Monday, January 18, 2016

वन, वनवासी और विस्थापित

एक सवाल हमेशा मुझे मथता रहा है कि जंगल यानी पर्यावरण जरूरी है या विकास। पर्यावरण को बचाने का एक आम मतलब उसमें रहने वाले जानवरों को बचाना भी है। लेकिन कई दफा वन विभाग की कोशिशें अकड़ और ज़िद का रूप ले लेती हैं। सरकारी नियम मर्द की ज़बान वाले क्लीशे कहावत सरीखे होते हैं। मर्द की ज़बान में बदलाव वक्त के साथ हो भी जाए, नियमों में ढील नहीं आती।

आज आपको किस्सा बताता हूं कुनो-पालपुर की सहरिया जनजाति का। श्योपुर-शिवराजपुर जिलों के बीच और राजस्थान के रणथंबौर अभयारण्य से सटे इस जंगल में सहरिया जनजाति रहती आई थी। लेकिन उसे अपने पुरखों की ज़मीन छोड़नी पड़ी, क्योंकि जंगलात का महकमा यहां शेर और चीतों (और हां बाघों को भी) बसाना चाहता है।

मध्य प्रदेश के कुछ इलाकों में फैली इस जनजाति को आदिम काल से जंगल के साथ जीने की आदत थी। श्योपुर के जंगल में इनकी खासी तादाद थी। श्योपुर का जंगल कूनो-पालपुर के नाम से मशहूर हैं। ये शिवपुरी और श्योपुर जिले के बीच है। करीब 344 वर्ग किलोमीटर में। 900 वर्ग किलोमीटर के बफ़र ज़ोन को मिला दें तो कुल इलाका बनता है करीब 1244 वर्ग किलोमीटर का।

असल में, जंगल का ज्यादातर हिस्सा घास का खुला मैदान है...जिसमें यहां-वहां छितराए पेड़ मौजूद हैं। यह रहवास शेरों और तेंदुओं के रहने के मुफीद है।

इस इलाके में पुराने जमाने में शेर रहा भी करते थे। श्‍योपुर में आज भी पत्‍थरों से बने वे पिंजरे सुरक्षित हैं, जिन्‍हें यहां के सिंधिया शासकों ने शेरों के शिकार के लिए बनवाया था।

इन्हीं जंगलों में रहने वाली आदिम जनजाति सहरिया के बारे में कहा जाता है कि जंगल में ये हरिया यानी शेर के साथ रहा करते थे। जंगल में कुछ गांव के खंडहर हैं।

जंगल के भीतर ये गांव सहरिया जनजाति के गांव हैं। ये लोग अपनी जिंदगी सदियों से जंगल के साथ और जंगल के बीच गुज़ार रहे थे।

दस्तावेजों के मुताबिक श्‍योपुर से एशियाटिक शेर 1873 में खत्म हो गए। यहां से खत्म होकर सिंह भले ही गुजरात के गीर तक सिमट गए, लेकिन सहरिया का जंगलों पर आश्रय खत्‍म नहीं हुआ।

वे परंपरागत रूप से वनोपज और खेती करके जंगलों में अपना गुजारा बखूबी कर रहे थे। लेकिन1996 में कूनो पालपुर अभयारण्‍य में एशियाटिक शेरों को फिर से बसाने की योजना बनी। तब यहां के सहरिया लोगों को जंगल से जाना पड़ा।

बहरहाल, अभयारण्य की खातिर एक-एक कर 24 गांवों के 1543 परिवारों को विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा। विस्थापितों में 80 फीसद लोग सहरिया जनजाति के थे। मुआवजे के रूप में हर परिवार को36000 रुपये नकद दिए गए। साथ में दो हेक्‍टेयर जमीन और मकान बनाने के लिए 502 वर्गमीटर ज़मीन दी गई।

हालांकि, 1894 में बने भूमि अधिग्रहण अधिनियम का जोर नुकसान की बजाय नकद मुआवज़े पर था,लेकिन केन्द्र सरकार ने विस्थापितों के हितों की रक्षा के लिए नई राष्ट्रीय नीति रिसेटेलमेंट एवं रिहैबिलिटेशन की घोषणा 2007 में की। इसके तहत जिन परियोजनाओं के तहत मैदानी इलाकों में400 और पहाड़ी इलाकों में 200 परिवार प्रभावित होते हों, वहां विस्थापन के सामाजिक प्रभाव का आकलन किया जाना जरूरी है। इसी अधिनियम में लिखा है कि भूमि का अधिग्रहण बाजार दर पर होगा...अपंग, अनाथ और 50 साल की उम्र से अधिक लोगों को आजीवन पेंशन दी जाएगी।

आंकड़े बताते हैं कि सन् 1950 के बाद से भारत में वन्य जीवों से जुड़ी परियोजनाओं में करीब 6लाख लोग विस्थापित हुए हैं। यह बाकी सभी योजनाओं-परियोजनाओं की वजह से हुए विस्थापन का2.8 फीसद है। इनमें से करीब 21 फीसद यानी 1 लाख 25 हजार लोगों का पुनर्वास किया गया। यानी4 लाख 75 हजार लोगों का पुनर्वास नहीं हो पाया, यह विस्थापित लोगों का करीब 79 प्रतिशत हैं। कुल विस्थापितों में साढ़े 4 लाख लोग जनजाति समुदाय के हैं। यानी करीब 75 फीसद। सिर्फ एक लाख जनजातियों का ही पुनर्वास हो सका, यानी 78 फीसद विस्थापित जनजातियों का पुनर्वास आजतक नहीं हो पाया है।

लेकिन, कूनो पालपुर में यह विस्थापन इस अधिनियम के लागू होने के काफी पहले हो चुका था।

वन्य जीवों को बचाने के लिए सरकार ने काफी कोशिशें की हैं..ऐसा करना जरूरी भी है। विलुप्त होती नस्लों का पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है।

सहरिया जनजाति के लोगों को भी विस्थापन के बदले नकद मुआवज़ा मिला। लेकिन इस मुआवजे के बदले सहरिया को अपने सारे पशुधन, जंगलों से इकट्ठा की जाने वाली गोंद, तेंदूपत्‍तों, सफेद मूसली,कंद, कई तरह की फलियों, सतावर और जंगली भाजी जैसे वनोपजों से महरूम होना पड़ा। सहरिया लोगों के मवेशी आज भी जंगल के भीतर देखे जा सकते हैं। फिलहाल सहरिया के पास न तो जंगल हैं और न ही उनमें मिलने वाली जड़ी-बूटियां।

विस्थापन बुनियादी रूप से त्रासदी ही है, लेकिन जब ये अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान का संकट बन जाए, तब विस्थापन का मतलब होता है जिंदगी उजड़ जाना।

सिर्फ शेरों की नई बसाहट की योजना ने ही सहरिया के 24 गांव विस्थापित नहीं किए, इनमें चीतों और बाघों की भूमिका भी है। अगले हफ्ते मैं शेरो, चीतों, बाघों बनाम सहरिया की इस लड़ाई का सीक्वेल पेश करूंगा।

4 comments:

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "मौत का व्यवसायीकरण - ब्लॉग बुलेटिन" , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

सुनीता अग्रवाल "नेह" said...

विचारणीय किन्तु विचार करने की खबर लेने की फुर्सत किसे हाई जनजातियो के नाम पर आरक्षण की रोटी सेक अपना पेट भरने से नेताओ को सरकारों को फुर्सत मिले तब तो ...

कविता रावत said...

विस्थापन बुनियादी रूप से त्रासदी ही है, लेकिन जब ये अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान का संकट बन जाए, तब विस्थापन का मतलब होता है जिंदगी उजड़ जाना।
..सटीक बात ...जिसका घर उजड़ता है वही उसका दर्द जानता है ..जंगल सहरिया का घर है जिंदगी है, यह बात गंभीरता से समझने की है ...

प्रवीण पाण्डेय said...

इतिहास को दोहराने के प्रयास में जनजातियों का भूगोल बिगाड़ा जा रहा है।