Tuesday, June 11, 2013

मोदी, नए जमाने के आडवाणी हैं।


अब आडवाणी बीता हुआ युग हैं। मुझे नहीं पता कि आडवाणी के मन में क्या है, लेकिन सबसे ताज्जुब की बात है कि आडवाणी खुद को सेक्युलर घोषित करने में कामयाब हो गए, और विभिन्न राजनैतिक दलों में उनकी स्वीकार्यता भी साबित हो गई है। यानी एनडीए प्लस की बात हो तो आडवाणी मोदी की बनिस्बत ज्यादा स्वीकार्य होंगे। 

इस्तीफा आडवाणी का तुरूप का पत्ता है। 
इस्तीफा, आडवाणी के तुरुप का पत्ता है।
 बहरहाल, बीजेपी के हालिया मूव पर गौर करें तो देखेंगे कि मोदी को प्रचार समिति की कमान सौंपकर मोदी की अहमियत साबित कर ही दी गई है। लेकिन, यह भी ध्यान देने लायक बात है कि पार्टी ने उनको अभी तक प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। वह ऐसा कदम होगा जिससे पार्टी को सिर्फ मोदी के नाम पर वोट खींचने होंगे, फिर भी मोदी पोस्टर बॉय तो बन ही चुके हैं।

लेकिन क्या मोदी का भविष्य भी आडवाणी सरीखा ही होगा..? मोदी की भी छवि आडवाणी सरीखी ही है, आडवाणी भी विभाजनकारी और उग्र-आक्रामक राजनीति के लिए जाने जाते थे और मोदी ने भी अपनी वक़त 2002 के गुजरात दंगों के बाद ही बढ़ाई। ध्यान दीजिए कि आडवाणी ने 80 और 90 के दशक में रथयात्राएं की थीं, और तब उनका भी ध्रुवीकरण पैदा करने में असर आज के मोदी जैसा ही था।

अस्सी और नब्बे के दशक में आडवाणी ने रथयात्राओं के ज़रिए देश में जनता को ध्रुवीकृत किया था, जिसके बाद दंगों का इतिहास है। इन यात्राओं का परिणाम अय़ोध्या में विवादित ढांचे के ध्वंस में हुआ था। इसका एक परिणाम 1993 में मुंबई धमाकों में हुआ था। बहरहाल, 1984 में  दो सीटों से 1996 में 161 सीटों तक पहुंचाने में आडवाणी का वाजपेयी के साथ मिलकर किया योगदान बीजेपी के इतिहास में अविस्मरणीय होना चाहिए था।

सबको पता ही है कि इतनी मेहनत के बावजूद जब पीएम चुनने का वक्त आया तो पार्टी ने अटल बिहारी वाजपेयी पर मुहर लगाई थी। वाजपेयी की छवि उदार थी, यह कहने की जरूरत नहीं।
तो क्या मोदी को भी क्षेत्रीय दलों के प्रभुत्व के इस दौर में ऐसी ही स्थितियों का सामना करना पड़ सकता है?

सन् 1991 के आम चुनाव में, राष्ट्रीय दलों का कुल मतदान में वोट शेयर 81 फीसद था। लेकिन साल 2009 के लोकसभा चुनाव के आंकड़े बताते है कि कांग्रेस को 29 फीसद और बीजेपी को 19 फीसद वोट मिले हैं।

मोदी को पीएम प्रत्याशी घोषित करके शायद बीजेपी को हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की उम्मीद होगी। हालांकि हिंदू वोट शायद ही कभी ध्रुवीकृत होते हैं। यह हमेशा जातियों में बंटकर वोट करता है। कभी जाट बनकर, कभी लिंगायत, कभी यादव और कम्युनिस्ट बनकर।

वैसे मोदी को हल्के में नहीं लिया जा सकता, लेकिन फिलहाल तो उनको पीएम इन वेटिंग ही रहना पड़ेगा...ठीक आडवाणी की तरह।

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

दशकों का इतिहास कुछ दिनों में ही समझने की बाध्यता है हमें, हम भी करें तो क्या करें?

Anonymous said...

बहत ही अच्छी जानकारी दी मित्र

माउस का राईट क्लिक disable या कॉपी पेस्ट disable साईट या ब्लॉग से कोई सा भी वॉलपेपर कैसे डाउनलोड करें

कुमारी सुनीता said...

Hat's off... Manjeet sir