Friday, June 1, 2012

सुनो! मृगांकाः तुम बिन जीवन कैसा जीवन

भिजीत आगे बढ़ता रहा। यह सब कुछ कितने दिनों के बाद आया है इस इलाके में। अपने देश की माटी। एक सपना-सा लग रहा है उसे।

सपना तो उसे मृगांका भी लगी थी। उसके जीवन में कोई भी ऐसा क्षण नहीं आया था जब उसे मृगांका बेहद खूबसूरत न लगी हो। अभि को हमेशा उसका सौन्दर्य सांस रोक देने वाला लगा था। यह करीब-करीब तिलस्मी सौंदर्य लगता था उसे। अपनी जिंदगी में प्यार के लिए जितने भी रंग सोच रखे थे, मृगांका में सब मौजूद थे।

वह एक सपना थी। बल्कि सपने से भी बेहतर। कोई इतना निर्दोष और संपूर्ण सपना भी नहीं देख सकता था। कुछ भी हो जाए, लेकिन प्लास्टिक सर्जन ईश्वर का मुकाबला नहीं कर सकते। ईश्वर नाम लेते ही अभिजीत को ठेस सी लगी। सड़क पर कोई ईँट सीधी खड़ी थी।

वो झील सी साफ़-शफ़्फ़ाफ़ आंखे, जो दूसरों को पता नहीं कितनी खूबसूरत लगती थीं, लेकिन अभिजीत का मन होता था कि वह बस इन्हें देखता ही रहे। उसका होंठों को दांतो दले दबाकर मुस्कुराना...अभिजीत को उसकी यह अदा एकदम  से भा गई।

सकी आंखे, एक महीने के बच्चे जैसी थी। साफ और अपनी ओर खींचने वाली। एकदम तीखी सुतवां नाक। बेदाग गुलाबी चमकीले गुलाबी होठ। एकदम गोरी-चिट्टी, इतनी गोरी कि फोटोशॉप सॉफ्टवेयर भी शर्मा जाए।

अभिजीत ने पहली बार उसके सौंदर्य पर गौर किया,तो उसे लगा कि इतनी खूबसूरत लड़की, उफ़् ये मुझसे तो बात भी नहीं करेगी। इसेस पहले उसने कभी उसकी सुंदरता पर गौर नहीं किया था।

लेकिन मृगांका क सुंदरता की तारीफ करना उसे हमेशा रोकता रहा। लगा कि सुंदरता की तारीफ की जाए तो यह महज उसके बाहरी व्यक्तित्व की तारीफ होगी। आत्मा...प्रेम तो आत्मा से होता है। अभिजीत उस आत्मा की ओर खिंचता जा रहा था।

अभिजीत सड़क पर चलता जा रहा था। शायद बस स्टॉप की तरफ़। अतीत फ्लैश बैक में और कभी-कभार डिजॉल्व के रूप में दिमाग में चलता जा रहा था। उसकी नजर सामने रेहड़ियों और जमीन पर बोरे बिछाकर बनाई गई दुकानों पर गई।

लोहे की जाली...या फिर कोयले के चूल्हे पर लिट्टी बनाए जा रहे हैं। लिट्टी पकाने वाली लड़की लगातार उस अंगीठी में हवा किए जा रही है। सोंधी-सी खुशबू हवा में तिर रही है। सड़क पर टुनटुनाती घंटियो वाले रिक्शों की आवाजाही बदस्तूर जारी है। झालरों से सजे रिक्शे..ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर पहिए ईंटों के टुकड़ों पर फिसलते हैं तो रिक्शों की छतरी की जगह लगाई गई बांस की फट्टियों के आपस में टकराने से एक खास किस्म की आवाज़ होती है।

..खट्ट..खट्ट..खटाक्..

फट्ट..फट्ट..फटाक..अंगीठी पर ऱखे कच्चे कोयले में से कोई कोयला फूट रहा है।

पोखरे में डूबते हुए सूरज की रौशनी पड़ रही है। अभिजीत ने साफ देखा सूरज ने पश्चिम के पानी में डूब कर आत्महत्या कर ली, पर खून से पानी पहले ललछौंह हो गया और फिर वो पीलेपन में बदल रहा है।

पान की दुकानों में लाउडस्पीकर से बेहद लाउड बज रहे कबीर के पदों और मुकेश की आवाज़ में रिकॉर्ड हनुमान चालीसा की जगह चुपके से मनोज तिवारी के भोजपुरिया गीतों ने ले ली। पास ही कहीं गुड्डू रंगीला भी पूरी शिद्दत से अश्लीलता के रंग बिखेर रहे हैं। ..कछु चाहीं नाहि हमारा और.. हमरा हऊ चाही...पान दुकानों में ट्यूब लाईटों की रौशनी जगमग हो उठी। पास ही कहीं इन रौशनी के इंतजाम में व्यस्त जनरेटर गड़गड़ा रहा था।


...जारी

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

जब सूरज का तेज कम हो जाता है, मन हिलोरें लेने लगता है, रात उसी को कहते हैं..

दीपक बाबा said...

जीवंत नज़ारा.

कुमारी सुनीता said...

सुनो मृगांका .................. लेखक ने तुम्हे इतनी शिद्दत से गढ़ा है कि तुम जिवंत हो गई हो , तुमसे मिलने के लिए सिर्फ अभिजीत (मनजीत ) ही नही बल्कि हम लोग भी आतुर है. तुम्हारे नाम से लेकर तुम्हारा व्यक्तित्व सब कुछ unforgettable है . Interesting.

कुमारी सुनीता said...

सुनो मृगांका .................. लेखक ने तुम्हे इतनी शिद्दत से गढ़ा है कि तुम जिवंत हो गई हो , तुमसे मिलने के लिए सिर्फ अभिजीत (मनजीत ) ही नही बल्कि हम लोग भी आतुर है. तुम्हारे नाम से लेकर तुम्हारा व्यक्तित्व सब कुछ unforgettable है . Interesting.