Friday, June 8, 2012

सुनो ! मृगांका:11: परछाईं

हराही, ओ हराही

जी महाराज
तुम कुछ बताने वाली थी

"हे राजन्, कलियुग के पहले द्वापरकाल में महाभारत का भीषण युद्ध हुआ था, यह तो आपको मालूम ही होगा। कौरवों और पांडवों की अठारह अक्षौहिणी सेना मैदान में एक दूसरे की मुंडी काट लेने को उतारू थीं। भाई, भाई के लहू का प्यासा बना घूम रहा था।

अर्जुन के बेहद वीर बेटे अभिमन्यु को कौरवों के दल ने तब मौत के घाट उतार दिया था, जब वह चक्रव्यूह से निकलने के प्रयास में लगा था। धर्म-अधर्म क्या था, युद्ध के मैदान में किसी को याद न रहा। मेरे विचार से तो युद्ध करना ही धर्म नहीं, युद्ध में हत्या करना तो और भी भयंकर हैं। लेकिन ये हत्याएं अगर हमारे जीवन के लिए ज़रूरी हों तो करनी पड़ जाती हैं, क्योंकि जीवन के रण में यह तथ्य़ बड़ी महत्वपूर्ण है कि अगर आपने अपने दुश्मन को नहीं मारा तो वह आपको मार देगा। वरना, पेट के लिए अगर मैं नदी-पोखरे-डबरे से मछलियां-घोंघे और केकड़े पकड़कर बेचती हूं तो यह भी हत्या ही है, लेकिन इस धरती पर वही जीवित रह सकता है जो सबसे योग्य है। जो जिंदगी की लड़ाई लड़ सकने के काबिल हो..."

पूरा दरबार एक अपढ़ मलाहिन के बोल सुन रहा था। राजपुरोहित उसकी ज्ञान भरी बातें सुनकर दंग थे, महाराज उत्साहित।

"... भारतवर्ष के लाखों-करोड़ो वीर कुरुक्षेत्र को रक्तरंजित कर आर्यावर्त्त की भूमि को पुरुषहीन कर देने वाले थे। उत्कट वीरपुत्र अभिमन्यु की धोखे से की गई हत्या ने वीर सव्यसाची को भी विचलित कर दिया था। राजन्..आपको ज्ञात ही होगा कि इसके बाद अर्जुन ने जयद्रथ का वध करने का वचन उठा रखा था। उनकी क़सम थी कि अगर वह अगले दिन सूर्यास्त तक जयद्रध का वध नहीं कर पाए तो आत्मदाह कर लेंगे।

उस दिन जब जयद्रध को कौरवों ने छिपा रखा था और दिनभर युद्धभूमि में उसे खोजकर मार डालने के अपने प्रण को पूरा करने के लिए अर्जुन व्यग्र थे, वक्त बीतने का पता ही नहीं चला। शाम घिर आई.. अंधेरा होने लगा। सूर्य पता नहीं किधर लुप्त हो गए।

अन्यमनस्क होकर कृष्ण ने दिन के युद्ध खत्म होने का संकेतक अपना पांचजन्य फूंक दिया... इस शंख की आवाज़ ने पांडवों के खेमे में पीड़ा की लहर फैला दी और कौरव तो ऐसे प्रसन्न हो गए मानो पूरा महाभारत जीत लिया हो..."

"... राजन्। द्वापर में हो रहे उस युद्ध के समय मेरा जन्म चील योनि में हुआ था... मैं भी सूदूर कहीं से उड़कर अच्छे भोजन की तलाश में कुरुक्षेत्र तक चली गई थी। दिन भर की उड़ान से मेरा शरीर टूट रहा था। भोजन और पानी के बगैर मेरा बुरा हाल था..मैं वृक्ष की एक शाखा पर बैठी इस बात का इंतजार कर रही थी कि आज के युद्ध की समाप्ति के बाद सैनिक अपने खेमों में वापस लौटें तो मैं हृष्ट-पुष्ट सैनिकों के शवों को नोचकर अपनी भूख मिटाऊं।

...एक बेहद सुदर्शन युवक..रक्तरंजित होकर धराशायी था..उसकी आंखें मुंदी नहीं थी... आंखों पर हाथ फेरकर उन्हे बंद करने वाला था कौन वहां .. वे आंखों बड़ी खूबसूरत थीं।

दिल्ली, समाचार चैनल का स्टूडियो, शाम साढे 8 बजे

मृगांका, विजुअल देखती भी जा रही थी। अभी वीओ-वीटी चल रहा था। एक नौजवान की मौत हो गई थी, आंखें खुली ही थीं, शरीर के ऊपरी हिस्से पर खरोंच तक न थी। शव स्ट्रेचर पर डालकर एंबुलेंस में लादते वक्त के विजुअल्स थे...वे आंखें बहुत खूबसूरत थीं।

ब्लास्ट के बाद से वह लगातार एंकरिंग किए जा रही थी। राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएँ, रिपोर्टरों से लाइव चैट...विशेषज्ञों से बातचीत। ब्लास्ट का ठीकरा हमेशा की तरह इंडियन मुजाहिदीन पर फोड़ा गया, मृगांका ने मुंह बनाते हुए पढ़ी थी खबर। फिर ब्रेकिंग आई अमोनियम नाइट्रेट का इस्तेमाल। मृगांका ने फिर मुंह बनाया, इतनी जल्दी फोरेंसिक जांच भी हो गई? प्रोड्यूसर भी खुश था और मुख्य संपादक तो खैर थे ही। लेकिन मृगांका होठों से लाइव बैठी थी स्टूडियो में। मन कहीं और था।

उसका मन उड़ रहा था कहीं। कहां होगा अभिजीत, कैसा होगा। कहीं ब्लास्ट में...?? नहीं, नहीं ऐसा नहीं हो सकता। जब से वो टीवी पर एंकरिंग करने लगी थी, उसके मन में यह उम्मीद जरूर थी...कही अभिजीत देख लेता उसे। उफ़्।

मिलने के सारे रास्ते अभिजीत ने बंद किए। आज भी वह रोज एक बार उसके मोबाइल पर फोन लगाना नहीं भूलती। आज भी हर रोज़ उसे एक मेल जरूर करती है। फेसबुक पर अभिजीत ने अपना अकांउट डि-एक्टिवेट कर लिया है। मोबाइल नंबर हमेशा की तरह बंद मिलता है। मेल का कोई जवाब आता नहीं। कहां है अभि...काश..एक बार तो मिल जाओ।

इयरपीस पर प्रोड्यूसर का कमांड सुनाई दिया। मृगांका, पीएम का बयान आ रहा है...मृगांका ने सामने लिखा पढ़ दिया। क्या था कहां था, कुछ खबर नहीं। उसके दिल में बस अभिजीत ही अभिजीत था। कहते हैं न्यू यॉर्क में लोग सब भूल जाते हैं। वहां भी हर जगह मृगांका को अभि ही याद आता रहा। उसका मन था कि एक बार अपनी इन्हीं आंखों से अभिजीत को देखे, करीब से, सीने से लगाकर अभिजीत को बताए कि कितना तड़पी है वो...

पुनः अतीत, साढे चार सौ साल पहले, दरभंगा महाराज के राजमहल में, बकौल हराही

राजन्..। मेरा मन था कि वे आंखे मैं अपने बच्चों को भेंट करुं....। साधारण सैनिकों के शव उठाते-उठाते रात हो आती थी और ऐसे मौकों पर हम जैसे छिपे हुए चील-गिद्ध और सियारों को शव नोचने का अवसर मिल जाता था। मैं भी ताक में थी कि ऐसा कुछ होते ही आंखें नोंच भागूं..."

"...एक साधारण सैनिक और राजपुत्र के बीच का अंतर उस वक्त भी था जब अठारह अक्षौहिणी सेना दो व्यक्तियों की अहं की टकराहट और लालच की तुष्टि के लिए लड़ रही थी। वह आपस में बगैर किसी दुश्मनी के यूं ही लड़ रहे थे और इस लड़ाई से पहले दोनों ने एक दूसरे को देखा तक न था.. यह लड़ाई कृष्ण जैसे चतुर और कुटिल राजनेता की भू-राजनीति का परिणाम थी।

एक परिवार की उत्तराधिकार की लड़ाई में न जाने कितने परिवार बर्बाद हो गए। लोग तीर-कमानों, तलवारों, भालों, परशुओं, परिघाओँ और गदाओं समेत हर तरह के अस्त्र-शस्त्रों से लड़ रहे थे। अस्त्र-शस्त्र ख़त्म हो जाते, तो वे मुक्कों से लड़ रहे थे.. मल्लयुद्ध करते..इनसे भी मन नही भरता तो नखों और दांतो से किटकिटा कर लड़ लेते।

युद्ध मानवों की आदिम हवस और पहचान है राजन्..!"

"पता नहीं दोष किसको देगा युग.. कृष्ण की कुटिल राजनीति को..सुयोधन की ज़िद या युधिष्ठिर के पक्ष को.. न्याय-अन्याय का विचार युग को ही करने दीजिए.. लेकिन विजेताओं ने जीत के बाद इतिहास कोअपने संदर्भों में लिखा है। इतिहास को अपनी तरह से इस्तेमाल किया है। उसी क्रम में सुयोधन कब दुर्योधन हो गए किसी को पता भी नहीं चला। अस्तु, पराजितों को मृत्युदंड देना तो विजेता का अधिकार है, नाम बदल दिया गया तो कौन सी बड़ी बात.."

राजसभा कान लगा कर मलाहिन को सुन रही थी। मंत्री अवाक्..महाराज कथा के साथ द्वापर में थे.. राजपुरोहित चैतन्य होकर मुस्कुराने लगे थे। नाईनें उबटन-चंदन की कटोरी छोड़कर मलाहिन की कथा सुन रही थीं।

"... पांडवों के खेमे में रोना-पीटना मचा था। उनका सबसे वीर लड़ाका आज आत्मदाह करने वाला था। कृष्ण के इशारे पर चंदन की लकड़ियों की चिता तैयार कर दी गई। भीरु युधिष्ठिर बुक्का फाड़कर रो पड़े.. पता नहीं क्या था ये..प्रिय भाई के यूं जिंदा जलने का दुख या फिर अपने सबसे तेज़-तर्रार लड़ैया के मरने से पराजित होने का खतरा..। 

लड़ाई थी तो क्या..ऐसी स्थिति में दोनों खेमों के लोग वहां इकट्ठा हो गए। चारण ऊंचे स्वरों में अर्जुन की वीरता का गुणगान करने लेगे। चिता के चारों ओर अगरु जला दिए गए..अर्जुन स्नान कर श्वेत-धवल वस्त्रों में चिता के सामने आ गए। चिता भी क्या... एक ताड़ ऊंची..दुनिया के लोग देख सकें कि वीर क्षत्रिय अर्जुन ने वंश की लाज रखते हुए प्रण टूटने पर जान देने में भी संकोच नहीं किया। इतिहास साक्षी रहे।"

"कृष्ण ने इशारा किया तो एक सेवक गांडीव और तूणीर चिता के पास रख गया। ऐसे महायोद्धा को इज़्ज़त बख्शने के लिए इससे बेहतर और क्या किया जा सकता है कि उसे उसके हरबे-हथियारों समेत मरने दिया जाए।"

"फिर क्या था राजन्.. दुर्योधन ने कहा कि देर किस बात की..अग्निदेवता का आह्वान किया जाए..। अग्नि के लिए पवित्र समिधा रगड़ी जाने लगी। महाराज। एक कहावत है कि चींटी की मौत आती है तो उसके पंख निकल आते हैं। मूर्ख जयद्रथ ने सव्यसाची के चिता पर बैठते ही उसका अंत निकट जान लिया। फिर तो सामने आ जाने में कोई बुराई नहीं... चिता के सामने ही कूदने लगा.. इसी अर्जुन ने उसका सिर मूंडकर उसका अपमान किया था।

जयद्रध की मूर्खता के उन्ही क्षणों में पता नहीं आकाश के किस कोण से सूर्य देवता निकल आए.. तमाम अंधेरा मिट गया, पता चला अभी दोपहर के ठीक बाद का वक्त है। दाद देनी होगी कृष्ण के दिमाग़ की भी..तुरंत उठाकर पांचजन्य फूंक दिया..और अर्जुन को ललकारा, "देखते क्या हो अर्जुन..सूर्य अभी डूबा नहीं है, उठाओं गांडीव और वध करो इस पापी का।"

"महाराज, पेड़ की डाल पर बैठी मैं भूख से अधमरी तो हो ही रही थी..ये प्रहसन मुझे असह्य था। जल्दी ये मानव युद्ध खत्म करें तो मैं अपना भोजन तलाशूं। इसी भीड़-भाड़ में सुदर्शन आंखों वाले युवक का शव भी कहीं खो गया था।... अभी तो दिन ही था.. अभी मैदान में जाना खतरे से खाली न था।

उसी वक्त महाराज युद्ध फिर से शुरु हो गया। शुरु क्या हुआ अर्जुन ने शुरु होने से ऐन पहले खत्म कर दिया। कृष्ण की ललकार सुनते ही जैसे अर्जुन की देह में प्राण लौटे, बिजली -सी कौंधी और उसने आव न देखा ताव झट गांडीव उठाकर जयद्रद का पहले दाहिना फिर बायां हाथ काट डाला.. जयद्रथ दर्द की वजह से या मौत को साक्षात् सामने देखकर वहीं का वहीं स्तंभित खड़ा रह गया।"

"ये युद्ध उनका था, जीवन-मरण भी उनका ही था। मुझे इनसे क्या लेना-देना, मुझे तो अपने बच्चों के भूख की फिक्र थी। मेरे ही जैसी कई चीलें थीं वहां, गिद्ध भी थे..नजरे जमाए हमारे लिए तो महाभारत महाभोज ही था।"

"...तो राजन्! जयद्रथ भी कोई मामूली वीर तो था नहीं...आज के इंसान तो उनके सामने बौने ही लगेंगे। विशाल ललाट और जांता (चक्की) जैसी विस्तृत छातियों वाला वीर... उसके बाजू की मछलियां कटने के बाद भी फड़क-फड़क उठती थीं. मैं झपाटे से लपकी और और अपनी क्षुधापूर्ति से विवश जयद्रध का बायां रक्तरंजित बाजू लेकर उड़ चली। "

"महाराज! ज़माना बदला तो जीवों के आकार-प्रकार भी बदल गए। जयद्रध अगर बलशाली था तो हम चिलहोरियां भी कोई छोटी न थीं। आप अनुमान ही लगा लें कि जिस बाजू को लेकर मैं उड़ी थीं उसका महज बाजूबंद ही सवा मन सोने का था.. बाजू लेकर उड़ती-उड़ती मैं विदेह की राजधानी पहुंच गई..जानकी की नगरी में वैभव त्रेता के मुकाबले क्षीण तो हुआ था मगर पूरी तरह लोप नहीं हो पाया था।.. बहरहाल, महाराज.. मै ने बच्चों के साथ खुद की क्षुधा भी मिटाई।...."

कुछ पल तक सन्नाटा छाया रहा। मलाहिन रुक गई थी, कथा समाप्त हो गी थी। सभा सन्नाटे में थी, लेकिन सबकी निगाहें प्रश्नवाचक बनी थीँ।

"महाराज कोई सवाल है..?"

महाराज विचारमग्न रहे। सन्नाटा तोड़ा बडबोले मंत्री ने, " ऐ मलाहिन, अगर तू सत्य उचार रही है। तो उसका कोई सुबूत तो होगा..।"

"महाराज! यह घटना द्वापर के महाभारत काल की है। अभी कलिकाल का आखिरी चरण चल रहा है। लेकिन यह भी सत्य है महाराज कि सोना काल के प्रभाव से सुरक्षित रहता है और मिथिला की पुरानी राजधानी के ध्वंसावशेषों के मध्य टीले पर पीपल के पेड़ की जड़ की खुदाई करवाएं तो मुमकिन है कि आपको वह बाजूबंद मिल भी जाएगा...।"

"...किंतु मलाहिन, तुम्हारे पूर्वजन्म के काम का आज की घटना पर हंसने से क्या ताल्लुक था..." राजपुरोहित ने गंभीर स्वर में हस्तक्षेप किया।

"... महाराज, मुझे पूर्वजन्म की घटना के संदर्भ में आज की घटना ने हंसा दिया। एक हम चिलहौरिया थे.. जयद्रध के उतने भारी बाजू को लेकर कुरुक्षेत्र से लेकर विदेह तक उड़ने में न तो हमने कही आराम किया न रुके.. लेकिन आज जब वह चील मेरे छिट्टे(टोकरी) से मछली लेकर उड़ी तो उस मछली का वज़न भी सेर-डेढ़ सेर से ज्यादा न रहा होगा। लेकिन वह चील तो उसे दो फर्लांग तक भी न ले जा सकी.. पास में ही मछली उसे पंजों से छिटक गई। काल के साथ बढ़ते पाप ने किस कदर जीवों में बल, बुद्धि और विचार शक्ति को क्षीण कर दिया है उसी पर मैं हंस पड़ी थी।

... महाराज, कथा तो आपने सुन ली अब आपके प्रण पूरा करने का वक्त है..।"

" ज़रुर, मंत्री जी..महाराज ने मंत्री जी की ओर मुखातिब होकर कहा," ध्वंसावशेषों की खुदाई कराई जाए..सत्यता प्रमाणित हो तो राज्य इसके बाल बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी लेता है...खुदाई से जितना सोना निकले उससे एक पोखरा कुदवाया जाए जिसका बंदोबस्त मलाहिन के बच्चों को दे दिया जाए।..उस पोखरे से होने वाली हर तरह का आमदनी इसके बच्चों की होगी..जब तक इसका खानदान चले तब तक ..ये बात राजपत्र में अंकित की जाए.."

राजा आदेश देकर मलाहिन की तरफ मुड़े। देखा.. हराही जमीन पर अचेत पड़ी है। सब दौड़े...मछली पानी से निकल चुकी थी।

"हराही,.. ऐ हराही..."

"जी मालिक..."

"ये मधुबनी के लिए बस कहां से मिलेगी?"

"साहब, एहि ठांऊं सं कनिके दूर हई बेला मोड़.. वहीं भेंट जायत.." मलाहिन अंदेर में लुप्त हो गई। किसी ढिबरी जलते घर में उसका घरवाला इंतजार कर होगा। बच्चे खाने के लिए भात की बाट जोह रहे होंगे।

4 comments:

sushant jha said...

हराही पोखर की कहानी हमने भी बचपन से सुनी है। दरभंगा का यह पोखर न जाने कितनी दंतकथाओं को छुपाए हुए है। गनीमत है दरभंगा महाराज ने उस पोखर का नाम हराही के नाम पर कर दिया वरना आजकल के नेता तो अपने बाप से ज्यादा कुछ सोचते नहीं। स्मृतियों को छेड़ने के लिए साधुवाद।

दीपक बाबा said...

excellent !!!


उम्मीद से दुगना ..
ओर हाँ
ये
@सुयोधन कब दुर्योधन

क्या ये सत्य है.

Anonymous said...

बहुत खूब...मुख्य कहानी अपनी पूर्ण आवेग पर और बीच में दंत कथा का समावेश काफी रोचक है.....

rashmi ravija said...

मेरे लिए ये दंतकथा नई थी...और रोचक भी..

' विजेताओं ने जीत के बाद इतिहास कोअपने संदर्भों में लिखा है'

बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है यह तथ्य