रात गहरा गई है। नीम के पत्तों में गरम हवा सरसरा रही है। मैं काले कोलतार की सड़क पर घूम रहा हूं, अमलतास की पीली पंखुड़ियां पैरों के नीचे कभी-कभी कराह उठती हैं...चांद टेढ़े मुंह के साथ आसमान के कोने में ठिनक रहा है। हवा चल रही है, आसमान में बादल भी हैं...लेकिन आज दिन में गेस्ट हाउस का अटेंडेंट कह रहा था, ये गुलबर्गा है जनाब...गरमी में यहां पत्थर चटकते हैं।
जी हां, ये गुलबर्गा है।
लोगों की बोली में हैदराबादी पुट है। इलाका भी हैदराबाद-कर्नाटक ही कहा जाता है। वही इलाका, जिसके बारे में मैंने गूगल पर छानबीन बहुत की थी, दिल्ली से चलने से पहले...लेकिन ज्यादा कुछ हाथ नहीं आया था।
दिल्ली से चला था तो महीना अप्रैल का था, दिल्ली में गरमी दस्तक दे ही रही थी। कर्नाटक में चुनावी गरमाहट बढ़ गई थी। मुझे चुनाव कवर करना था।
हमने अपना प्यारा लाल गमछा साथ ले लिया था। दोस्त कहते हैं ये एक स्टाइल स्टेटमेंट बन सकता है। हमें स्टाइल से ज्यादा परवाह है अपने आप को उस कड़क धूप से बचने की, जो यहां इस मौसम में पागल कर देने की हद कर तीखी है।
19 अप्रैल की सुबह को हम बंगलोर स्टेशन उतरे तो लगातार दो रात एक दिन के सफ़र ने रीढ़ की हड्डियों पर असर डाल दिया था। बदन का जोड़-जोड़ और पोर-पोर पिरा रहा था।
बंगलोर की सुबह बहुत प्यारी होती है। शायद शामें भी होती हों...हम शाम तक रुके नहीं। फेसबुक पर हमने स्टेटस डाला भी था, कोई मित्र हों तो मिलें...कई एक मित्र असमर्थ थे, एक अभिनय जी ने शाम की चाय का न्योता दिया था....लेकिन उनकी चाय हमारी नसीब में नहीं थी।
दोपहर तीन बजे तक हम बंगलोर से चल चुके थे। आगे भाषा की समस्या आऩे वाली थी...लेकिन हमारा ड्राइवर मणि अच्छा दुभाषिया है। जब वो हंसता है, तो ठहाके में एक खिलखिलाहट होती है। उसके दांत चमकते हैं। उसका हंसना अच्छा लगता है।
रास्ते में बनवारी जी इसरार करते हैं कि कर्नाटक आए तो स्थानीयता का पुट तभी आएगा, जब हम स्थानीय भोजन पर ध्यान दें। नारियल का पानी कर्नाटक में होने की पुष्टि करता है...मैं पके कटहलों की तरफ ध्यान दिलाता हूं। कैमरा सहायक, विनोद बिहार से हैं। उनको कटहल का स्वाद पता है।
बनवारी जी ने भी कटहल लिया है। कटहल की मीठी-मादक गंध...मुझे बचपन याद आ गया। मेरा मधुपुर...सड़क के किनारे नारियल गुल्मों की छटा है, सूरज का रंग बदल रहा है। लेकिन मंजिल दूर है...साढ़े पांच सौ किलोमीटर, भारतीय सड़कों पर। ठठ्ठा नहीं है सफ़र।
लेकिन दक्षिण कर्नाटक हो या उत्तर, सड़कों की हालत नब्बे फीसद तक सही है। अस्सी की रफ़्तार सामान्य है...। रास्ते में आता है, पहाड़ियों की कतार है, शिखरों पर पवनचक्कियों का घूमना जारी है। चित्रदुर्ग हवा की ताकत से पैदा हुई बिजली से रौशन है...रौशनी की कतारें पीछे छूट जाती हैं...
रौशनी की कतार यहां नीचे भी है, गेस्ट हाउस के सुनसान अहाते में...मेरी बालकनी से इमली का एक पेड़ सटा हुआ है। पेड़ पर नई पत्तियों की बहार है, जिनका रंग अभी ललछौंह ही है। मेरे आंगन के सामने मधुपुर में भी इमली का पेड़ था...पोखरे और हमारे घर की दीवार के बीच।
हमको बताया जाता था कि इमली के पेड़ पर भूत हुआ करते हैं, कभी दिखा नहीं। यहां गेस्ट हाउस के अहाते में नागराज का एक छुटका-सा मंदिर नुमा चबूतरा है। सुना है, अहाते में सांप भी बहुत है।
लेकिन इमली के उस पेड़ को हौले से छूकर दुलराता हूं...लगता है अपने ही घर में हूं,। मेरा मधुपुर गुलबर्गा पहुच गया है। मेरा मन उड़ता है, बादलों के साथ। आसमान में बादल हैं, चांद के लुका छिपी जारी है।
जारी
जी हां, ये गुलबर्गा है।
लोगों की बोली में हैदराबादी पुट है। इलाका भी हैदराबाद-कर्नाटक ही कहा जाता है। वही इलाका, जिसके बारे में मैंने गूगल पर छानबीन बहुत की थी, दिल्ली से चलने से पहले...लेकिन ज्यादा कुछ हाथ नहीं आया था।
दिल्ली से चला था तो महीना अप्रैल का था, दिल्ली में गरमी दस्तक दे ही रही थी। कर्नाटक में चुनावी गरमाहट बढ़ गई थी। मुझे चुनाव कवर करना था।
हमने अपना प्यारा लाल गमछा साथ ले लिया था। दोस्त कहते हैं ये एक स्टाइल स्टेटमेंट बन सकता है। हमें स्टाइल से ज्यादा परवाह है अपने आप को उस कड़क धूप से बचने की, जो यहां इस मौसम में पागल कर देने की हद कर तीखी है।
19 अप्रैल की सुबह को हम बंगलोर स्टेशन उतरे तो लगातार दो रात एक दिन के सफ़र ने रीढ़ की हड्डियों पर असर डाल दिया था। बदन का जोड़-जोड़ और पोर-पोर पिरा रहा था।
बंगलोर की सुबह बहुत प्यारी होती है। शायद शामें भी होती हों...हम शाम तक रुके नहीं। फेसबुक पर हमने स्टेटस डाला भी था, कोई मित्र हों तो मिलें...कई एक मित्र असमर्थ थे, एक अभिनय जी ने शाम की चाय का न्योता दिया था....लेकिन उनकी चाय हमारी नसीब में नहीं थी।
दोपहर तीन बजे तक हम बंगलोर से चल चुके थे। आगे भाषा की समस्या आऩे वाली थी...लेकिन हमारा ड्राइवर मणि अच्छा दुभाषिया है। जब वो हंसता है, तो ठहाके में एक खिलखिलाहट होती है। उसके दांत चमकते हैं। उसका हंसना अच्छा लगता है।
चित्रदुर्ग के पास मनमोहक छटा |
रास्ते में बनवारी जी इसरार करते हैं कि कर्नाटक आए तो स्थानीयता का पुट तभी आएगा, जब हम स्थानीय भोजन पर ध्यान दें। नारियल का पानी कर्नाटक में होने की पुष्टि करता है...मैं पके कटहलों की तरफ ध्यान दिलाता हूं। कैमरा सहायक, विनोद बिहार से हैं। उनको कटहल का स्वाद पता है।
बनवारी जी ने भी कटहल लिया है। कटहल की मीठी-मादक गंध...मुझे बचपन याद आ गया। मेरा मधुपुर...सड़क के किनारे नारियल गुल्मों की छटा है, सूरज का रंग बदल रहा है। लेकिन मंजिल दूर है...साढ़े पांच सौ किलोमीटर, भारतीय सड़कों पर। ठठ्ठा नहीं है सफ़र।
विनोद ओझा, कटहल चाभते हुए |
रौशनी की कतार यहां नीचे भी है, गेस्ट हाउस के सुनसान अहाते में...मेरी बालकनी से इमली का एक पेड़ सटा हुआ है। पेड़ पर नई पत्तियों की बहार है, जिनका रंग अभी ललछौंह ही है। मेरे आंगन के सामने मधुपुर में भी इमली का पेड़ था...पोखरे और हमारे घर की दीवार के बीच।
हमको बताया जाता था कि इमली के पेड़ पर भूत हुआ करते हैं, कभी दिखा नहीं। यहां गेस्ट हाउस के अहाते में नागराज का एक छुटका-सा मंदिर नुमा चबूतरा है। सुना है, अहाते में सांप भी बहुत है।
लेकिन इमली के उस पेड़ को हौले से छूकर दुलराता हूं...लगता है अपने ही घर में हूं,। मेरा मधुपुर गुलबर्गा पहुच गया है। मेरा मन उड़ता है, बादलों के साथ। आसमान में बादल हैं, चांद के लुका छिपी जारी है।
जारी
7 comments:
गरमी का इतना सजीव और सरल वर्णन ,.........की गरमी भी फील गुड करवाने लगी , शुरुवात इतनी शानदार है ................... आगे का वृतांत excite कर रहा है .................. इंतज़ार है
अति सुन्दर, भाषा में सहजता और सौंदर्य दोनों है…I love to read your blog just for its Hindi...thanks..
हमसफर बने हुए हैं हम यह पढ़ते हुए.
कर्नाटक में सड़क यात्रा मनोरम होती है, स्वागत है।
i hv read this post again n again from last night to till day........but interest is going on wid each nxt line............ d way to convey d matter is supB.
चित्रदुर्ग की मनमोहक तस्वीर ,,,,,,,,,,,,,,, वृतांत में चार चाँद लगा रही है , बड़ी तकनीकी से खींची गई तस्वीर लग रही है , सुन्दर कोण इस्तेमाल किया है .................फोटोग्राफी का मुख्य गुण है
आप प्रकृति का चित्रण बड़ी खूबसूरती के साथ करते है .............. प्रकृति का मानवीकरण .
...................और हाँ लज़ीज़ कटहल देख कर मुह में पानी आ रहा है .
What a stuff of un-ambiguity and preserveness of valuable
know-how regarding unexpected feelings.
My blog :: gto120dlaocm402mfos02.com
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