Monday, November 16, 2015

मिथिला की औद्योगिक उपेक्षा

बिहार में चुनावी यज्ञ अब पूर्णाहुति की तरफ बढ़ रहा है। जम्हूरियत के इस जश्न के दौरान जब मैं यह स्तंभ लिख रहा हूं तो पांचवे चरण का मतदान चल रहा है, और आज के मतदान का प्रतिशत एनडीए और महागठबंधन की चुनावी जीत तय करेगा। ज्याद वोटिंग एनडीए के पक्ष में होगा, साठ फीसद से कम मतदान महागठबंधन के पक्ष में। हालांकि यह आंकड़ा हमेशा सच नहीं होता।

इस चुनाव को कवर करते हुए मैं बिहार के उत्तरी इलाकों में खूब घूमा। मेरी दिलचस्पी इस बात में थी कि आखिर बिहार के लोग बड़े पैमाने पर दूसरो राज्यों की ओर पलायन क्यों करते हैं, और नीतीश कुमारे के दस साल के सुशासन में आखिर उत्तर बिहार को क्या कुछ हासि हुआ। नीतीश जब लालू के जंगल राज के खिलाफ 2005 और 2010 में चुनाव लड़ रहे थे और एऩडीए का हिस्सा थे तब उन्होंने मिथिला के इलाकों में पड़े चीनी मिलों और पेपर मिलों के साथ चावल मिलों के नया जीवन देने का वायदा किया था। एक दशक बाद उत्तर बिहार का औद्योगिक सच जानने में मैं दरभंगा के पास अशोक पेपर मिल पहुंचा था।

असल में, अशोक पेपर मिल मिथिला इलाके के औद्योगीकरण के खत्म होते जाने और उसके साथ ही रोज़गार के साधनों के छीजते जाने की मिसाल है। यह मिल लूट और भ्रष्टाचार के वजह से एक फलते-फूलते उद्योग के मिट जाने की कहानी भी है। बार-बार दोबारा शुरू किए जाने के सियासी वादों और उन वादों के टूटते जाने की भी दास्तान है यह मिल। दरभंगा से करीब नौ किलोमीटर जाने पर एक ढांचा दिखाई देता है, हरे खेतों के बीच खड़ा बड़ा सा कारखाना। पहले जहां मजदूरों की चलह-पहल रहती थी वहां अब भैंसे चरती दिखाई देती हैँ।

इस मिल की स्थापना दरभंगा के महाराज कामेश्वर सिंह ने 1958 में तब की थी जब जमींदारी के खात्मे का बड़ा शोर था और महाराज खुद को एक उद्योगपति-राजनेता में बदल लेने को तत्पर थे। किसानों से जब 400 एकड़ जमीन अधिगृहीत की गई तब रोज़गार और समृद्धि के सपने उन्हें दिखाए गए थे। उस वक्त यह उत्तरी बिहार का पहला और एकमात्र भारी उद्योग था। लेकिन 1963 में इसका लिक्विडेशन शुरू हो गया और सरकार ने 1970 में इसका अधिग्रहण कर लिया। तब असम और बिहार की राज्य सरकारों और केन्द्र ने मिलकर इसको संयुक्त उपक्रम में बदल दिया और वित्त प्रदाता आईडीबीआई ने पूंजी की व्यवस्था की।

अशोक पेपर मिल बेहद उम्दा कागज उत्पादित करता था। लेकिन नौकरशाहीनुमा लचर प्रबंधन और यूनियनबाज़ी की वजह से 1982 में यहां कागज का उत्पादन बंद करना पड़ा। इसके साथ ही 1200 कामगार बेकार हो गए। 1987 में अशोक पेपर मिल को शुरू करने की पहल की, लेकिन अनुदान मिला असम वाली यूनिट की। दरभंगा वाली इकाई यूं ही बंद पड़ी रही।

साल 1997 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इस मिल का निजीकरण कर दिया गया। नोर्बू कैपिटल एंड फिनांस लिमिटेड नाम की कंपनी को बिहार और असम सरकार के हिस्से के 6 करोड़ रूपये 16 किस्तों में चुकाकर अशोक पेपर मिल स्वामित्व मिलना था, लेकिन अद्यतन जानकारी के मुताबिक कंपनी से सिर्फ दो किस्तें जमा कीं। अदालत के आदेश के बावजूद, कंपनी ने कामगारों का पिछला कोई बकाया भुगतान नहीं किया। जबकि अदालत की शर्त थी कि वह मौजूदा 471 कामगारों को काम पर रखते हुए 18 महीने के भीतर उत्पादन का पहला फेज शुरू कर दे। लेकिन पहला फेज कभी शुरू नहीं हुआ, न कामगार रखे गए बल्कि वर्किंग कैपिटल के नाम पर वित्तीय संस्थाओं से 30 करोड़ रूपये की उगाही कर ली गई। शर्त यह भी थी कि कंपनी मिल के परिसर से कोई परिसंपत्ति बाहर नहीं ले जा सकती।

1998 में ट्रायल रन किया गया। इंजीनियरों ने रिपोर्ट दी कि मिल की 95 फीसद मशीनरी दुरुस्त है। इस रिपोर्ट के आधार पर कंपनी ने एक दफा फिर यनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया से 8 करोड़ रूपये वर्किंग कैपिटल के तौर पर उधार ले लिए। तथापि, मरम्मत के बहाने मशीनरी बाहर ले जाकर बेच दी गई। स्थानीय लोग आरोप लगाते हैं कि 6 करोड़ में हासिल किए गए मिल से कंपनी 28 करोड़ कमा चुकी है वह भी सिर्फ मशीनरी को बेचकर। लोग बताते है कि कंपनी ने परिसर के भीतर के ढाई हजार पेड़, डेढ़ किलोमीटर लंबी पानी की पाइप लाईन, रेलवे ट्रैक, और मोटर वगैरह बेच दिए हैं।

मुझे इधर-उधर ताकते हुए देखकर मिल में मौजूद सुरक्षा गार्ड आ जाते हैं। उनके मन में भी इस बात के प्रेस में जाने और फोटो छाप देने पर नौकरी जाने का डर है। मिल के सुरक्षाकर्मी को भी कई सालों से वेतन नहीं मिला है।

राज़ यही खुलता है कि आखिर क्यों मिथिला का नौजवान बिहार से बाहर जाकर औने-पौने दामों में अपनी श्रम बेचने को मजबूर है। साथ ही, बाहरी होने का दंश तो है ही। अपनी ज़मीन जब सियासी और कॉरपोरेट साजिश का शिकार हो, तो झेलेगा तो इलाके का नौजवान ही।

1 comment:

Rishabh Shukla said...

सुन्दर रचना ..........बधाई |
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