दिल्ली में ज़हरीला कोहला हटने या छंटने के हफ्ते भर बाद मैं अगर इसकी बात करूं, तो आप ज़रूर सोचेंगे कि मैं सांप निकलने के बाद लकीर पीटने जैसा काम कर रहा हूं। लेकिन, यकीन मानिए, प्रदूषण एक ऐसी समस्या है, जिसमें चिड़िया के खेत चुग जाने जैसी कहावत सच भी है, लेकिन देर भी नहीं हुई है।
अब जरा गौर कीजिए, दिल्ली में दीवाली की रात के बाद, अगली सुबह से ही घना स्मॉग छाया रहा, लेकिन इस मुद्दे पर दिल्ली सरकार की कैबिनेट बैठक ठीक सातवें दिन हुई। दिल्ली सरकार जागी भी तब, जब अदालत, केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय, दिल्ली के लेफ्टिनेंट जनरल और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने उसे कसकर झाड़ लगाई।
यह ठीक है कि प्रदूषण के मसले पर दिल्ली सरकार अकेले कुछ नहीं कर सकती। न तो वह लोगों को पटाखे और आतिशबाज़ियों से रोक सकती है न पंजाब-हरियाणा से आने वाले पराली के धुएं को। लेकिन दिल्ली में—और देश के हर हिस्से में—दीवाली हर साल आती है, आतिशबाज़ियां हर साल होती है, पंजाब-हरियाणा के किसानों ने अपने खेतों में धान की फसल की खूंटियां या ठूंठ पहली बार नहीं जलाए थे, तो इस परिस्थिति में जो कदम केजरीवाल सरकार ने प्रदूषण भरे खतरनाक और ज़हरीले हफ्ते के बाद उठाने की घोषणा की, वह दीवाली से हफ्ते भर पहले भी कर सकती थी।
मिसाल के तौर पर, सरकार ने स्कूलों को बंद कर दिया। लेकिन, सरकार स्कूली बच्चों में पटाखे न चलाने की जागरूकता फैला सकती थी। दिल्ली सरकार ने कहा कि इलाके में निर्माण कार्य अगले पांच दिन तक बंद रहेंगे और तमाम डंपिंग ग्राउंड से निकलने वाले धुएं पर नज़र रखी जाएगी। यह कदम दीवाली से पहले उठाए जा सकते थे और सच तो यह है कि केजरीवाल ने इस प्रदूषण के लिए सिर्फ पड़ोसी राज्यों से आ रहे धुएं को जिम्मेदार बता दिया। जबकि उपग्रह की तस्वीरों ने साफ कर दिया कि दिल्ली में फैला जहरीले धुएं के महज बीस फीसद हिस्सा ही पड़ोसी राज्यों का है।
मुझसे एक दोस्त ने कहा कि सुबह-सुबह जो धुंध दिल्ली की फिज़ाओं में तैर रहा है वह असल में है क्या। असल में, कोहरा ज़मीन की सतह के आसपास तैर रहा एक तरह का बादल ही है। भौगोलिक परिभाषाओं के तहत देखें तो यह दो तरह से बनते हैं। अव्वल, जब गर्म हवा नम सतह के ऊपर से गुज़रती है तो कोहरा बनता है। ऐसा समुद्री किनारों के आसपास के इलाकों में होता है। दोयम, जब धरती की सतह यानी ज़मीन अचानक ठंडी हो जाए तो हवा में मौजूद नमी कोहरे में बदल जाती है। लेकिन इन दोनों ही परिस्थितियों के लिए हवा में आपेक्षिक आर्द्रता यानी हवा में मौजूद पानी या नमी, की मात्रा सौ होनी चाहिए। दिल्ली में यह दोनों ही परिस्थितिया मौजूद नहीं थी। लेकिन याद रखिए, एक तीसरी भी परिस्थिति है, जिसमें हवा में सौ फीसद नमी नहीं होने पर भी कोहरा बन सकता है और वह हैः हवा में धुआं, धूल, एयरोसोल, हाइड्रोकार्बन जैसी चीज़ों का बड़ी मात्रा में मौजूद होना। ऐसे में नमी इसके चारों तरफ जमा होकर पानी की महीन बूंदें बना लेती हैं और धुएं या धूल के चारों तरफ पानी की यह महीन बूंदे हमारी सेहत के लिए बेहद खतरनाक होती हैं। यही स्मॉग है।
इस स्मॉग के चपेट में लंबे समय तक रहने पर अल्पकालिक नुकसान यह है कि आपको आंखों में जलन हो सकती है, गले में खराश, जुकाम जैसा महसूस होना, आंख से लगातार आंसू आने लग सकते हैं। दमे और सांस की बीमारी से ग्रस्त लोगों के लिए स्मॉग बहुत पीड़ादायी भी है और खतरनाक भी। दीर्घकालिक रूप में यह स्मॉग कैंसर पैदा कर सकता है, मांओं की कोख में पल रहे भ्रूण को स्थायी रूप से नुकसान पहुंचा सकता है।
दीवाली के अगल दिन दिल्ली की हवा में पार्टिक्युलेय मटिरियल 2.5 (यानी हवा में घुले बेहद महीन कणों) की मात्रा 153 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन, डब्ल्यूएचओ, का सुरक्षित मानक 6 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर है। सोचिए, हम और आप दिल्ली की हवा में सांस लेते वक्त करीब 40 सिगरेट रोज़ फूंक रहे है। और हम-आप ही नहीं, आपकी नवजात बच्ची और अस्सी बरस के पिता भी।
वैसे भी, दिल्ली के मौकापरस्त व्यापारियों ने मास्क की कालाबाज़ारी भी शुरू कर दी। पांच रूपये के मास्क साठ रूपये तक बिके। ज्यादा कीमता वाली मास्क की बात ही क्या। कोई हैरत नहीं, कि कुछ लोग साफ हवा की पैकेजिंग शुरू कर दें।
बहरहाल, प्रदूषण दिल्ली का स्थायी चरित्र है। और दिल्ली का ही क्यों, लखनऊ, पटना, बंगलोर हो या बनारस, कानपुर, गाजियाबाद...प्रदूषण ने जीना मुश्किल कर दिया है। इससे निपटने के लिए ऑड-इवन जैसे शेखचिल्ली उपायों पर भरोसा करना ठीक नहीं।
दिल्ली की हवा में धूलकणों की मात्रा काफी ज्यादा होती है। इस पर रोक लगाना जरूरी है। दूसरी तरफ सार्वजनिक परिवहन को विकसित और विस्तारित किए बिना आप वाहनों से निकलने वाले हाइड्रोकार्बन पर रोक लगा नहीं सकते।
दिल्ली जैसे शहर में, जहां फ़ी आदमी एक कार होना, स्टेटस सिंबल हो, शान की बात हो और जहां एक कार में एक आदमी सफर करता हो, वहां वायु प्रदूषण पर रोक लगाना वाकई टेढ़ी खीर है।
पर्यावरण को बचाने के नाम पर हम अधिक पेड़ लगाने पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। यकीन मानिए, यह छोटा उपाय है। अधिक हरियाली लेकिन छितराई हुई हरियाली से कुछ ज्यादा भला नहीं होगा। टोटल ग्रीन एरिया बढ़ने का फायदा उतना नहीं होगा। जंगल बचाने होंगे। जंगल ही जैव-विविधता का भंडार भी है और वन्य जीवों का रहवास भी।
दिल्ली हो या देश के बाकी शहर, हवा को बचाइए। अगली दीवाली के लिए, अगली पीढ़ियों के लिए। वरना, किसी को अच्छा नहीं लगेगा जब उसका बच्चा खांसता रहेगा और स्कूल जाने के लिए घऱ से चेहरे पर मास्क लगाकर निकलेगा।
अब जरा गौर कीजिए, दिल्ली में दीवाली की रात के बाद, अगली सुबह से ही घना स्मॉग छाया रहा, लेकिन इस मुद्दे पर दिल्ली सरकार की कैबिनेट बैठक ठीक सातवें दिन हुई। दिल्ली सरकार जागी भी तब, जब अदालत, केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय, दिल्ली के लेफ्टिनेंट जनरल और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने उसे कसकर झाड़ लगाई।
यह ठीक है कि प्रदूषण के मसले पर दिल्ली सरकार अकेले कुछ नहीं कर सकती। न तो वह लोगों को पटाखे और आतिशबाज़ियों से रोक सकती है न पंजाब-हरियाणा से आने वाले पराली के धुएं को। लेकिन दिल्ली में—और देश के हर हिस्से में—दीवाली हर साल आती है, आतिशबाज़ियां हर साल होती है, पंजाब-हरियाणा के किसानों ने अपने खेतों में धान की फसल की खूंटियां या ठूंठ पहली बार नहीं जलाए थे, तो इस परिस्थिति में जो कदम केजरीवाल सरकार ने प्रदूषण भरे खतरनाक और ज़हरीले हफ्ते के बाद उठाने की घोषणा की, वह दीवाली से हफ्ते भर पहले भी कर सकती थी।
मिसाल के तौर पर, सरकार ने स्कूलों को बंद कर दिया। लेकिन, सरकार स्कूली बच्चों में पटाखे न चलाने की जागरूकता फैला सकती थी। दिल्ली सरकार ने कहा कि इलाके में निर्माण कार्य अगले पांच दिन तक बंद रहेंगे और तमाम डंपिंग ग्राउंड से निकलने वाले धुएं पर नज़र रखी जाएगी। यह कदम दीवाली से पहले उठाए जा सकते थे और सच तो यह है कि केजरीवाल ने इस प्रदूषण के लिए सिर्फ पड़ोसी राज्यों से आ रहे धुएं को जिम्मेदार बता दिया। जबकि उपग्रह की तस्वीरों ने साफ कर दिया कि दिल्ली में फैला जहरीले धुएं के महज बीस फीसद हिस्सा ही पड़ोसी राज्यों का है।
मुझसे एक दोस्त ने कहा कि सुबह-सुबह जो धुंध दिल्ली की फिज़ाओं में तैर रहा है वह असल में है क्या। असल में, कोहरा ज़मीन की सतह के आसपास तैर रहा एक तरह का बादल ही है। भौगोलिक परिभाषाओं के तहत देखें तो यह दो तरह से बनते हैं। अव्वल, जब गर्म हवा नम सतह के ऊपर से गुज़रती है तो कोहरा बनता है। ऐसा समुद्री किनारों के आसपास के इलाकों में होता है। दोयम, जब धरती की सतह यानी ज़मीन अचानक ठंडी हो जाए तो हवा में मौजूद नमी कोहरे में बदल जाती है। लेकिन इन दोनों ही परिस्थितियों के लिए हवा में आपेक्षिक आर्द्रता यानी हवा में मौजूद पानी या नमी, की मात्रा सौ होनी चाहिए। दिल्ली में यह दोनों ही परिस्थितिया मौजूद नहीं थी। लेकिन याद रखिए, एक तीसरी भी परिस्थिति है, जिसमें हवा में सौ फीसद नमी नहीं होने पर भी कोहरा बन सकता है और वह हैः हवा में धुआं, धूल, एयरोसोल, हाइड्रोकार्बन जैसी चीज़ों का बड़ी मात्रा में मौजूद होना। ऐसे में नमी इसके चारों तरफ जमा होकर पानी की महीन बूंदें बना लेती हैं और धुएं या धूल के चारों तरफ पानी की यह महीन बूंदे हमारी सेहत के लिए बेहद खतरनाक होती हैं। यही स्मॉग है।
इस स्मॉग के चपेट में लंबे समय तक रहने पर अल्पकालिक नुकसान यह है कि आपको आंखों में जलन हो सकती है, गले में खराश, जुकाम जैसा महसूस होना, आंख से लगातार आंसू आने लग सकते हैं। दमे और सांस की बीमारी से ग्रस्त लोगों के लिए स्मॉग बहुत पीड़ादायी भी है और खतरनाक भी। दीर्घकालिक रूप में यह स्मॉग कैंसर पैदा कर सकता है, मांओं की कोख में पल रहे भ्रूण को स्थायी रूप से नुकसान पहुंचा सकता है।
दीवाली के अगल दिन दिल्ली की हवा में पार्टिक्युलेय मटिरियल 2.5 (यानी हवा में घुले बेहद महीन कणों) की मात्रा 153 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन, डब्ल्यूएचओ, का सुरक्षित मानक 6 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर है। सोचिए, हम और आप दिल्ली की हवा में सांस लेते वक्त करीब 40 सिगरेट रोज़ फूंक रहे है। और हम-आप ही नहीं, आपकी नवजात बच्ची और अस्सी बरस के पिता भी।
वैसे भी, दिल्ली के मौकापरस्त व्यापारियों ने मास्क की कालाबाज़ारी भी शुरू कर दी। पांच रूपये के मास्क साठ रूपये तक बिके। ज्यादा कीमता वाली मास्क की बात ही क्या। कोई हैरत नहीं, कि कुछ लोग साफ हवा की पैकेजिंग शुरू कर दें।
बहरहाल, प्रदूषण दिल्ली का स्थायी चरित्र है। और दिल्ली का ही क्यों, लखनऊ, पटना, बंगलोर हो या बनारस, कानपुर, गाजियाबाद...प्रदूषण ने जीना मुश्किल कर दिया है। इससे निपटने के लिए ऑड-इवन जैसे शेखचिल्ली उपायों पर भरोसा करना ठीक नहीं।
दिल्ली की हवा में धूलकणों की मात्रा काफी ज्यादा होती है। इस पर रोक लगाना जरूरी है। दूसरी तरफ सार्वजनिक परिवहन को विकसित और विस्तारित किए बिना आप वाहनों से निकलने वाले हाइड्रोकार्बन पर रोक लगा नहीं सकते।
दिल्ली जैसे शहर में, जहां फ़ी आदमी एक कार होना, स्टेटस सिंबल हो, शान की बात हो और जहां एक कार में एक आदमी सफर करता हो, वहां वायु प्रदूषण पर रोक लगाना वाकई टेढ़ी खीर है।
पर्यावरण को बचाने के नाम पर हम अधिक पेड़ लगाने पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। यकीन मानिए, यह छोटा उपाय है। अधिक हरियाली लेकिन छितराई हुई हरियाली से कुछ ज्यादा भला नहीं होगा। टोटल ग्रीन एरिया बढ़ने का फायदा उतना नहीं होगा। जंगल बचाने होंगे। जंगल ही जैव-विविधता का भंडार भी है और वन्य जीवों का रहवास भी।
दिल्ली हो या देश के बाकी शहर, हवा को बचाइए। अगली दीवाली के लिए, अगली पीढ़ियों के लिए। वरना, किसी को अच्छा नहीं लगेगा जब उसका बच्चा खांसता रहेगा और स्कूल जाने के लिए घऱ से चेहरे पर मास्क लगाकर निकलेगा।
मंजीत ठाकुर
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