Saturday, June 23, 2012

गैंग्स ऑफ़ वासेपुरः जियअ हो बिहार के लाला

गैंग्स ऑफ वासेपुर के प्रोमो देखकर कसम खाई थी कि फिल्म पहले ही दिन देखूंगा। देखी...और क्या दिखी। वाह। बहुत दिनों बाद फिल्म देखकर मजा आ गया।

अनुराग कश्यप की सभी फिल्में देखीं है। लेकिन संयुक्त बिहार या अब के झारखंड के अतीत गुंडई, लुच्चई, कमीनेपन को इस तरह किसी ने उभारा नहीं था। अपनी पहली रिलीज़ फिल्म ब्लैक फ्राइडे की तरह ही अनुराग ने एक बार फिर डॉक्यु-ड्रामा रच दिया है।

बदलते हुए लेंस, और पीय़ूष मिश्रा की कमेंट्री इस फिल्म को ऑथेंटिक बनाती है।

दरअसल, फिल्म का महीन रिसर्च इसे इस सब्जेक्ट पर बनी तमाम फिल्मों से जुदा जमीन पर खड़ी करती है। गैंग्स...को सिर्फ माफिया फिल्म समझना भूल होगी..और सिर्फ अपराध फिल्म भी नहीं है ये..ये बिहार में माफिया और राजनीति और कोयला खदानों की गड़्मड़ होती स्थितियों की कथा है।

जैसे ही आप किरदारों से रू-ब-रू होते हैं...आप उफ़-उफ़ करते जाते हैं। आपको सरदार खान हमेशा याद रह जाएगा, जो केन्द्रीय चरित्र तो है लेकिन वह नायक की शास्त्रीय परिभाषा में कहीं नहीं आता। वह लौंडियाबाजी करता है, ठरकी है, और तमाम किस्म का हरामीपना है उसके अंदर। फिर भी वह आपको मोहित करता है।

गज़ब की डिटेलिंग वाली फिल्म है गैंग्स...
माफिया के किरदार में मनोज वाजपेयी कई दफा आ चुके हैं। और सत्या का उनका किरदार भीखू म्हात्रे अब भी लोगों को याद है। लेकिन इस दफा उनके किरदार के रंग गजब के हैं...और विविध भी।

गैंग्स आफ वासेपुर एक राजनीतिक दस्तावेज़ है। लेकिन पहले सेंसर बोर्ड का शुक्रिया अदा करना नहीं भूलना चाहिए, कसाईखाने के बड़े-बड़े मांस के लोथड़ों के शॉट्स आपराधिक मिथक रचते हैं...

अनुराग कश्यप ने देश-काल (टाइम और स्पेस) में इतनी बारीकी बरती है कि दिल खुश हो जाता है, अगली दफा मिलेंगे कभी तो हाथ चम लूंगा। लेंस,  लाइटिंग, शेड्स,धूल,बाल ....क्या कंटीन्यूइटी है।

अस्पताल के दृश्य में लालटेन की रौशनी..उफ़, दिल लूट दिया गुरू।

और बात जरा डिटेलिंग की। आम तौर पर बिहार की भाषा को परदे पर लाने में बहुत हल्केपन से काम लिया जाता है। लेकिन इस काम में अनुराग उस्ताद हैं। यहां तक कि लौंडा गायक बने यशपाल शर्मा के गाने में (मुकद्दर का सिकंदर का गानाः यशपाल पहले सलामे इश्क़ मेरी जां...को लड़की की महीन आवाज में गाते हैं...कुछ इस तरह, सलामे इस्क मेरी जां जरा कूबूल कर लो...फिर किशोर की आवाज़ में गाते हैं...तू मसीहा मुहब्बत के माड़ो का है...गौरतलब है कि बिहार में 'र' को 'ड़' भी उच्चारित किया जाता है। अद्भुत इसी को तो कहते हैं। वरना बॉलिवुडिया तमाशे वाले तो बिहार के किरदार को दूधवाला या लाल मोजे पहना विलेन बना कर इतिश्री मान लेते थे।

डिटेलिंग उस वक्त मारक हो जाती है जब सवारी बिठाने के लिए मनोज, गिरिडिह- गिरिडिह बोलते हैं। नल्ला चूसते हैं, लड़की को कमीनगी से  ताकते हैं। उनकी कमीनगी भरी मुस्कुराहट पर आप न्योछावर हो जाएंगे।

सरदार और औरतों के बीच के रिश्तों के अलग से व्याख्या की जरूरत पड़ेगी। सरदार की पत्नी और उसके संरक्षक (पीयूष मिश्रा) के बीच जो संबंध होते होते रह गया और उससे जो फैज़ल पर असर पड़ा, वहीं से फैज़ल का किरदार शुरु होता है।

फिल्म में अगर महिला किरदारों की चर्चा न की जाए तो गलत होगा। नगमा या दुर्गा के किरदार संपूर्णता लिए हैं। दोनों ताकतवर है, एक  घर बार छोड़ कर बंगालन के प्रेम में पड़ने वाले रंडीबाज पति को भी खाना खिलाकर ताकतवर बनाती है, और घर आए पुलिसवालों के साथ सख्ती से निपटती है। दूसरी, सरदार से झापड़ खाकर उसके लिए अपने दरवाजे बंद कर लेती है और सैमसन और डेलिला कहानी की डेलिला की तरह अपने प्रेमी सरदार की मौत का कारण बनती है।


महिलाओं के किरदार सच में बहुत ताकतवर है। और दोनों किरदारों में उतरी अभिनेत्रियों ने भी कमाल का अभिनय किया है।
फिल्म की महिला किरदार जानदार हैं
'इक बगल में चाँद होगा' से 'कह के लूंगा' तक ‘वासेपुर का संगीत उसकी आत्मा है, जिसके बिना फ़िल्म मुमकिन नहीं थी। मनोज वाजपेयी इसलिए कि अपने किरदार की कमीनगी में इतना उतरते हैं कि आपको बार-बार बेहद विकर्षित करते हैं, लेकिन बस इतना ही कि जब वे अपना बदला ले रहे हों तो आप उनके बिल्कुल साथ खड़े हों।


पूरी फिल्म में भोजपुरी बिरहा और बिदेसिया का सटीक इस्तेमाल है। आप पार्श्व संगीत के तौर पर बिहार के लोकगीतनुमा संगीत से दो-चार होते हैं और आपको लगने लगता है कि वाह इतना ऑथेंटिक तो बॉलिवुड कभी था ही नहीं।
एक दम से रीयल दृश्य, दिल को गुदगुदाने वाले संवाद..क्योंकि बचपन से हम ऐसी ही भाषा सुनते हुए बड़े हुए हैं। देखे-सुने जानेपहचाने लोकेशंस..बनारस, बरकाकाना का स्टेशन...फिल्म को देखकर लगता ही नहीं कि फिल्म देख रहे हैं।
हां, शुरु में भूंजे की तरह गोलियां चलती हैं तो आपको शुरुआत में ही असहज कर देती है। लेकिन फिर धीरे-धीरे आप अनुराग पर भरोसा कर के सीट पर पीठ टिका कर बैठते हैं...और एक दम यथार्थ सिनेमाई तजुर्बे से वाकिफ होते जाते हैं।
अगर आप को इऩ सबसे यानी सच्चाई, यथार्थ, कमीनेपन, हरामीपन, डकैती, बकैती, लौंडियाबाजी, रंडीबाज़ी...बम, कट्टे, कोयले, राजनीति, दंगई, खून वगैरह से डर लगे या उबकाई आती हो, या नफरत हो तो बेशक ये फिल्म न देखने जाएं। आपके लिए बेशक एक और फिल्म रिलीज़ हुई है, जिसमें शाहिद कपूर और प्रियंका चोपड़ा प्रेम-व्रेम को उसी मसाला अंदाज़ में दोहरा रहे होंगे, जो दशकों से हम आप बेहतर तरीके से परदे पर देख चुके हैं।
गैंग्स ऑफ वासेपुर, सिनेमाई जादू है। यथार्थ और कला का मेल...आखिर में सभी किरदारों के साथ और जिअ हो बिहार के लाला में मनोज तिवारी की लय पर सिर्फ  ठेले पर लटकता हुआ माउजर याद रह जाता है। जिसमें पहिए के बीचों बीच एक गोली छूटती है -- धांय।

5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

अब तो निश्चय ही देखना होगा..

दीपक बाबा said...

हमारे प्रिय हाल पर नहीं आया ये गैंग....... दिल मार कर कहीं ओर देखनी पड़ेगी. :(

Unknown said...

aapke is visleshan ko pad ke lag raha hai ki ham bhi ye film dekh hi aaye......thanks

Anonymous said...

अभी फिल्म देखि नहीं इसलिए उसके बारे में कुछ कह न सकूँगा. पर रही बात संगीत की तो मै आप से सहमत हु की बॉलीवुड इतना ऑथेंटिक कभी न था. पता नहीं आप सत्यजीत रॉय की कोई बंगाली फिल्म देखे है या नहीं पर बस आप के जानकारी के लिए बता दू की लोक संगीत का उतना अछा प्रयोग मुख्या धरा के किसी सिनेमा में किसी ने किया है मै नहीं जानता . बॉलीवुड में तो लोग लोक गीतों की माँ बहन कर देते है. कभी आप 'लगा चुनरी में daag' के 'एही थैया मोतिया ' गाना सुनिए और यही गाना मनोज तिवारी या पंडित चन्नू लाल मिशा के गाये हुए गाने को सुनिए तो आप समझ पायेंगे की एक लोक गीत की लोगो ने कैसे ह्त्या की है. सन गीतकार स्नेह ने इससे पहले भी ओये लकी ओये में बहुत ही माती का संगीत दिया दिया. हरियाणा के लोक गीतों को जिसे बाहर के लोग शायद ही जानते है उन्होंने बहुत अछे से प्रयोग किया था. पर मै इन्टरनेट पर 'music review ' पढ़ने के दौरान पाया की लोगो ने कुछ बेहतरीन गानों जैसे 'हमनी के छोड़ी के' का जिक्र भी नहीं किया है . बास्तव में इन review करने वालो की जानकारी कितनी है संगीत के बारे में ये भी बताता है.

bhojpurigaane said...

अभी फिल्म देखि नहीं इसलिए उसके बारे में कुछ कह न सकूँगा. पर रही बात संगीत की तो मै आप से सहमत हु की बॉलीवुड इतना ऑथेंटिक कभी न था. पता नहीं आप सत्यजीत रॉय की कोई बंगाली फिल्म देखे है या नहीं पर बस आप के जानकारी के लिए बता दू की लोक संगीत का उतना अछा प्रयोग मुख्या धरा के किसी सिनेमा में किसी ने किया है मै नहीं जानता . बॉलीवुड में तो लोग लोक गीतों की माँ बहन कर देते है. कभी आप 'लगा चुनरी में daag' के 'एही थैया मोतिया ' गाना सुनिए और यही गाना मनोज तिवारी या पंडित चन्नू लाल मिशा के गाये हुए गाने को सुनिए तो आप समझ पायेंगे की एक लोक गीत की लोगो ने कैसे ह्त्या की है. सन गीतकार स्नेह ने इससे पहले भी ओये लकी ओये में बहुत ही माती का संगीत दिया दिया. हरियाणा के लोक गीतों को जिसे बाहर के लोग शायद ही जानते है उन्होंने बहुत अछे से प्रयोग किया था. पर मै इन्टरनेट पर 'music review ' पढ़ने के दौरान पाया की लोगो ने कुछ बेहतरीन गानों जैसे 'हमनी के छोड़ी के' का जिक्र भी नहीं किया है . बास्तव में इन review करने वालो की जानकारी कितनी है संगीत के बारे में ये भी बताता है.