Sunday, September 13, 2015

बिहार में तेलंगाना-सा है मिथिला

बिहार के चुनाव की तारीखों की ऐलान हो गया। बिगुल बज गया। जो लोग बहुत दिनों से तारीखों के इंतजार में मुंह बाए बैठे थे, और उनको उनके इंतजार का फल मिल गया।

चुनाव पांच चरणों में होंगे। चार चरणों की पाद-वंदना बाद में, लेकिन अभी मैं जिक्र करना चाह रहा हूं, पांचवे चरण की तरफ। पांचवे दौर में सबसे अधिक 57 सीटों पर वोटिंग होगी और यह इलाका है मिथिला का। लोकसभा के सीटों के मुताबिक कहें तो झंझारपुर, मधुबनी, दरभंगा...और इसके पूरब कटिहार, पूर्णिया, अररिया, मधेपुरा जैसे इलाके। यही इलाका है, जहां यादव-मुस्लिम वोट बाहुल्य में है। हैं तो महादलित और ओबीसी भी, लेकिन समीकरण का सिक्का माई का ही चला।

2014 के लोकसभा चुनाव में झंझारपुर, मधुबनी, दरभंगा पर बीजेपी ने कब्जा किया। यह इलाका ठेठ मिथिला है। उसके पूरब के इलाकों के ज़रिए ही आरजेडी, जेडी-यू, कांग्रेस और एनसीपी ने अपनी इज्जत बचाई थी। इस बार इसी इलाके में असदुद्दीन ओवैसी अपने उम्मीदवार उतारेंगे।

लेकिन मसला सिर्फ जाति आधारित चुनावी चकल्लस ही नहीं है। मुद्दा विकास का भी है। मिथिला के लोगों का रूझान अगर बीजेपी की तरफ हुआ था, तो इसकी वाजिब वजहें भीं हैं। असल में नीतीश कुमार के दस साल ( से कुछ कम) के मुख्यमंत्रित्व काल में मिथिला की ओर उपेक्षा का भाव प्रबल रहा था। बाज़दफ़ा तो मिथिला के लोग नीतीश को नालंदा का मुख्यमंत्री भी कह डालते थे।

हालांकि, मिथिला इलाके की शुरूआत बंगाल की ओर से कटिहार घुसने के साथ ही हो जाती है, जहां आबादी में मुसलमान ज्यादा हैं। कुछ लोगों को ‘मिथिला’शब्द से चिढ़ है, सिर्फ इसलिए क्योंकि इससे उन्हें पौराणिक ब्राह्मणवाद की गंध मिलती हैं। लेकिन सच तो यह है कि मिथिला के प्रतीक मान लिए गए मैथिल ब्राह्मणों से परे इलाके में तकरीबन 24 फीसदी यादव और 15 फीसदी मुसलमानों की आबादी है। अनुसूचित जातियों की तादाद भी काफी है।

पूरा मिथिला क्षेत्रीय विकास के तराजू पर असमानता का शिकार है। मिथिला के किसी भी कोने मे चले जाए, नीतीश कुमार के 11 फीसदी विकास के दावों की पोल खुल जाएगी। गंगा के उत्तर और दक्षिण विकास की सच्चाईयों में जमीन आसमान का फर्क है।

बाढ़ (मोकामा के पास) में एनटीपीसी की योजना से लेकर, नालंदा विश्वविद्यालय तक और आयुध कारखाने से लेकर जलजमाव से मुक्ति की योजनाओं तक में कहीं भी मिथिला के किसी शहर का नाम नहीं है। इन योजनाओं के तहत आने वाले इलाके नीतीश के प्रभाव क्षेत्र वाले इलाके रहे हैं। नीतीश ने अपनी सारी ताकत मगध और भोजपुर में खर्च करने में केन्द्रित कर रखी थी।

इन विकास योजनाओं से किसी किस्म की दिक्कत नहीं होनी चाहिए, लेकिन जब इसी के बरअक्स समस्तीपुर के बंद पड़े अशोक पेपर मिल की याद आती है,जिसे फिर से शुरू करने की योजनाओं को पलीता लगा दिया गया या फिर सड़कों के विकास की ही बात कीजिए तो मिथिला का इलाका उपेक्षित नजर आता है।

इस इलाके के पास एक मात्र योजना है अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की शाखा की। मिथिला में न तो किसी उद्योग की आधारशिला रखी गई है न शैक्षणिक संस्थानों की। सारा कुछ पटना और इसके इर्द-गिर्द समेटा गया है, एम्स, आईआईटी, चंद्रगुप्त प्रबंधन संस्थान और चाणक्य लॉ स्कूल। हाल में धान के भूसे से बिजला का प्रस्ताव गया की ओर मुड़ गया और कोयला आधारित प्रोजेक्ट औरंगाबाद के लिए। ऐसे में मिथिला की हताशा बढ़ती ही गई।

मिथिला के इलाके के पास खूब उपजाऊ जमीन है, संसाधन भी हैं। मानव संसाधन हैं, जो बाहर जाकर औने-पौने दामों में अपना श्रम बेचते हैं। कभी जयनगर या दरभंगा जाने वाली ट्रेनों को देखिए, हमेशा भारी भीड़ यही साबित करती है कि उस इलाके से कितना पलायन दिल्ली और एनसीआर में हुआ है।

सिर्फ विकास ही एक मुद्दा नहीं है। मिथिला की अपनी एक अलग संस्कृति है, भाषा खानपान और रहन-सहन है। मिथिला की जीवनशैली में एक खतरनाक बदलाव आ रहा है। भाषा का बांकपन छीजता जा रहा है। और जिस तेजी से यह बांकपन छीजा है उसी तेजी से वह गढ़ भी टूटा, जो कभी भोगेन्द्र झा जैसे कम्युनिस्ट नेताओं की मजबूत ज़मीन हुआ करती थी। कम्युनिस्टों के बाद सामाजिक न्याय का डंका बजाने वाले और सामाजिक इंजीनियरिंग की बातों के किले बनाने वाले भी आए, लेकिन धैर्यवान और शांत मिथिला ने उन्हें खारिज़ कर दिया।

बात विकास की हो और युवा वर्ग अपने चारों तरफ तेजी से तरक्की हो रहा हो, तो अधीरता बढ़ती ही है। सबसे पहले यह अधीरता चुनावी नतीजों में दिखती है।

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