सिनेमा के परदे पर, हर चेहरा चमकता है। कुछ ही चेहरे होते हैं जिनको देखकर आंखों में चमक आती है। लगता है कि यार, सामने जो ऐक्टिंग कर रहा है, बंदा मुझ-सा ही दिखता है। नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी तुम ऐसे ही हो।
पहले भी देखा था तुम्हें, लेकिन ग़ौर किया था फिल्म 'कहानी' में। ख़ान का किरदार, वो बेसाख़्ता अदा, वो दिल में नश्तर लगा देने वाली अदाकारी, लगा, यार इस आदमी में दम है।
आदत है कि कई दफ़ा, देखी हुई और पसंदीदा फिल्में दोबारा-तिबारा देखता हूं। तो एक दिन पीपली लाइव में तुम दिख गए, पहली बार पीपली में गौर नहीं कर पाए थे। हम आम आदमी हैं, रघुवीर यादव में उलझकर रह गए थे। बाकी बचा माल नत्था ले उड़ा था। राजेश नाम के स्ट्रिंगर के किरदार में, जब पहचान में आए तब से नवाजुद्दीन, तुम एक अदाकार नहीं रहे, हमारे हो गए। अपने। हमारा नवाज़।
फिर तो तुम को हर जगह खोजा, तलाश में मिले। फिराक़ में भी दिख गए और न्यू यॉर्क में भी। और तब आई, गैंग्स ऑफ वासेपुर। पहली फिल्म मनोज के वास्ते देखी थी, तो तुम्हारे लिए भी। दूसरे हिस्सें में तो यार तुम ही तुम थे। तुम ही तुम।
ऐसे कैसे चंट गंजेड़ी थे तुम, कैसे महबूबा का हाथ पकड़ने के दौरान तुम जैसे शातिल क़ातिल की आंखों में आंसू आ गए थे। बताओ तो ज़रा। अनुराग कश्यप की ब्लैक फ्राइडे भी याद आई, तुम उसी के तेवर वाले हो। अनुराग कश्यप के साथ फिल्में करना, उसका मिजाज़ और तुम्हारी अदाकारी में एक साम्य है।
क़ातिल तो हो तुम। बढ़िया अदाकारों की तलाश जिन्हे है, वो तुम्हारी हर फिल्म देखेंगे। हमने तो वो भूत वाली भी फिल्म देखी। फिर एक दिन यूट्यूब पर झांकते वक्त पता चला, आमिर की सरफरोश में तुम 45 सेंकेंड के एक किरदार में थे। फिर पता चला, मुन्ना भाई एमबीबीएस में तुमने एक जेबकतरे की भूमिका निभाई थी, जिसे पिटने से सुनील दत्त बचाते हैं।
45 सेंकेंड का किरदार, और अब तुम्हारी फिल्में, 45 हफ्ते चला करेंगी। हम तुम्हारे दीवाने हो गए हैं नवाज़, काहे कि हमने तुम्हें पतंग में भी देखा और लंचबॉक्स में भी। हमने तो तुम्हे उस शॉर्ट फिल्म बाईपास में भी देखा, यार इरफान को कोई टक्कर दने वाला, उसकी आंख से आंख मिलाकर एक्टिंग करने वाला कोई शख्स है तो तुम हो।
चाहे बाईपास हो, पान सिंह तोमर हो या फिर लंचबॉक्स। इरफ़ान के साथ तुमको देखना अच्छा लगता है।
दोनों ही आम इंसानों जैसे लगते हो ना, यही वजह है। वरना, लिपस्टिक लगाकर रोमांस करने वाले हीरो को देखता हूं, हंसी कम आती है गुस्सा ज्यादा आता है।
अच्छा, याद आय़ा, बॉम्बे टॉकीज़ में भी तुम थे...लेकिन तुम्हारे सामने चुनौती है कि तुम करन जौहर किसी फिल्म में आकर दिखाओ। एक्टर के लिए हर चुनौती पार करना जरूरी है। तुम्हारी कला फिल्मों के लिए तो हम तैयार हैं ही, हम देखना चाहते हैं कि चमक-दमक वाली फिल्मों में एक आदमी, कैसा दिखता है। कैसा दिखेगा, पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचने वाला हमारा नवाज़।
आर्कलाइट की चमक में इतने सहज कैसे रहते हो यार। यहां तो छुटके टीवी कैमरे के डिम-की लाईट में लोग चौंधिया जाते हैं, असहज हो जाते हैं और उल्टा-सीधा न जाने क्या बक जाते हैं।
एक अलग सा स्कूल है ना, बलराज साहनी, ओम पुरी, अनुपम खेर, अमरीश पुरी, इरफ़ान वाली परंपरा...तुम थियेटर वाले उन लोगों की परंपरा के अगले वाहक हो।
एनएसडी को नाज़ है तुम पर। हमें भी। अभिषेकों, शाहरूखों और हृतिक रौशनौं के दौर में तुम परदे पर हम जैसे आम इंसानो का अक्स हो, नवाज़। तुम, तुम नहीं हम हो।
पहले भी देखा था तुम्हें, लेकिन ग़ौर किया था फिल्म 'कहानी' में। ख़ान का किरदार, वो बेसाख़्ता अदा, वो दिल में नश्तर लगा देने वाली अदाकारी, लगा, यार इस आदमी में दम है।
आदत है कि कई दफ़ा, देखी हुई और पसंदीदा फिल्में दोबारा-तिबारा देखता हूं। तो एक दिन पीपली लाइव में तुम दिख गए, पहली बार पीपली में गौर नहीं कर पाए थे। हम आम आदमी हैं, रघुवीर यादव में उलझकर रह गए थे। बाकी बचा माल नत्था ले उड़ा था। राजेश नाम के स्ट्रिंगर के किरदार में, जब पहचान में आए तब से नवाजुद्दीन, तुम एक अदाकार नहीं रहे, हमारे हो गए। अपने। हमारा नवाज़।
फिर तो तुम को हर जगह खोजा, तलाश में मिले। फिराक़ में भी दिख गए और न्यू यॉर्क में भी। और तब आई, गैंग्स ऑफ वासेपुर। पहली फिल्म मनोज के वास्ते देखी थी, तो तुम्हारे लिए भी। दूसरे हिस्सें में तो यार तुम ही तुम थे। तुम ही तुम।
ऐसे कैसे चंट गंजेड़ी थे तुम, कैसे महबूबा का हाथ पकड़ने के दौरान तुम जैसे शातिल क़ातिल की आंखों में आंसू आ गए थे। बताओ तो ज़रा। अनुराग कश्यप की ब्लैक फ्राइडे भी याद आई, तुम उसी के तेवर वाले हो। अनुराग कश्यप के साथ फिल्में करना, उसका मिजाज़ और तुम्हारी अदाकारी में एक साम्य है।
45 सेंकेंड का किरदार, और अब तुम्हारी फिल्में, 45 हफ्ते चला करेंगी। हम तुम्हारे दीवाने हो गए हैं नवाज़, काहे कि हमने तुम्हें पतंग में भी देखा और लंचबॉक्स में भी। हमने तो तुम्हे उस शॉर्ट फिल्म बाईपास में भी देखा, यार इरफान को कोई टक्कर दने वाला, उसकी आंख से आंख मिलाकर एक्टिंग करने वाला कोई शख्स है तो तुम हो।
चाहे बाईपास हो, पान सिंह तोमर हो या फिर लंचबॉक्स। इरफ़ान के साथ तुमको देखना अच्छा लगता है।
दोनों ही आम इंसानों जैसे लगते हो ना, यही वजह है। वरना, लिपस्टिक लगाकर रोमांस करने वाले हीरो को देखता हूं, हंसी कम आती है गुस्सा ज्यादा आता है।
अच्छा, याद आय़ा, बॉम्बे टॉकीज़ में भी तुम थे...लेकिन तुम्हारे सामने चुनौती है कि तुम करन जौहर किसी फिल्म में आकर दिखाओ। एक्टर के लिए हर चुनौती पार करना जरूरी है। तुम्हारी कला फिल्मों के लिए तो हम तैयार हैं ही, हम देखना चाहते हैं कि चमक-दमक वाली फिल्मों में एक आदमी, कैसा दिखता है। कैसा दिखेगा, पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचने वाला हमारा नवाज़।
एक अलग सा स्कूल है ना, बलराज साहनी, ओम पुरी, अनुपम खेर, अमरीश पुरी, इरफ़ान वाली परंपरा...तुम थियेटर वाले उन लोगों की परंपरा के अगले वाहक हो।
एनएसडी को नाज़ है तुम पर। हमें भी। अभिषेकों, शाहरूखों और हृतिक रौशनौं के दौर में तुम परदे पर हम जैसे आम इंसानो का अक्स हो, नवाज़। तुम, तुम नहीं हम हो।
6 comments:
शब्दों की कमी हो गयी है.बस जबरदस्त.
लिपस्टिक रोमांस से आगे बढ़ के "आपके नवाज़" से मिल के मज़ा आया! कमाल की स्वाभाविकता है आपकी कलम में,कुछ आपके नवाज़ की अदाकारी जैसी ही
वाह, बहुत प्यारी समीक्षा एक अभिनेता के प्रयासों की।
जैसी नवाज़ की अदाकारी वैसा ही यह लेख. वाह, बहुत खूब कहा है.
अच्छा लगा आपके नवाज से मिलाकर।
गैंग ऑफ़ वासेपुर और लंच बॉक्स की एक्टिंग ध्यान आ गयी नवाज की!
अच्छा लगा आपके नवाज से मिलाकर।
गैंग ऑफ़ वासेपुर और लंच बॉक्स की एक्टिंग ध्यान आ गयी नवाज की!
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