Sunday, August 23, 2015

बिहारी अस्मिता का डीएनए

बिहार के चुनाव में इस बार किसिम-किसिम की बातें सुनी जा रही हैं। वैसे हमेशा से सुनी जाती हैं। लेकिन जिस राज्य में राजनीति लोगों को घलुए में मिलती है, उसमें मुद्दों को ज़मीन से हवा की तरफ कैसे मोड़ दिया जाता है, इस बार का चुनाव उसकी मिसाल है। बरसो पहले बीजेपी-जदयू गठजोड़ ने लालू के जंगल राज के खिलाफ नीतीश के विकास पुरुष की छवि गढ़ी थी। तब बिहार के लोग लालू-राबड़ी राज से दिक हो चुके थे और नीतीश कुमार में उनको अपना तारणहार नज़र आया था।

इस बार युद्ध में आमना-सामना मोदी और नीतीश का है। लालू सपोर्टिंग रोल में हैं। इस बार लालू को सपोर्टिंग रोल में कुछ अच्छा रिजल्ट नहीं मिला तो उनके लिए अगले कुछ साल के लिए परिदृश्य से गायब हो जाने का ख़तरा है।

तो विकास पुरुष नीतीश कुमार की मजबूती विकास का नारा था और उनके लिए यह जाति से ऊपर जगह रखता था। लेकिन, कुरमी-कोइरी उनका भी वोटबैंक था, और फिर उनका महादलित प्रयोग भी था, जिसमें बीजेपी सेंध लगाने की जुगत में है और सामाजिक अभियांत्रिकी का बारीक समीकरण भी नीतीश ने ही भिड़ाया था।

वही नीतीश इस दफा, सब कुछ छोड़छाड़ कर डीएनए सैंपल एकत्र कर रहे हैं। वह केन्द्र को 50 लाख डीएनए सैम्पल की बजाय नाखून और बाल लिफाफे में भिजवा रहे हैं।

नीतीश कुमार ने इस बार की लड़ाई में समझिए ब्रह्मास्त्र छोड़ा है, और वह है बिहारी अस्मिता का। डीएनए सैंपल भिजवाना उसी लड़ाई की घेराबंदी है। लेकिन इस अस्मिता अभियान की कई समस्याएं है। पहली तो यही कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार जैसे सूबे खुद को हिन्दुस्तान मानते हैं और ऐसे सूबों में अस्मिता का सवाल गौण हो जाता है।

दिल्ली में बिहार के लोगों को बिहारी कहा जाता है और तकरीबन गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन वहां अस्मिता का सवाल ही खड़ा नहीं होता। बिहार में सांस्कृतिक और भाषायी अस्मिता पर कभी बात नहीं होती। ऐसा मान लेना मुश्किल है कि बिहार में मिथिला के अलग राज्य (भाषायी आधार पर) के लिए कोई जबरदस्त आंदोलन कभी जड़ें जमा सकेगा।

आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु या कर्नाटक में भाषायी अस्मिता की तगड़ी पहचान है। लेकिन वहां अब चुनाव भाषा या अस्मिता के सवाल पर नहीं लड़े जाते। महाराष्ट्र में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना है, जो शिव सेना की कार्बन कॉपी बनने के जुगाड़ में थी। अस्मिता के प्रश्न पर तेलुगुदेशम, या असम गण परिषद् सत्ता में आई थी। लेकिन शिवसेना के शक्ति अर्जन या बाकी के सत्ता में आने के दशक से लेकर अब तक गंगा में काफी पानी बह गया है तो एक सीधा सवाल बनता है कि अस्मिता का प्रश्न अब इन राज्यों से बिहार की तरफ कैसे आ गया।

नीतीश कुमार के खिलाफ बिहार में एक तो सत्ता-विरोधी लहर है ही और हर सत्तारूढ़ पार्टी को इसे झेलना ही होता है। लेकिन वोटों के बिखराव को रोकने के लिए जिसतरह उन्होंने अपने ही धुर विरोधी के साथ कदमताल किया है। गठजोड़ बनाना सामान्य बात है लेकिन फिर ट्विटर पर उनका बयान कि उन्होंने ज़हर पिया है, शायद उनके पक्ष में नहीं रहा। नीतीश के उस बयान को नरेन्द्र मोदी ले उड़े, और गया की रैली में तो उन्होंने मज़ाकिया लहजे में पूछा भी कि आखिर इनमें भुजंग प्रसाद कौन है और चंदन कुमार कौन?

जाहिर है, मोदी विकास के अपने उन सपने के वायदों पर कायम हैं जो उन्होंने बिहार की जनता को लोकसभा चुनाव के दौरान दिए थे। वह कहते भी है कि चुनाव की वजह से हम घोषणा नहीं कर सकते। यानी उनके पत्ते अभी खुले नहीं हैं। लेकिन आंकड़ों में सटीक रहने वाले मोदी बीमारू राज्यों में बिहार की गिनती करते हुए यह भूल गए कि पिछले कुछ साल में बिहार की वृद्धि दर बेहद शानदार रही थी। राष्ट्रीय औसत से काफी बेहतर। लेकिन भावनात्मक मुद्दे उछालने का जो आरोप कभी बीजेपी पर लगता था, वह इस बार जेडी-यू पर लग रहा है।

मोदी ने कहा था लोकतंत्र नीतीश के डीएनए में नहीं है। नीतीश ने उसमें से सिर्फ डीएनए को उठाया। अब वह इस मसले को दलितो-महादलितों को कैसे समझाएंगे? शायद इस तरह कि, केन्द्र से आकर एक प्रधानमंत्री ने बिहारियों को गाली दी है।

लेकिन, नीतीश को पता होगा ही कि बिहारियों को गाली सुनने की आदत है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता में मजूरी कर रहे बिहारियों का अपमान होता रहा है, और 2005 से जब से नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री रहे, उन्होंने बिहार की अस्मिता का सवाल कभी नहीं उठाया था। शक तो जाहिर है होगा ही।

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