Thursday, February 7, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः उड़ीसा से वापसी


 ट्रेन में बैठे तो गप्पबाज़ी शुरू हो गई। हमारे साथ वाले कूपे में बैठे ते शशि सहाय। गज़ब के फोटोग्रफर। दूसरी तरफ, विज्ञापन फिल्मों और फीचर फिल्मों में अभिनय़ कर चुके (और कर रहे) भूपिन्दर पंत।

भुवनेश्वर से निकले तो मन में यादें थी, बुद्ध के दांतों के अवशेष जो हमने म्यूज़ियम में देखे थे। सोने का ख़ज़ाना, जो खुदाई में हासिल हुआ था। महिलाएं इतना सारा गहना एक साथ देखकर अभिभूत थीं, और कुछ आधुनिका-अंग्रेज़ीदां पत्रकार आम महिलाओं के इस आभूषण-प्रेम पर छींटाकशी में व्यस्त।

हरहाल, बुद्ध से जुड़ी कथा शुरू हुई। कलिंग या उत्कल (पालि में उक्कला) या ओद्र से महात्मा बुद्ध का संबंध उनके जीवन काल में ही शुरु हो गया था। इसका ज़िक्र इसलिए भी, क्योंकि कई लोग मानते रहे हैं कि बुद्ध के महापरिनिर्वाण के दो सौ साल बाद अशोक के कलिंग पर हमले से ही बौद्ध धर्म और कलिंग का रिश्ता जुड़ता या शुरू होता है।

अंगुत्तरनिकाय के अनुसार, महात्मा बुद्ध के पहले शिष्यों में से, तपुसा और भल्लिका उक्कला के शहद-व्यापारी थे। वे लोग अपनी 500 बैलगा़ड़ियों में शहद भरकर मध्यदेश की यात्रा पर थे। तभी उनकी मुलाकात गया (आज के बोधगया) में बुद्ध से हुई, जो बोधि प्राप्ति के बाद बोधगया में अपने सातवें हफ़्ते में थे। दरअसल, उनका बोधगया में सातवें हफ्ते का वह आख़िरी दिन भी था।

तपुसा और भल्लिका ने उन्हे चावल और शहद भेंट किया था। महात्मा बुद्ध ने आठ अंजलि  भरकर अपने केश उन्हें उपहार में दिए थे। इन केशों को दोनों शिष्यों ने अपने गृहनगर में स्तूपों में सुरक्षित रख दिए थे। ये स्तूप केश-स्तूप कहलाए।

हाल में उड़ीसा के जाजपुर ज़िले में तारापुर में हुई खुदाई में ये केश-स्तूप निकले हैं। बौद्ध साहित्य तस्दीक करते हैं कि केश-स्तूप सबसे पहले बने स्तूपों में से थे। खुदाई में दो स्तंभ निकले हैं जिनपर केश-स्तूप और भिक्खू तपुसा दानम् खुदा है।

अब इस बात पर शोध चल रहा है कि क्या अपने पहले शिष्य के आमंत्रण पर बुद्ध स्वयं यहां आए थे, और यह स्थान बुद्ध के जीवनकाल में ही आकर्षण का केन्द्र बन चुका था।

वैसे, इतिहास के लिहाज से, कलिंग में आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्से भी शामिल थे। कलिंग की सबसे पुरानी बस्तियों में तोशाली कलिंगनगर (शिशुपालगढ़) थे।  कलिंगनगर आज भुवनेश्वर के पास ही में था। तीसरी सदी ईसापूर्व में कलिंगनगर को अशोक ने अपनी राजधानी बनाया था, (कलिंग सूबे का) और पहली सदी ईसापूर्व में तोशाली को खारवेल की राजधानी बनने का गौरव हासिल हुआ था।

खारवेल के वंशजों के दौरान इसी मध्य उड़ीसा के इलाके का जिक्र रोमना भूगोलवेत्ता प्लिनी ने पहली सदी ईसापूर्व में अपनी किताब में किया है।

प्लिनी लिखता है,कलिंग का राजकीय शहर पार्थालिस (तोशाली) है। इनके साम्राज्य में 60,000 पैदल, 1000 घुड़सवार, 700 हाथी हैं जो यु्द्ध के दौरान शहर की रक्षा करते हैं।

जातक कथाओं के मुताबिक, चौथी और तीसरी सदी ईसापूर्व में, कलिंग का राजधानी का जिक्र दंतापुरम् के नाम से है। दंतापुरम् से ही बौद्धों के सबसे महत्वपूर्ण अवशेष, महात्मा बुद्ध के दांत श्रीलंका ले जाए गए थे।

उत्तर-गुप्त काल में भारत के पूर्वी तट पर कई छोटे-छोटे राज्यों का प्रादुर्भाव हुआ। सातवीं सदी में, चीनी यात्री ह्वेन सांग ने पूर्वी भारत में तीन तटीय इलाकों का ज़िक्र किया है। ये थे, ऊ-चा (ओद्र, मध्य उड़ीसा), कोंग-ऊ-तो(कंगोडा, आज का गंजाम जिला) और कि-लिंग-किया (कलिंग)। इसके मुताबिक, उत्तरी उड़ीसा ओद्र था और मध्य उड़ीसा उत्कल।

कहानी में काफी कुछ बाकी था। शशि सहाय, कैमरे की लेंस पोछते हुए किस्सा जारी रखे हुए थे। कभी हिंदी में तो कभी अंग्रेजी में। उनके साथ का फ्रेंच अर्ध-पत्रकार मुंह बाए हुए सुन रहा था।

पटरियों की आवाज़ में आस्थावानों को ओम् मणि पद्मे हुं सुनाई देने लगा था। 

हमें तो अपने बिहार की याद आने लगी थी। हमको सुबह गया पहुंचना था...जहां से हमारी नालंदा और राजगीर की यात्रा शुरु होने वाली थी।


3 comments:

Soumitra Roy said...

शोध अच्‍छा और दिलचस्‍प है। आवारेपन में भी इतना शोध आपको प्रबुद्ध बना देता है। पर उल्‍टे क्‍यों चले। गया और राजगीर का वृत्‍तांत तो सुना ही दिया था?

rashmi ravija said...

बढ़िया वृत्तांत.... कुछ नयी बातें पता चलीं

प्रवीण पाण्डेय said...

कलिंग सदा ही मगध से जुड़ा राज्य रहा है, बुद्ध का वहाँ पहले से ही प्रभाव रखना स्वाभाविक ही लग रहा है।