सन् 1990 में विश्व बैंक ने एक पहल की थी, दुनिया से गरीबी, घोर गरीबी के उन्मूलन की। और इसके लिए लक्ष्य वर्ष रखा गया था साल 2030 का। और इस लक्ष्य वर्ष से ठीक पंद्रह साल पहले पिछले महीने यानी अक्तूबर में विश्व बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट जारी की और इस बात पर संतुष्टि जताई कि दुनिया में अत्यधिक गरीबों की संख्या अब घट कर दहाई के आंकड़े नीचे यानी 9.6 पर आ गई है। जाहिर है, यह खबर दुनिया के हर आदमी के लिए सुकूनबख्श है। लेकिन इसे उसी रूप में देखा जाना चाहिए, जैसा कि विश्व बैंक दिखाना चाहता है।
वैसे, भारत में गरीबी कितनी कम हुई है इस संबंध में फिलहाल विश्व बैंक ने आंकड़े तो नहीं घोषित किए हैं। लेकिन उसकी टिप्पणी हमें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है।
विश्व बैंक का आरोप है कि भारत अपने गरीबों की संख्या का आकलन बढ़ा-चढ़ा कर करता रहा है। साल 2011-12 में सुरेश तेंदुलकर कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में घोर गरीबी में जीवन बसर करने वालों की संख्या 21.9 फीसद थी, जबकि उसी दौरान रंगराजन कमिटी ने देश में अत्यधिक गरीबों की संख्या 29.5 फीसद बताई थी।
वहीं, इसी बारे में विश्व बैंक का आकलन है कि वर्ष उसी दौर में यानी 2011-12 में भारत की कुल आबादी का महज 12.4 फीसद हिस्सा ही घोर गरीबी, या जिसे हम आप गरीबी रेखा से नीचे कहते हैं, में जी रही थी।
अब सवाल उठता है कि आखिर कौन सा पैमाना है जिसके आधार पर घोर गरीबी में जीवन बसर करने वालों की पहचान हुई, और जिसके आंकड़ो में इतना भारी अंतर आ गया।
भारत में गरीबी का पता लगाने के लिए आंकड़े जुटाने के दो तरीके हैं, पहला है यूनिफार्म रेफरेंस पीरियड (यूआरपी) और दूसरा है, मिक्स्ड रेफरेंस पीरियड (एमआरपी)। साल 1993-94 तक यूनिफार्म रेफरेंस पीरियड (यूआरपी) के तहत डाटा संग्रह किये जाते थे और उसके बाद मिक्स्ड रेफरेंस पीरियड (एमआरपी) के तहत, आंकड़े इकट्ठे किए जाने लगे।
दरअसल, यूआरपी के तहत 30 दिनों के समय में देश भर में एक सर्वे किया जाता था और इस सर्वे में लोगों से उनके उपभोग और खर्च के बारे में पूछकर जानकारी इकट्ठा की जाती थी। जबकि, एमआरपी के तहत देश भर में पूरे साल सर्वे होते थे। उसमें और कई आयाम जुड़े,इसके बाद एक महीने के समय में उसकी समीक्षा कर एक अंतिम आंकड़ा निकाला जाता था।
साल 1999-2000 से एमआरपी के तहत ही डाटा का संग्रह किया जा रहा है। वहीं विश्व बैंक ने आंकड़े जुटाने के लिए मोडिफाइड मिक्स्ड रेफरेंस पीरियड (एमएमआरपी) पद्धति का सहारा लिया। और वर्ष 2011-12 में उसने भारत में जो डाटा संग्रह किया उसके अनुसार देश में घोर गरीबी में जीवन बसर करने वालों की संख्या महज 12.4 प्रतिशत थी।
इस पद्धति में लोगों द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य, कपड़े, उपभोग की सामग्रियों पर उनके द्वारा खर्च की जाने वाली राशि की समीक्षा की गई। ऐसे में गरीबों की संख्या में बड़ा अंतर दिखा। दूसरी ओर अब अगर हम भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की रिपोर्ट पर नजर डालें, तो थोड़ी हैरत जरूर होती है कि आखिर 2004 से लेकर 2012 तक ऐसी कौन सी योजना या प्रयास सरकार का था, जिससे कि गरीबी इतने आश्चर्यजनक ढंग से कम हो गई। अगर आंकड़े सच हो, और यकीन मानिए, मैं इसके लिए प्रार्थना कर रहा हूं, तो इससे बेहतर क्या हो सकता है। लेकिन आंकड़े में अंतर तथा उसकी प्रस्तुति में जल्दबाजी हैरान करने वाली बात है।
आईडीएफसी रुरल डेवलपमेंट नेटवर्क द्वारा तैयार भारतीय ग्रामीण विकास रिपोर्ट 2013-14 का दूसरा संस्करण हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इसके अनुसार देश में वर्ष 2013-14 में अत्यधिक गरीबों की संख्या घटकर 6.84 फीसद तक आ गई है जो कि वर्ष 2004-05 में 16.3 फीसद थी।
इन सबके अलावा एक बात बहुत जोर-शोर से वर्ष 2005 से ही कही जा रही है कि घोर गरीबी में जीने वाला व्यक्ति प्रतिदिन एक डॉलर से भी कम पर गुजारा करता है, लेकिन वर्ष 2011 आते-आते इन गरीबों की खर्च करने की क्षमता बढ़ कर 1.90 डॉलर तक पहुंच गई। हालांकि इसी दौरान 2008 की आर्थिक मंदी ने पूरी दुनिया हिला दिया था। इन सबके बावजूद दक्षिण एशिया और अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्र में गरीबी कम होने के आंकड़े आए हैं।
अब आंकड़ो की बाज़ीगरी और सच्चाई में फर्क क्या है, क्यों है, कैसे है इस सवाल का जवाब या तो वक्त दे सकता है या सक्षम लेकिन विश्व बैंक के ईमानदारी अधिकारी। आंकड़ों में गरीबों की संख्या कम-ज्यादा बताना और इसमें मनमुताबिक हेर-फेर करना ही तो कला है, बाकी तो सब विज्ञान है।
वैसे, भारत में गरीबी कितनी कम हुई है इस संबंध में फिलहाल विश्व बैंक ने आंकड़े तो नहीं घोषित किए हैं। लेकिन उसकी टिप्पणी हमें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है।
विश्व बैंक का आरोप है कि भारत अपने गरीबों की संख्या का आकलन बढ़ा-चढ़ा कर करता रहा है। साल 2011-12 में सुरेश तेंदुलकर कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में घोर गरीबी में जीवन बसर करने वालों की संख्या 21.9 फीसद थी, जबकि उसी दौरान रंगराजन कमिटी ने देश में अत्यधिक गरीबों की संख्या 29.5 फीसद बताई थी।
वहीं, इसी बारे में विश्व बैंक का आकलन है कि वर्ष उसी दौर में यानी 2011-12 में भारत की कुल आबादी का महज 12.4 फीसद हिस्सा ही घोर गरीबी, या जिसे हम आप गरीबी रेखा से नीचे कहते हैं, में जी रही थी।
अब सवाल उठता है कि आखिर कौन सा पैमाना है जिसके आधार पर घोर गरीबी में जीवन बसर करने वालों की पहचान हुई, और जिसके आंकड़ो में इतना भारी अंतर आ गया।
भारत में गरीबी का पता लगाने के लिए आंकड़े जुटाने के दो तरीके हैं, पहला है यूनिफार्म रेफरेंस पीरियड (यूआरपी) और दूसरा है, मिक्स्ड रेफरेंस पीरियड (एमआरपी)। साल 1993-94 तक यूनिफार्म रेफरेंस पीरियड (यूआरपी) के तहत डाटा संग्रह किये जाते थे और उसके बाद मिक्स्ड रेफरेंस पीरियड (एमआरपी) के तहत, आंकड़े इकट्ठे किए जाने लगे।
दरअसल, यूआरपी के तहत 30 दिनों के समय में देश भर में एक सर्वे किया जाता था और इस सर्वे में लोगों से उनके उपभोग और खर्च के बारे में पूछकर जानकारी इकट्ठा की जाती थी। जबकि, एमआरपी के तहत देश भर में पूरे साल सर्वे होते थे। उसमें और कई आयाम जुड़े,इसके बाद एक महीने के समय में उसकी समीक्षा कर एक अंतिम आंकड़ा निकाला जाता था।
साल 1999-2000 से एमआरपी के तहत ही डाटा का संग्रह किया जा रहा है। वहीं विश्व बैंक ने आंकड़े जुटाने के लिए मोडिफाइड मिक्स्ड रेफरेंस पीरियड (एमएमआरपी) पद्धति का सहारा लिया। और वर्ष 2011-12 में उसने भारत में जो डाटा संग्रह किया उसके अनुसार देश में घोर गरीबी में जीवन बसर करने वालों की संख्या महज 12.4 प्रतिशत थी।
इस पद्धति में लोगों द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य, कपड़े, उपभोग की सामग्रियों पर उनके द्वारा खर्च की जाने वाली राशि की समीक्षा की गई। ऐसे में गरीबों की संख्या में बड़ा अंतर दिखा। दूसरी ओर अब अगर हम भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की रिपोर्ट पर नजर डालें, तो थोड़ी हैरत जरूर होती है कि आखिर 2004 से लेकर 2012 तक ऐसी कौन सी योजना या प्रयास सरकार का था, जिससे कि गरीबी इतने आश्चर्यजनक ढंग से कम हो गई। अगर आंकड़े सच हो, और यकीन मानिए, मैं इसके लिए प्रार्थना कर रहा हूं, तो इससे बेहतर क्या हो सकता है। लेकिन आंकड़े में अंतर तथा उसकी प्रस्तुति में जल्दबाजी हैरान करने वाली बात है।
आईडीएफसी रुरल डेवलपमेंट नेटवर्क द्वारा तैयार भारतीय ग्रामीण विकास रिपोर्ट 2013-14 का दूसरा संस्करण हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इसके अनुसार देश में वर्ष 2013-14 में अत्यधिक गरीबों की संख्या घटकर 6.84 फीसद तक आ गई है जो कि वर्ष 2004-05 में 16.3 फीसद थी।
इन सबके अलावा एक बात बहुत जोर-शोर से वर्ष 2005 से ही कही जा रही है कि घोर गरीबी में जीने वाला व्यक्ति प्रतिदिन एक डॉलर से भी कम पर गुजारा करता है, लेकिन वर्ष 2011 आते-आते इन गरीबों की खर्च करने की क्षमता बढ़ कर 1.90 डॉलर तक पहुंच गई। हालांकि इसी दौरान 2008 की आर्थिक मंदी ने पूरी दुनिया हिला दिया था। इन सबके बावजूद दक्षिण एशिया और अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्र में गरीबी कम होने के आंकड़े आए हैं।
अब आंकड़ो की बाज़ीगरी और सच्चाई में फर्क क्या है, क्यों है, कैसे है इस सवाल का जवाब या तो वक्त दे सकता है या सक्षम लेकिन विश्व बैंक के ईमानदारी अधिकारी। आंकड़ों में गरीबों की संख्या कम-ज्यादा बताना और इसमें मनमुताबिक हेर-फेर करना ही तो कला है, बाकी तो सब विज्ञान है।
2 comments:
बेहतरीन विश्लेषण है भाईसाहब। दरअसल गरीब और गरीबी केवल और केवल आँकड़ो का खेल ही है। जिसे संस्थाएँ सियासी हल्कों से मिले निर्देशो के आधार पर खेलती है।
बेहतरीन विश्लेषण है भाईसाहब। दरअसल गरीब और गरीबी केवल और केवल आँकड़ो का खेल ही है। जिसे संस्थाएँ सियासी हल्कों से मिले निर्देशो के आधार पर खेलती है।
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