बेहतर जिंदगी की उम्मीद में एक जगह से दूसरे जगह तक जाना, मनुष्य का स्वभाव रहा है। लेकिन आज के संदर्भ में स्थितियां उलट गई हैं। आज पलायन या प्रवास करने वालों की गिनती बहुत अधिक हो गई है। पलायन जहां प्रवास का नकारात्मक नज़रिए की तरफ इशारा करता है वहीं प्रवास अधिक सकारात्मक शब्द है।
आज, गांव से शहरों में आय़ा आदिवासी या दलित जब शहर में आता है तो उसे सांस्कृतिक रूप से एक खाई का सामना करना होता है। शहरों की परंपराएं और जीवन-मूल्य उसके गंवई परंपराओँ से अलग होते हैं। वैसे, पलायनों को कई दफा सकारात्मक भी माना जाता है। आखिर, शहरी उच्च और सुविधाभोगी मध्यवर्ग को
एक ऐसी आबादी चाहिए होती ही है, जो कम लागत पर उसके लिए घरेलू नौकर से लेकर मजदूरों तक का काम निबटाए। ऐसे में तर्क सामने आते हैं कि पलायन को पूरी तरह रोका नहीं जा सकता और ऐसे पलायन को विकासवादी पलायन कहा जाता है। लेकिन सच तो यह है कि यह एक तरह से निराशावादी पलायन है क्योंकि
विकास की धारा में पीछे छूट गए लोग ही शहरों की तरफ पलायन करते हैं।
दिल्ली की ही मिसाल लीजिए। यहां आने वाली आबादी में बिहार से आने वाले छात्र और नौकरीपेशा लोगों के साथ बुंदेलखंड के मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के हिस्सों से आने वाले लोग है। राजस्थान से दिल्ली आए लोग हों, या फिर उत्तराखंड है, यह सब तभी आए हैं जब उन्हें उनकी ज़मीन पर किसी न किसी किस्म की समस्या का सामना करना पड़ा है।
बिहार में शिक्षा की गत बुरी होने के बाद छात्रों ने बड़ी संख्या में दिल्ली का रूख किया था। राजद के शासन के पंद्रह साल के बदतरीन दौर में बिहार प्रतिभाशाली लड़कों का क़ब्रिस्तान जैसा हो गया था और फिर नौकरी के
लिए दिल्ली आने वाले युवाओं की तादाद बढ़ती गई। पिछले दो दशक में दिल्ली में रह रहे प्रवासियों की गिनती करीब 40 लाख के आस-पास पहुंच गई है।
दोनों राज्यों के बुंदेलखंड के लोग पानी और रोज़गार, अकाल और भुखमरी से दिल्ली का रास्ता नापने को मजबूर हुए। मैं यहां सिर्फ दिल्ली की मिसाल दे रहा हूं, इसका मतलब यह नहीं है कि सारे लोग सिर्फ दिल्ली ही आए हैं। ऐसा ही उत्तराखंड और राजस्थान के साथ भी हुआ।
पलायन का यह किस्सा असंतुलित विकास की वजह से हुआ है। देश के समग्र विकास में पीछे छूटे लोग ही पलायन करते हैं। इस विकास में न तो इस छूट गए वर्ग की न तो कोई हिस्सेदारी होती है और न ही कोई भूमिका।
तो सवाल है कि इस समस्या को किस रूप में देखा जाना चाहिए? पहली बात तो यही कि हमें इस बात पर गौर करना चाहिए कि क्या यह पलायन परंपरागत है? या किसी नीतिगत योजना के तहत होने वाला विस्थापन? अगर विस्थापन अपरिहार्य है, बेहद जरूरी ही है तो क्या इसके तहत पुनर्वास की कोशिशें ईमानदार हैं?
इसकी पड़ताल मीडिया को तो करनी ही चाहिए जो अमूमन किसी स्कूप की तलाश में रहता है, साथ ही आला अधिकारियों को भी इसकी जिम्मेदारी लेनी ही चाहिए।
दूसरा सवाल है कि क्या अगर पलायन रोकना मुमकिन नहीं है, तो इसे बेहतर प्रबंधन के ज़रिए नियंत्रित किया जा सकता है? अगर हां, तो कैसे? इसके लिए कौन से राजनीतिक और नीतिगत कदम उठाए जाने चाहिए? आखिर बड़े से बड़े शहर में भी विकास की संभावनाएं एक वक्त के बाद सीमित हो जाती हैं। छोटे शहरों
का ढांचागत विकास इंतजामों के अभाव में रूका पड़ा है। ऐसे में क्या हम इन सीमित शहरी संसाधनों के बूते पलायन को रोक सकते हैं? नहीं। तो इस समस्या के प्रबंधन की दिशा में कारगर बुनियादी नीतियां और व्यवस्थाएं क्या होंगी?
तीसरा सवाल यह है कि क्या महानगरों की तरफ बढ़ते पलायन से वहां के स्थानीय संसाधनों को हक को लेकर वर्ग विशेष के बीच टकराव की स्थिति नहीं बनेगी? जवाब हैः बनेगी। जैसा कि हम महाराष्ट्र खासकर मुंबई में उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को लेकर एक खास मानसिकता वाले लोगों की बातचीत में इस देख ही सकते हैं।
तो क्या पलायन को रोकने के लिए माइक्रो स्तर पर खाद्य सुरक्षा इत्यादि को बढ़ावा देकर और कमजोर तबकों को सामाजार्थिक शोषण से मुक्ति दिलाने के कड़े कदम नहीं उठाए जा सकते हैं? मोदी सरकार ने इस दिशा में कुछ कदम उठाए तो हैं लेकिन उनके नतीजे आने में वक्त लगेगा। और हां, यह काम सिर्फ मनरेगा के ज़रिए नहीं हो सकेगा। स्किल इंडिया के नतीजे आने में पांच साल का वक्त लेगा और अगर देश विनिर्माण में ठीक-ठाक प्रगति कर पाया तो ग्रामीण स्तर पर रोज़गार का प्रबंध हो पाएगा।
फिलहाल, तो बुंदेलखंड हो या बिहार का ठेठ गंवई शख्स, पलायन के बाद उसके लिए शहरी उपभोक्तावाद के नए झमेले में फंसने के सिवा कोई चारा नहीं, जो उनकी तहज़ीब, उनकी परंपराओं, मूल्यों सबको एक साथ लील रहा है। और हर चीज़ से महरूम यही शख्स हमारे-आपके यहां का शहरी गरीब है, जिसके शोषण का सिलसिला गांवों में होने वाले जातिवादी शोषण से कम खतरनाक नहीं।
आज, गांव से शहरों में आय़ा आदिवासी या दलित जब शहर में आता है तो उसे सांस्कृतिक रूप से एक खाई का सामना करना होता है। शहरों की परंपराएं और जीवन-मूल्य उसके गंवई परंपराओँ से अलग होते हैं। वैसे, पलायनों को कई दफा सकारात्मक भी माना जाता है। आखिर, शहरी उच्च और सुविधाभोगी मध्यवर्ग को
एक ऐसी आबादी चाहिए होती ही है, जो कम लागत पर उसके लिए घरेलू नौकर से लेकर मजदूरों तक का काम निबटाए। ऐसे में तर्क सामने आते हैं कि पलायन को पूरी तरह रोका नहीं जा सकता और ऐसे पलायन को विकासवादी पलायन कहा जाता है। लेकिन सच तो यह है कि यह एक तरह से निराशावादी पलायन है क्योंकि
विकास की धारा में पीछे छूट गए लोग ही शहरों की तरफ पलायन करते हैं।
दिल्ली की ही मिसाल लीजिए। यहां आने वाली आबादी में बिहार से आने वाले छात्र और नौकरीपेशा लोगों के साथ बुंदेलखंड के मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के हिस्सों से आने वाले लोग है। राजस्थान से दिल्ली आए लोग हों, या फिर उत्तराखंड है, यह सब तभी आए हैं जब उन्हें उनकी ज़मीन पर किसी न किसी किस्म की समस्या का सामना करना पड़ा है।
बिहार में शिक्षा की गत बुरी होने के बाद छात्रों ने बड़ी संख्या में दिल्ली का रूख किया था। राजद के शासन के पंद्रह साल के बदतरीन दौर में बिहार प्रतिभाशाली लड़कों का क़ब्रिस्तान जैसा हो गया था और फिर नौकरी के
लिए दिल्ली आने वाले युवाओं की तादाद बढ़ती गई। पिछले दो दशक में दिल्ली में रह रहे प्रवासियों की गिनती करीब 40 लाख के आस-पास पहुंच गई है।
दोनों राज्यों के बुंदेलखंड के लोग पानी और रोज़गार, अकाल और भुखमरी से दिल्ली का रास्ता नापने को मजबूर हुए। मैं यहां सिर्फ दिल्ली की मिसाल दे रहा हूं, इसका मतलब यह नहीं है कि सारे लोग सिर्फ दिल्ली ही आए हैं। ऐसा ही उत्तराखंड और राजस्थान के साथ भी हुआ।
पलायन का यह किस्सा असंतुलित विकास की वजह से हुआ है। देश के समग्र विकास में पीछे छूटे लोग ही पलायन करते हैं। इस विकास में न तो इस छूट गए वर्ग की न तो कोई हिस्सेदारी होती है और न ही कोई भूमिका।
तो सवाल है कि इस समस्या को किस रूप में देखा जाना चाहिए? पहली बात तो यही कि हमें इस बात पर गौर करना चाहिए कि क्या यह पलायन परंपरागत है? या किसी नीतिगत योजना के तहत होने वाला विस्थापन? अगर विस्थापन अपरिहार्य है, बेहद जरूरी ही है तो क्या इसके तहत पुनर्वास की कोशिशें ईमानदार हैं?
इसकी पड़ताल मीडिया को तो करनी ही चाहिए जो अमूमन किसी स्कूप की तलाश में रहता है, साथ ही आला अधिकारियों को भी इसकी जिम्मेदारी लेनी ही चाहिए।
दूसरा सवाल है कि क्या अगर पलायन रोकना मुमकिन नहीं है, तो इसे बेहतर प्रबंधन के ज़रिए नियंत्रित किया जा सकता है? अगर हां, तो कैसे? इसके लिए कौन से राजनीतिक और नीतिगत कदम उठाए जाने चाहिए? आखिर बड़े से बड़े शहर में भी विकास की संभावनाएं एक वक्त के बाद सीमित हो जाती हैं। छोटे शहरों
का ढांचागत विकास इंतजामों के अभाव में रूका पड़ा है। ऐसे में क्या हम इन सीमित शहरी संसाधनों के बूते पलायन को रोक सकते हैं? नहीं। तो इस समस्या के प्रबंधन की दिशा में कारगर बुनियादी नीतियां और व्यवस्थाएं क्या होंगी?
तीसरा सवाल यह है कि क्या महानगरों की तरफ बढ़ते पलायन से वहां के स्थानीय संसाधनों को हक को लेकर वर्ग विशेष के बीच टकराव की स्थिति नहीं बनेगी? जवाब हैः बनेगी। जैसा कि हम महाराष्ट्र खासकर मुंबई में उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को लेकर एक खास मानसिकता वाले लोगों की बातचीत में इस देख ही सकते हैं।
तो क्या पलायन को रोकने के लिए माइक्रो स्तर पर खाद्य सुरक्षा इत्यादि को बढ़ावा देकर और कमजोर तबकों को सामाजार्थिक शोषण से मुक्ति दिलाने के कड़े कदम नहीं उठाए जा सकते हैं? मोदी सरकार ने इस दिशा में कुछ कदम उठाए तो हैं लेकिन उनके नतीजे आने में वक्त लगेगा। और हां, यह काम सिर्फ मनरेगा के ज़रिए नहीं हो सकेगा। स्किल इंडिया के नतीजे आने में पांच साल का वक्त लेगा और अगर देश विनिर्माण में ठीक-ठाक प्रगति कर पाया तो ग्रामीण स्तर पर रोज़गार का प्रबंध हो पाएगा।
फिलहाल, तो बुंदेलखंड हो या बिहार का ठेठ गंवई शख्स, पलायन के बाद उसके लिए शहरी उपभोक्तावाद के नए झमेले में फंसने के सिवा कोई चारा नहीं, जो उनकी तहज़ीब, उनकी परंपराओं, मूल्यों सबको एक साथ लील रहा है। और हर चीज़ से महरूम यही शख्स हमारे-आपके यहां का शहरी गरीब है, जिसके शोषण का सिलसिला गांवों में होने वाले जातिवादी शोषण से कम खतरनाक नहीं।
मंजीत ठाकुर
1 comment:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " दिल धड़कने दो ... " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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