सुशील झा |
सुशील झाः बीबीसी में वरिष्ठ पत्रकार है, लेखन में एक चमक है। उनका नानी वाला यह संस्मरण शब्दो की जादूगरी का नमूना है।
हमरी हुई एक ठो नानी। नानी बुढ़िया नहीं
थी। ठां भी नहीं थी। लेकिन हमको मां जइसन लगती।
चूंकि हम जब बच्चे थे, तो हमरी मां जवान
थी। और हम फिलिम देखते तो हमको लगता कि मां तो निरूपा राय होती है। तो समझिए कि
हमरी नानी हमरी निरूपा राय थी। हम अपनी मां को अपनी बड़की बहन जैसा ट्रीट करते थे।
पल्लू पकड़ के चुप्पे रहते जब कुछ चाहिए
होता। नानी से डिमांड करते। अचार खाना है, भुट्टा खाना है। रोटी खाना है। नानी
मुंह में ठूंस के खिलाती।
डांटती और खाने के बाद पानी का लोटा
लेके खड़ी रहती...कहती...डकर के पानी पी। लेकिन नानी मिलती गांव में। साल में एक
बार। नानी सिर्फ साड़ी पहनती और आंगन भर में नाचती फिरती।
ज्यादा लाड़ आता तो गाल पकड़ के गाने
लगती। हम बड़े हुए तो शरमाते हुए पूछे नानी से, नानी, तुम मां की तरह ब्लाउज क्यों
नहीं पहनती हो।
नानी बोली—तुम्हारी शादी में
पहनेंगे। फिर बताई कि पुराने जमाने में कोई नहीं पहनता था। अब शहर में ब्लाउज न
पहनना असभ्यता की निशानी है। गजब प्रोग्रेसिव देश है रे बाबा, खैर नानी को ही सबसे
पहले बताए कि प्रेम हुआ है। नानी भुच्च देहाती, बोली—जल्दी बियाह कर लो।
वरना प्रेम खत्म हो जाएगा।
माई बाबू से वही लड़ी, और बोली,
तुम्हारा छोटका बचवा समझदार है। शादी करने दो। मामा लोग नानी को खरचा में दुई सौ
रूपया देते महीना का। और अनाज ढेर। उसी में नानी पैसा बचाकर चार धाम घूम आई थी। जब
हम कमाए लगे तो हम पूछे नानी से, बोलो क्या चाहिए। नानी बोली, चप्पल खरीद देओ।
पांव फयट जाता है। हम नानी का चप्पल खूब पहिने हैं। हमरा पांव नानी का पांव बराबर
है। नानी को चप्पल खरीद दिए थे, और पैसा भी देकर आए थे।
उसके बाद साल नाना जी की मौत हुई फिर
नानी मुस्कुराई नहीं। हम जाते तो बोलती, आब हम नय जीयब। नानी को दिल की बीमारी थी।
लेकिन कभी अस्पताल नहीं गई। झाड़-फूंक करवाती। बायां हाथ खिंचता था। हमको बहुत साल
बाद पता चला कि बायां हिस्सा खिंचने का मतलब दिल की बीमारी होती है।
फिर नाना जी की बरसी के छठे दिन नानी
ठकुरबाड़ी गई। रात में सोते समय बोली गंगा जल दो। मामा ने मुंह में गंगाजल डाला और
नानी चली गई। नाना जी के पास।
हम तब से अपने नानी गांव नहीं गए। हमको
नानीगांव नानी के बिना सूना लगता है। हमको नानी की बिना ब्लाउज के स्तन याद आते
हैं। मुझे लगता है मैं उन्हीं का दूध पीकर बड़ा हुआ हूं। नानी का मरना मां के मरने
जैसा लगता है। पता नहीं क्यों। हम तब रोए नहीं थे क्योंकि हम नौकरी करते थे। हमको
लगा रोना मर्द की निशानी नहीं है।
हम तब मर्द थे...अब इंसान हुए हैँ। तो
कभी कभी नानी को याद करके रो लेते हैं।
7 comments:
काफी उम्दा रचना....बधाई...
नयी रचना
"सफर"
आभार
वाह क्या बात है जनाब ... मज़ा आ गया ...
:-(
ऐसी जीवन्त और प्यारी नानी बहुत याद आती है।
बार बार पढने और पढकर रो देने वाली पोस्ट ।सुशील झा हमें बीबीसी के पहले दिन से ही बेहद प्रिय और पसंदीदा रहे हैं
नानी की यादों की सौगात बहुत गहरी है।
बहुत खूब !!! इसे पढ़कर अपनी नानी की याद आ गई !
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