वर्मा के चित्रों में पाते हैं, सिनेमाई रुप में वह फाल्के की फिल्मों में प्रतिध्वनित होता दिखता है। फाल्के ने भी हिंदू देवताओं को पट पर उतारा और उनका चित्रण भी तकरीबन वैसा ही किया जो वर्मा की शैली थी। अब यह भी संयोग ही है कि फिल्मकार बनने से पहले और अपना खुद  का कामयाब प्रिंटिंग प्रेस खोलने से पहले फाल्के 1905 तक रवि वर्मा के प्रैस में ही काम करते थे।


अगला हिस्साः रवि वर्मा का असर..


1 comment:

अंतर्मन said...

आधुनिक चित्रकारी के असली राजा के बारे आपकी जानकारी और आपका पक्ष अच्छा लगा, गुरुदेव आपने जो फ्युजेन की बात कही है वोह बहुत सही लगी, उनसे पहले कोई भी भारतीय चित्रकार शायद ऐसा नहीं करता था। लगे रहिये गुरुदेव...........