तेरह साल तक टालते रहने के बाद नेहरू-गांधी खानदान के वारिस ने आखिरकार कांग्रेस की कमान तो संभाली लेकिन सवाल यही है कि क्या वह इस सबसे पुरानी औप पस्त पड़ी पार्टी में नई जान फूंक पाएंगे? खासकर तब, जब मौजूदा समय में सियासी परिस्थितियां तकरीबन कांग्रेसमुक्त भारत की तरफ ही बढ़ रही हैं.
16 दिसंबर से (संयोग है कि यह विजय दिवस भी है) राहुल कांग्रेस के अध्यक्ष का पदभार संभालेंगे. अब यह और बात है कि यह जिम्मेदारी उनके लिए पद की तरह रहता है या भार की तरह. हाल तक, गाहे-ब-गाहे कुछ मौकों को छोड़कर राहुल गांधी ने ज्यादा कुछ ऐसा किया नहीं कि उन पर भरोसा किया जा सके.
उनके लिए पहली चुनौती तो यही होगी कि वह खुद पर नेहरू-गांधी खानदान के छठे सदस्य के रूप में बने अध्यक्ष का तमगा छुड़ा सकें. भाजपा ने उन पर नाकामी का ठप्पा चस्पां करने में सोशल मीडिया मशीनरी का बखूबी इस्तेमाल किया है.
हालांकि, पिछले तेरह साल में राहुल गांधी लगातार कमजोर और हाशिए पर पड़े वंचित तबके की आवाज बनने की कोशिश करते रहे. लेकिन उनकी कोशिशें बड़े कदम की बजाय प्रतीकात्मक ही रहीं.
जरा तारीखवार गौर करें,
2008 में राहुल गांधी ओडिशा के कालाहांडी जिले के नियामगिरि में डंगरिया कोंध आदिवासियों के साथ खड़े हुए और कांग्रेस ने उनको नियामगिरि का सेनापति घोषित किया. बाद में, नियामगिरि में वेदांता को खनन पट्टा रद्द कर दिया गया. अगले साल 2009 में उन्होंने भारत की खोज यात्रा शुरू की था और यूपी के दलितों के यहां खाना खाकर खुद को जमीन से जुड़ा नेता साबित करने की कोशिश की. इसका फायदा 2009 के लोकसभा चुनावों में मिला.
साल 2011 में राहुल किसानों के भूमि अधिग्रहण के खिलाफ भट्टा पारसौल में आंदोलन के हिस्सेदार बने. बाद में केंद्र की यूपीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापना कानून पारित कराया.
इसके अलावा राहुल ने मौका बेमौका कभी मुंबई लोकल में सफर करके, कभ केदारनाथ मंदिर जाकर, कभी अरूणाचल के छात्र नीडो तानियम के लिए खड़े होकर, कभी केरल के मछुआरे के यहां खाना खाकर खुद को स्थापित करने की कोशिश की. कभी वे पटपड़गंज में सफाई कर्मचारियों के साथ धरने पर बैठे तो रोहित वेमुला की खुदकुशी के बाद भाजपा पर टूट पड़े. कन्हैया मामले में भी राहुल गांधी ने सक्रियता दिखाते हुए जेएनयू में जाकर छात्रों से मुलाकात की थी.
लेकिन उनके कुछ कदमों से उनकी भद भी पिटी है.
नोटबंदी के दौरान 4 हजार रु. निकालने के लिए कतार में खड़ा होने और एक बार फटी जेब दिखाने की वजह से वे सोशल मीडिया पर ट्रोल हुए.
राहुल गांधी ट्रोल होने की वजह से भी लोकप्रिय हैं.
लेकिन हालिया महीनों में ट्विटर पर तंज भरे और तीखे ट्वीट करने की वजह से राहुल ने सबको हैरत में डाल दिया है.
लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष बने राहुल गांधी के सामने कई चुनौतियां दरपेश हैं. 1999 से लेकर 2014 तक ही देखें तो कांग्रेस का प्रदर्शन गर्त में चला गया है. 1999 में कांग्रेस को 114 सीटें थी, जो 2004 में 145, 2009 में 206 और अब 2014 में महज 44 रह गई है. इसके बरअक्स भाजपा 182, 138, 116 और 282 पर आई है. कांग्रेस का वोट शेयर भी इन्ही सालों मे क्रमशः 28, 27,29 और 20 फीसदी रहा है.
अब कांग्रेस सुप्रीमो बने राहुल को कुछ काम प्राथमिकता के स्तर पर करने होंगे. इनमें संगठन में नई जान फूंकने से लेकर नई टोली का गठन करना, राज्यों में ताकतवर नेताओं को आगे बढ़ाना, 2019 के लिए कार्यकर्ताओं में जोश लाना, गुटबाजी पर लगाम लगाना और भरोसेमंद और निरंतर सक्रिय (जी हां, छुट्टियों पर विदेश सरक जाने की अपनी आदत छोड़नी होगी) नेता के रूप में पेश होना होगा.
राहुल गांधी के एक भाजपा विरोधी गठजोड़ तैयार करना होगा. लेकिन बिहार में वह नीतीश के अपने पाले में रोक नहीं सके. पीएम बनने की ख्वाहिशमंद ममता उनके लिए दूसरी चुनौती होंगी जो वाम दलों के साथ एक मंच पर शायद ही आएं. दूसरी तरफ, मायावती और मुलायम भी शायद ही हाथ मिलाना पसंद करें.
2019 से पहले राहुल के लिए 2018 भी एक चुनौती बनकर मुंह बाए खड़ा है. जब चार बड़े राज्यों के चुनाव होने हैं. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ भाजपा के सूबे हैं, कर्नाटक में उनकी अपनी सरकार है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पास 230 में से 58 सीटें हैं, 37 फीसदी वोट शेयर है, सूबे के लोकसभा की 29 सीटों में से महज दो कांग्रेस के पास हैं और वोट शेयर 35 फीसदी हैं (यानी वोट शेयर इंटैक्ट है)
राजस्थान में 200 विधानसभा सीटें हैं, इनमें कांग्रेस के पास महज 21 हैं. वोट शेयर भी 33 फीसदी है. राजस्थान से लोकसभा में एक भी सीट कांग्रेस के पास नहीं, लेकिन 31 फीसदी वोट जरूर मिले थे.
छत्तीसगढ़ में 90 विधानसभा सीटें हैं. कांग्रेस के पास इनमें से 39 सीटें हैं. वोट शेयर जरूर बढ़िया 40 फीसदी है लेकिन लोकसभा चुनाव में पासा पलट गया था जब राज्य की कुल 11 लोस सीटों में से कांग्रेस 20 फीसदी वोट हासिल कर सकी और सिर्फ 1 सीट पर जीत दर्ज कर सकी.
कर्नाटक में मामला थोड़ा अलग है. 224 विधानसभा सीटों वाले सदन में कांग्रेस के 122 सदस्य हैं. वोट शेयर 37 फीसदी है. वहां की 28 लोस सीटों में से कांग्रेस ने 9 जीती और वोट शेयर भी 41 फीसदी हासिल किया. यानी कर्नाटक में बहुत सत्ताविरोधी रूझान न हुआ तो कांग्रेस मजबूत स्थिति में रह सकती है. क्योंकि मोदी लहर (कर्नाटक में भाजपा ने 17 सीटें जीती हैं और 43 फीसदी वोट शेयर हासिल किया है) के बावजूद कांग्रेस का वोट शेयर भाजपा से महज 2 फीसदी कम रहा और इसी दो फीसदी वोट ने दोनों पार्टियों के बीच 8 सीटों का अंतर पैदा कर दिया.
बहरहाल, राहुल गांधी अब शहजादे से एक नेता में बदल रहे हैं. वह अब कांग्रेस अध्यक्ष हैं. सत्ता को जहर कहने वाले राहुल को अब पार्टी के ढांचे को नया रंग-रूप देने के साथ-साथ चुनावों में जीत दिलानी ही होगी. क्योंकि सत्ता से ज्यादा दिन दूर रही पार्टी का जनाधार ज्यादा तेजी से खिसकता है.
16 दिसंबर से (संयोग है कि यह विजय दिवस भी है) राहुल कांग्रेस के अध्यक्ष का पदभार संभालेंगे. अब यह और बात है कि यह जिम्मेदारी उनके लिए पद की तरह रहता है या भार की तरह. हाल तक, गाहे-ब-गाहे कुछ मौकों को छोड़कर राहुल गांधी ने ज्यादा कुछ ऐसा किया नहीं कि उन पर भरोसा किया जा सके.
उनके लिए पहली चुनौती तो यही होगी कि वह खुद पर नेहरू-गांधी खानदान के छठे सदस्य के रूप में बने अध्यक्ष का तमगा छुड़ा सकें. भाजपा ने उन पर नाकामी का ठप्पा चस्पां करने में सोशल मीडिया मशीनरी का बखूबी इस्तेमाल किया है.
हालांकि, पिछले तेरह साल में राहुल गांधी लगातार कमजोर और हाशिए पर पड़े वंचित तबके की आवाज बनने की कोशिश करते रहे. लेकिन उनकी कोशिशें बड़े कदम की बजाय प्रतीकात्मक ही रहीं.
जरा तारीखवार गौर करें,
2008 में राहुल गांधी ओडिशा के कालाहांडी जिले के नियामगिरि में डंगरिया कोंध आदिवासियों के साथ खड़े हुए और कांग्रेस ने उनको नियामगिरि का सेनापति घोषित किया. बाद में, नियामगिरि में वेदांता को खनन पट्टा रद्द कर दिया गया. अगले साल 2009 में उन्होंने भारत की खोज यात्रा शुरू की था और यूपी के दलितों के यहां खाना खाकर खुद को जमीन से जुड़ा नेता साबित करने की कोशिश की. इसका फायदा 2009 के लोकसभा चुनावों में मिला.
साल 2011 में राहुल किसानों के भूमि अधिग्रहण के खिलाफ भट्टा पारसौल में आंदोलन के हिस्सेदार बने. बाद में केंद्र की यूपीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापना कानून पारित कराया.
इसके अलावा राहुल ने मौका बेमौका कभी मुंबई लोकल में सफर करके, कभ केदारनाथ मंदिर जाकर, कभी अरूणाचल के छात्र नीडो तानियम के लिए खड़े होकर, कभी केरल के मछुआरे के यहां खाना खाकर खुद को स्थापित करने की कोशिश की. कभी वे पटपड़गंज में सफाई कर्मचारियों के साथ धरने पर बैठे तो रोहित वेमुला की खुदकुशी के बाद भाजपा पर टूट पड़े. कन्हैया मामले में भी राहुल गांधी ने सक्रियता दिखाते हुए जेएनयू में जाकर छात्रों से मुलाकात की थी.
लेकिन उनके कुछ कदमों से उनकी भद भी पिटी है.
नोटबंदी के दौरान 4 हजार रु. निकालने के लिए कतार में खड़ा होने और एक बार फटी जेब दिखाने की वजह से वे सोशल मीडिया पर ट्रोल हुए.
राहुल गांधी ट्रोल होने की वजह से भी लोकप्रिय हैं.
लेकिन हालिया महीनों में ट्विटर पर तंज भरे और तीखे ट्वीट करने की वजह से राहुल ने सबको हैरत में डाल दिया है.
लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष बने राहुल गांधी के सामने कई चुनौतियां दरपेश हैं. 1999 से लेकर 2014 तक ही देखें तो कांग्रेस का प्रदर्शन गर्त में चला गया है. 1999 में कांग्रेस को 114 सीटें थी, जो 2004 में 145, 2009 में 206 और अब 2014 में महज 44 रह गई है. इसके बरअक्स भाजपा 182, 138, 116 और 282 पर आई है. कांग्रेस का वोट शेयर भी इन्ही सालों मे क्रमशः 28, 27,29 और 20 फीसदी रहा है.
अब कांग्रेस सुप्रीमो बने राहुल को कुछ काम प्राथमिकता के स्तर पर करने होंगे. इनमें संगठन में नई जान फूंकने से लेकर नई टोली का गठन करना, राज्यों में ताकतवर नेताओं को आगे बढ़ाना, 2019 के लिए कार्यकर्ताओं में जोश लाना, गुटबाजी पर लगाम लगाना और भरोसेमंद और निरंतर सक्रिय (जी हां, छुट्टियों पर विदेश सरक जाने की अपनी आदत छोड़नी होगी) नेता के रूप में पेश होना होगा.
राहुल गांधी के एक भाजपा विरोधी गठजोड़ तैयार करना होगा. लेकिन बिहार में वह नीतीश के अपने पाले में रोक नहीं सके. पीएम बनने की ख्वाहिशमंद ममता उनके लिए दूसरी चुनौती होंगी जो वाम दलों के साथ एक मंच पर शायद ही आएं. दूसरी तरफ, मायावती और मुलायम भी शायद ही हाथ मिलाना पसंद करें.
2019 से पहले राहुल के लिए 2018 भी एक चुनौती बनकर मुंह बाए खड़ा है. जब चार बड़े राज्यों के चुनाव होने हैं. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ भाजपा के सूबे हैं, कर्नाटक में उनकी अपनी सरकार है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पास 230 में से 58 सीटें हैं, 37 फीसदी वोट शेयर है, सूबे के लोकसभा की 29 सीटों में से महज दो कांग्रेस के पास हैं और वोट शेयर 35 फीसदी हैं (यानी वोट शेयर इंटैक्ट है)
राजस्थान में 200 विधानसभा सीटें हैं, इनमें कांग्रेस के पास महज 21 हैं. वोट शेयर भी 33 फीसदी है. राजस्थान से लोकसभा में एक भी सीट कांग्रेस के पास नहीं, लेकिन 31 फीसदी वोट जरूर मिले थे.
छत्तीसगढ़ में 90 विधानसभा सीटें हैं. कांग्रेस के पास इनमें से 39 सीटें हैं. वोट शेयर जरूर बढ़िया 40 फीसदी है लेकिन लोकसभा चुनाव में पासा पलट गया था जब राज्य की कुल 11 लोस सीटों में से कांग्रेस 20 फीसदी वोट हासिल कर सकी और सिर्फ 1 सीट पर जीत दर्ज कर सकी.
कर्नाटक में मामला थोड़ा अलग है. 224 विधानसभा सीटों वाले सदन में कांग्रेस के 122 सदस्य हैं. वोट शेयर 37 फीसदी है. वहां की 28 लोस सीटों में से कांग्रेस ने 9 जीती और वोट शेयर भी 41 फीसदी हासिल किया. यानी कर्नाटक में बहुत सत्ताविरोधी रूझान न हुआ तो कांग्रेस मजबूत स्थिति में रह सकती है. क्योंकि मोदी लहर (कर्नाटक में भाजपा ने 17 सीटें जीती हैं और 43 फीसदी वोट शेयर हासिल किया है) के बावजूद कांग्रेस का वोट शेयर भाजपा से महज 2 फीसदी कम रहा और इसी दो फीसदी वोट ने दोनों पार्टियों के बीच 8 सीटों का अंतर पैदा कर दिया.
बहरहाल, राहुल गांधी अब शहजादे से एक नेता में बदल रहे हैं. वह अब कांग्रेस अध्यक्ष हैं. सत्ता को जहर कहने वाले राहुल को अब पार्टी के ढांचे को नया रंग-रूप देने के साथ-साथ चुनावों में जीत दिलानी ही होगी. क्योंकि सत्ता से ज्यादा दिन दूर रही पार्टी का जनाधार ज्यादा तेजी से खिसकता है.
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