Thursday, April 28, 2016

सूखे की वजह है सूखती परंपराएं

अभी अखबार भरे पड़े हैं, सूखे से जुड़ी खबरों से। आज एक खबर देखी, मय फोटो के। खबर थीः झारखंड के कुछ इलाकों में लोग रेत ढोने वाले ट्रकों से रिसते हुए पानी को बाल्टियों में इकट्ठा कर रहे हैं।

खबरें हैं, और बड़ी हिट खबरें हैं कि सूखा प्रभावित क्षेत्रो में पानी ट्रेन के ज़रिए पहुंचाया जा रहा है। हम मानते हैं कि देश में सूखा बड़ा खतरनाक है। वैज्ञानिक इसका ठीकरा (जाहिर है, वैज्ञानिक तर्को और तथ्यों के साथ) पिछले साल अल नीनो और इस बार ला-नीना पर फोड़ रहे हैं।

मैं अल नीनो और ला-नीना की व्याख्या नहीं करूंगा। जरूरत भी नहीं। लेकिन देश में यह अकाल कोई पहली दफा तो नहीं आय़ा होगा! पानी की जरूरत पूरा करने के लिए हम हमेशा पानी के आयात पर ही क्यों निर्भर रहते हैं?

मित्रों, दुनिया में वॉटरशेड मैनेजमेंट भी एक चीज़ होती है। हिन्दी में इसे जलछाजन प्रबंधन कहते हैं। यह पानी जमा करने की तकनीक है। इस तकनीक में कुछ भी नासा की खोज नहीं है। बहुत मामूली तकनीक है कि किसी भी इलाके के सबसे ऊंचे बिन्दुओं के बीच का इलाका जलछाजन क्षेत्र कहलाता है और इस क्षेत्र में बरसे हुए पानी को जमा करके और उसी के हिसाब से उसको खर्चे करने की कोशिश करनी चाहिए। जलछाजन क्षेत्र में उपलब्ध पानी के ही हिसाब से फसलों का चयन भी करना चाहिए। यानी, यह तकनीक पानी को करीने से खर्च करने की भी बात बताता है।

अब जरा, फसलों के चयन की बात करते हैं। ज़रा बताइए तो, कम पानी के इलाको में धान उगाने की बुद्धि किसने दी थी? पंजाब जैसे कम पानी के इलाके में बासमती क्यों उगाया जाता है? जिस झारखंड के सूखे की बात मैंने बिलकुल शुरू में की है, वहां 170 सेंटीमीटर से अधिक बरसात होती है। कहां जाता है सारा का सारा पानी?

साफ है कि हम सारे पानी को यूं ही बह जाने देते हैं।

सूखे से बचाव के लिए, या खेतों और घरों तक पानी पहुंचाने के लिए बाध बनाकर नहर से पानी पहुंचाना फौरी फायदा दे सकता है। लेकिन, नहरों के किनारे मिट्टी में लवणता भी पैदा होती है। सिंचाई के लिए ट्यूबवैल से पानी खींचेंगे, तो भूमिगत जल का स्तर पाताल जा पहुंचता है। ज़मीन में दरारें फटती हैं। पंजाब, हरियाणा में ऐसी बहुतेरी जगहें हैं जहां जमीन में गहरी दरारें फट गई हैं।

बुंदेलखंड में तालाबों की बड़ी बहूमूल्य परंपरा रही थी, लेकिन आधुनिक होते समाज ने तालाब को पाटने में बड़ी तेजी दिखाई। मदन सागर, कीरत सागर जैसे बड़े तालाब कहां हैं आज बुंदेलखंड में। उनमे गाद भर गई है। गाद हमारे विचारों में भी है इसलिए हमने तालाबों को उनके हाल पर छोड़ दिया है।

खेतों में आहर-पईन की व्यवस्था खत्म हो गई। तो भुगतिए। अब भी देर नहीं हुई है। तालाबों को फिर से जिंदा करने की जरूरत है। नए तालाब खोदने की जरूरत है, लेकिन ठेकेदार के मार्फत नहीं, गंवई तकनीक के ज़रिए। तालाब यानी जलागार, नेष्टा वाला तालाब। जैसलमेर के पास नौ तालाब एक सिलसिलेवार ढंग से बने हैं। यानी एक में पानी जरूरत से ज्यादा हो जाए तो नेष्टा, यानी निकास द्वार के जरिए पानी दूसरे तालाब में जाकर जमा हो।

असल में हमारे पुरखे, बूंद-बूंद पानी की कीमत समझते थे। तभी तो बिहार के लखीसराय के राजा को एक चतुर पंडित ने सूखे के दौरान चतुराई भरी सलाह दी थी। राजा अपनी रानी को अपरूप सुंदर बनाना चाहता था। पंडित ने कहा कि रानी साल में हर रोज अलग-अलग तालाब के पानी से नहाए तो उसके चेहरे की चमक हमेशा बरकरार रहेगी। आनन-फानन में राजा की आज्ञा आई, और लखीसराय के इलाके में तीन सौ पैंसठ तालाब खुद गए।

रानी ताउम्र सुंदर बनी रही कि नहीं पता नहीं। लेकिन उस इलाके को अकाल का कभी सामना नहीं करना पड़ा।

तो बात बड़ी सीधी है। अभी भी यह फैसला लिया जाए कि फसलों को पानी की उपलब्धता के आधार पर उगाया जाएगा। जिस इलाके मे पानी कम है वहां धान उगाने की जिद मत कीजिए। थोड़ी देर बाजार को भूलिए। वैसे भी, ज्वार-बाजरा उगाने और खाने में हेठी है क्या?

बरसात के पानी को इकट्ठा कीजिए। हर घर की छत से पानी बरबाद होता है बरसात में। छत के पानी को जमा कीजिए। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है।

मंजीत ठाकुर