बनारस के बाद हमारा अगला पड़ाव था, कुशीनगर। हमारी महापरिनिर्वाण एक्सप्रैस तो गोरखपुर में जाकर रूक गई। और इस दफा अलसभोर में ही पहुंच गई। बस से हम कुशीनगर पहुंचे।
प्राचीनकाल में कुशीनगर का नाम कुशीनारा था।
ईसा से 483 साल पहले भगवान बुद्ध ने यहां पर अपनी देहत्याग की थी। इस घटना को महापरिनिर्वाण कहा जाता है।
खुदाई से यहां एक एक तांबे की नाव मिली। इस नाव में खुदे अभिलेखों से पता चलता है कि इसमें महात्मा बुद्ध की चिता की राख रखी गई थी।
महानिर्वाण
या निर्वाण मंदिर कुशीनगर का प्रमुख आकर्षण है। इस मंदिर में
महात्मा
बुद्ध की 6.10 मीटर लंबी प्रतिमा स्थापित है। 1876 में खुदाई के दौरान यह प्रतिमा प्राप्त हुई थी। यह सुंदर प्रतिमा चुनार के
बलुआ पत्थर को काटकर बनाई गई थी। प्रतिमा के
नीचे खुदे अभिलेख के पता चलता है कि इस प्रतिमा
का संबंध पांचवीं शताब्दी से है। कहा जाता है कि हरीबाला नामक बौद्ध भिक्षु ने गुप्त काल के दौरान यह प्रतिमा मथुरा से
कुशीनगर लाया था।
महात्मा बुद्ध की लेटी प्रतिमा, कुशीनारा |
दरअसल, इस प्रतिमा की खासियत है कि इसमें बुद्ध लेटे हुए हैं। पैर की तरफ से देखे तो वह मृत शरीर की भंगिमा वाली है, जिसे निर्वाण मुद्रा कहते हैं। छाती के पास से देखें, तो बुद्ध आशीर्वाद देने की मुद्रा में नजर आते हैं, और सिर की तरफ से देखे तो यह प्रतिमा मुस्कुराती हुई नजर आती है।
यहीं से थोड़ी दूर पर, माथाकौर
मंदिर भी है।
भूमि स्पर्श मुद्रा में महात्मा बुद्ध की प्रतिमा यहां से प्राप्त हुई है। यह
प्रतिमा बोधिवृक्ष के नीचे मिली है। इसके तल में
खुदे अभिलेख से पता चलता है कि इस मूर्ति का
संबंध 10-11वीं शताब्दी से है। इस मंदिर के साथ ही खुदाई से एक मठ के अवशेष भी मिले हैं।
बुद्ध के काल में कुशीनगर, बाद में कसिया बन गया। यह मल्लों की राजधानी थी, जिसका वर्णन महाभारत के भीष्म पर्व में भी है।
निर्वाण स्तूप का अगला हिस्सा, कुशीनगर |
बौद्ध साहित्य में कुशीनगर का विशद वर्णन मिलता है। इसमें कुशीनगर के साथ 'कुशीनारा, कुशीनगरी और कुशीग्राम जैसे दूसरे नामों का भी उल्लेख है। बुद्ध-पूर्व युग में यह कुशावती के नाम से विख्यात थी।
बुद्ध को भी कुशीनगर से कुछ ज्यादा ही लगाव था। कुछ बौद्ध साहित्यों में सात बोधिसत्वों के रूप में बुद्ध ने मल्लों की इस राजधानी पर शासन किया था। आखिरी बार जब बुद्ध यहां आए को मल्लों ने उनका खूब स्वागत किया और उनके स्वागत-सत्कार में शामिल न होने वाले पर 500 मुद्राओं का दंड निर्धारित किया गया था।
गौरतलब है कि बुद्ध के निर्वाण के संदर्भ में कई किस्से चलते हैं। लेकिन वहां के स्थानीय गाइड ने हमें बताया कि बुद्ध को एक लुहार के हाथों शूकर (इसके दो अर्थ हैं, सू्अर का मांस और शकरकंद) खाने से अतिसार हो गया।
तब उन्हें लग गया कि विदाई की वेला आन पड़ी है। फिर, बुद्ध ने महापिरनिर्वाण हासिल किया। तब उनके शरीर को सात दिनों तक दर्शनो के लिए रखा गया और फिर मुकुटबंधन चैत्य के स्थान पर उनका दाह संस्कार किया गया।
दाह-संस्कार के पश्चात् अस्थि-विभाजन के संदर्भ में विवाद उत्पन्न हो गया। इस अवसर पर उपस्थित लोगों में वैशाली के लिच्छवी, कपिलवस्तु के शाक्य, अल्लकप के बुली, रामग्राम के कोलिय, पावा के मल्ल, मगधराज अजातशत्रु तथा वेठ-द्वीप (विष्णुद्वीप) के ब्राह्मण मुख्य थे।
कुशीनगर के मल्लों ने विभाजन का विरोध किया।
प्रतिद्वंद्वी राज्यों की
सेनाओं ने उनके नगर को घेर लिया। युद्ध प्राय: निश्चित था, किन्तु द्रोण
ब्राह्मण के आ जाने से अस्थि अवशेषों का आठ भागों में विभाजन संभव हुआ। विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधि अस्थि अवशेषों को अपनी राजधानियों में ले गए और वहाँ नवर्निमित स्तूपों में उन्हें स्थापित किया गया।
आवारेपन का रोज़नामचा जारी है, कुछ कुशीनगर का किस्सा कुछ लुंबिनी का, जहां बुद्ध का जन्म हुआ था।
6 comments:
इतिहास के गुंजित अध्याय
एक अदने से गाइड और कुछ कम्युनिस्ट छाप तथाकथित इतिहासकारों के हवाले से ये नहीं कहा जा सकता कि बुद्ध की मृत्यु की तत्कालिक वजह क्या रही... बुद्ध का पूरा व्यक्तित्व इन मनगढ़ंत बातों से कहीं तालमेल नहीं खाता....
धीरज ने शायद कम्यूनिस्ट छाप इतिहासकारों की इसलिए बात की है क्योंकि बुद्धदेव को सूअर का मांस खिलाने की बात कही गई है। हालांकि उनके व्यक्तित्व को देखकर लगता नहीं कि वे मांस खाते होंगे। इतिहास में बहुत सारी बातों की व्याख्या ऐसे ही भ्रामक तरीके से कर दी गई है।
Live elaboration.........
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supB.........
...........its vry difficult to visit and after that write on that matter but u deserve it .welldone.
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