भारत एक मात्र देश है जहां क्रिकेट की देखरेख करने वाली संस्था क्रिकेट को कंट्रोल करती है। आखिर, बीसीसीआई का पूरा नाम भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड है। देश की सबसे धनी खेल संस्था कालिख पुतकर बाहर निकली थी जब खेल पर सट्टेबाज़ी का साया था और उसके पास पूरा मौका था कि वह सुधरने की पहल करता। तब वह देश की दूसरी खेल संस्थाओं के सामने पारदर्शिता और जवाबदेही की मिसाल बन जाता। नब्बे के दशक के बाद से ही मैच फिक्सिंग, हितों के टकराव और आईपीएल में गड़बड़ियों की शिकायत के बाद से साफ-सफाई की जरूरत सिरे से महसूस की ही जा रही थी।
जस्टिस मुकुल मुद्गल समिति की रिपोर्ट के बाद मामला शीशे की तरह साफ था। बाद में, जस्टिस आरएम लोढ़ा समिति की रिपोर्ट आई, वह क्रिकेट की सफाई के लिए थी लेकिन बीसीसीआई को उस पर भारी एतराज था। हो भी क्यों न, दशकों से क्रिकेट के प्रशासन पर कब्जा किए नेता-नौकरशाह-प्रशासकों को क्रिकेट में विकेट के 22 गज का होने के सिवा सिर्फ रूपयों का लेन-देन ही तो आता है। वरना उनमें से कोई भी यह बता दे कि क्रिकेट की गेंद का वज़न कितना होता है? और उसकी परिधि कितनी होती है?
अब सुप्रीम कोर्ट ने लोढ़ा समिति की अधिकांश सिफारिशों को लागू करने के आदेश दिए हैं। अब बीसीसीआई के सामने आदेश मानने के सिवा कोई चारा नहीं। लेकिन बीसीसीआई को सूचना के अधिकार के तहत लाने और सट्टेबाज़ी को कानूनी रूप देने की समिति की सिफारिशों को सुप्रीम कोर्ट ने संसद पर छोड़ दिया है।
अब हम जैसे क्रिकेट प्रेमियों और दीवानों की उम्मीद है कि इन उपायों से क्रिकेट प्रशासन में बदलाव आएंगे। मसलन, अब आईपीएल को बीसीसीआई के नियंत्रण से अलग करना होगा, कोई मंत्री या नौकरशाह बीसीसीआई का सदस्य नहीं रहेगा, 70 साल से अधिक के व्यक्ति बीसीसीआई के पदाधिकारी नहीं बन सकेंगे और हर राज्य को बीसीसीआई में सिर्फ एक वोट देने का हक होगा। इसतरह बोर्ड पर गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों का अतिरिक्त प्रभाव खत्म होगा। गुजरात के पास बीसीसीआई में तीन और महाराष्ट्र में चार वोट हैं। बिहार के पास एक वोट और झारखंड के पास तो वह भी नहीं है।
साफ है, बीसीसीआई के रसूखदार और मनमाने ढंग से चलाने वाले लोग अब इसको चला नहीं पाएंगे।
वैसे, सरकार एक कानून बनाने की तैयारी मे तो रही लेकिन हुआ कुछ नहीं। वैसे डेढ़ दशक पहले जब दक्षिण अफ्रीका के कप्तान हैंसी क्रोनिये पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगा था, तब 2001 में प्रिवेंशन ऑफ डिसऑनेस्टी इन स्पोर्ट्स बिल तैयार किया गया था, किंतु कुछ दिन बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। बता तो चुका ही हूं कि उस आरोप को डेढ़ दशक बीत गए, हुआ कुछ नहीं।
यूरोप की तरह हमारे देश में खेलों पर सट्टा नहीं लगाया जा सकता। फिक्की का अनुमान है कि भारत में हर साल सिर्फ क्रिकेट पर तीन लाख करोड़ का सट्टा लगता है, जो देश में काले धन का सबसे बड़ा ज़रिया है। अलग कानून न होने से सट्टेबाजों पर धोखाधड़ी और आपराधिक षड्यंत्र की धाराओं के तहत मुकदमा चलाया जाता है। ऐसे में वे अकसर बच जाते हैं या मामूली सजा पाकर छूट जाते हैं।
याद दिला दूं कि देशभर के खेल संगठनों की जवाबदेही तय करने और उनके चुनाव निष्पक्ष कराने के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने स्पोर्ट्स डेवलपमेंट बिल पारित कराने का प्रयास किया था। इस बिल में बीसीसीआई को सूचना के अधिकार के तहत लाने का प्रावधान भी था, जिसका तब के कैबिनेट के करीब आधा दर्जन मंत्रियों ने कड़ा विरोध किया। ये सभी मंत्री सीधे-सीधे बीसीसीआई से जुड़े थे और किसी भी सूरत में देश के सबसे धनी खेल संगठन को जवाबदेही और पारदर्शिता की ज़द में लाने को राजी नहीं थे। लेकिन अब यदि सरकार पुराना विधेयक ही ले आए, तब उसका खुलेआम विरोध करने का साहस शायद ही कोई नेता कर पाए।
बताते चलें कि बीसीसीआई एक गैर-मुनाफे वाली निजी संस्था के तौर पर रजिस्टर्ड है, जिसका संचालन गैर-पेशेवर लोगों के हाथों में है। संस्था निजी है फिर भी जो टीम चुनती है, वह भारतीय क्रिकेट टीम कहलाती है। हिंदुस्तान दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जिसके खिलाड़ी अपनी टोपी पर राष्ट्रीय चिह्न नहीं, बीसीसीआई का लोगो लगाते हैं। बोर्ड का मकसद मुनाफा कमाना नहीं है, फिर भी उसके खाते में अरबों रुपये हैं। वह हर साल अपनी इकाइयों को करोड़ों रूपये बांटता है, फिर भी उसकी दौलत बढ़ती जाती है।
जिस अनुपात में बोर्ड का मुनाफा बढ़ रहा है, उसी अनुपात में नेताओं और उद्योगपतियों की क्रिकेट में दिलचस्पी बढ़ रही है और इसी हिसाब से झगड़ों में इजाफा भी हो रहा है। अब बड़े मंत्रियों-नेताओ-नौकरशाहों में इतना अधिक क्रिकेट को लेकर दिलचस्पी इसी रूपये को लेकर है। सौरभ-सचिन-लक्ष्मण की तिकड़ी ने क्रिकेट का कोच चुनने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वक्त आ गया है कि खेल से जुड़े लोगों को ही अब बीसीसीआई चलाने की जिम्मेदारी भी दी जाए।
अब सुप्रीम कोर्ट ने लोढ़ा समिति की अधिकांश सिफारिशों को लागू करने के आदेश दिए हैं। अब बीसीसीआई के सामने आदेश मानने के सिवा कोई चारा नहीं। लेकिन बीसीसीआई को सूचना के अधिकार के तहत लाने और सट्टेबाज़ी को कानूनी रूप देने की समिति की सिफारिशों को सुप्रीम कोर्ट ने संसद पर छोड़ दिया है।
अब हम जैसे क्रिकेट प्रेमियों और दीवानों की उम्मीद है कि इन उपायों से क्रिकेट प्रशासन में बदलाव आएंगे। मसलन, अब आईपीएल को बीसीसीआई के नियंत्रण से अलग करना होगा, कोई मंत्री या नौकरशाह बीसीसीआई का सदस्य नहीं रहेगा, 70 साल से अधिक के व्यक्ति बीसीसीआई के पदाधिकारी नहीं बन सकेंगे और हर राज्य को बीसीसीआई में सिर्फ एक वोट देने का हक होगा। इसतरह बोर्ड पर गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों का अतिरिक्त प्रभाव खत्म होगा। गुजरात के पास बीसीसीआई में तीन और महाराष्ट्र में चार वोट हैं। बिहार के पास एक वोट और झारखंड के पास तो वह भी नहीं है।
साफ है, बीसीसीआई के रसूखदार और मनमाने ढंग से चलाने वाले लोग अब इसको चला नहीं पाएंगे।
वैसे, सरकार एक कानून बनाने की तैयारी मे तो रही लेकिन हुआ कुछ नहीं। वैसे डेढ़ दशक पहले जब दक्षिण अफ्रीका के कप्तान हैंसी क्रोनिये पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगा था, तब 2001 में प्रिवेंशन ऑफ डिसऑनेस्टी इन स्पोर्ट्स बिल तैयार किया गया था, किंतु कुछ दिन बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। बता तो चुका ही हूं कि उस आरोप को डेढ़ दशक बीत गए, हुआ कुछ नहीं।
यूरोप की तरह हमारे देश में खेलों पर सट्टा नहीं लगाया जा सकता। फिक्की का अनुमान है कि भारत में हर साल सिर्फ क्रिकेट पर तीन लाख करोड़ का सट्टा लगता है, जो देश में काले धन का सबसे बड़ा ज़रिया है। अलग कानून न होने से सट्टेबाजों पर धोखाधड़ी और आपराधिक षड्यंत्र की धाराओं के तहत मुकदमा चलाया जाता है। ऐसे में वे अकसर बच जाते हैं या मामूली सजा पाकर छूट जाते हैं।
याद दिला दूं कि देशभर के खेल संगठनों की जवाबदेही तय करने और उनके चुनाव निष्पक्ष कराने के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने स्पोर्ट्स डेवलपमेंट बिल पारित कराने का प्रयास किया था। इस बिल में बीसीसीआई को सूचना के अधिकार के तहत लाने का प्रावधान भी था, जिसका तब के कैबिनेट के करीब आधा दर्जन मंत्रियों ने कड़ा विरोध किया। ये सभी मंत्री सीधे-सीधे बीसीसीआई से जुड़े थे और किसी भी सूरत में देश के सबसे धनी खेल संगठन को जवाबदेही और पारदर्शिता की ज़द में लाने को राजी नहीं थे। लेकिन अब यदि सरकार पुराना विधेयक ही ले आए, तब उसका खुलेआम विरोध करने का साहस शायद ही कोई नेता कर पाए।
बताते चलें कि बीसीसीआई एक गैर-मुनाफे वाली निजी संस्था के तौर पर रजिस्टर्ड है, जिसका संचालन गैर-पेशेवर लोगों के हाथों में है। संस्था निजी है फिर भी जो टीम चुनती है, वह भारतीय क्रिकेट टीम कहलाती है। हिंदुस्तान दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जिसके खिलाड़ी अपनी टोपी पर राष्ट्रीय चिह्न नहीं, बीसीसीआई का लोगो लगाते हैं। बोर्ड का मकसद मुनाफा कमाना नहीं है, फिर भी उसके खाते में अरबों रुपये हैं। वह हर साल अपनी इकाइयों को करोड़ों रूपये बांटता है, फिर भी उसकी दौलत बढ़ती जाती है।
जिस अनुपात में बोर्ड का मुनाफा बढ़ रहा है, उसी अनुपात में नेताओं और उद्योगपतियों की क्रिकेट में दिलचस्पी बढ़ रही है और इसी हिसाब से झगड़ों में इजाफा भी हो रहा है। अब बड़े मंत्रियों-नेताओ-नौकरशाहों में इतना अधिक क्रिकेट को लेकर दिलचस्पी इसी रूपये को लेकर है। सौरभ-सचिन-लक्ष्मण की तिकड़ी ने क्रिकेट का कोच चुनने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वक्त आ गया है कि खेल से जुड़े लोगों को ही अब बीसीसीआई चलाने की जिम्मेदारी भी दी जाए।
मंजीत ठाकुर
No comments:
Post a Comment