कल्पित वास्तविकताएं क्या है? एक साझा मिथक. ये झूठ नहीं होते. इस साझा मिथक में विश्वास करते हुए हम करोड़ों की संख्या में आपसी सहयोग कर सकते हैं. भारतीय चुनावों के संदर्भों में आप इसे इंदिरा लहर, राम लहर, मोदी लहर, सत्ता विरोधी लहर की मिसालों में समझ सकते हैं. जब पूरा देश एक खास नेता या विषय की लहर की चपेट में होता है. आखिर यह लहर पैदा कैसे होती है? क्या यह लहर भावनात्मक मुद्दों पर नहीं होती? इंदिरा लहर क्या उनकी हत्या से जुड़ी सहानुभूति से नहीं उपजी थी? या राम लहर एक खास स्थान पर मंदिर बनाने के भावुकता पर आधारित नहीं थी?
यह भी सोचिए कि आखिर, हम भारतीयों को कौन सी एक चीज है जो बतौर राष्ट्र एक सूत्र में बांधती है? या ब्रिटिशों को? या इन इस्लामिक जेहादियों को, जो पूरी दुनिया को दारुल-उलूम में बदलना चाहते हैं?
यह मैं ईश्वर के संदर्भ में नहीं, बल्कि विकासवाद के संदर्भ में पूछ रहा हूं.
असल में इसका रहस्य कल्पना के प्रकट होने में है. एक साझा मिथक में विश्वास करते हुए हम करोड़ों की संख्या में आपसी सहयोग कर सकते हैं. भारतीय चुनावों के संदर्भों में आप इसे इंदिरा लहर, राम लहर, मोदी लहर, सत्ता विरोधी लहर की मिसालों में समझ सकते हैं. जब पूरा देश एक खास नेता या विषय की लहर की चपेट में होता है. आखिर यह लहर पैदा कैसे होती है? क्या यह लहर भावनात्मक मुद्दों पर नहीं होती? इंदिरा लहर क्या उनकी हत्या से जुड़ी सहानुभूति से नहीं उपजी थी? या राम लहर एक खास स्थान पर मंदिर बनाने के भावुकता पर आधारित नहीं थी?
असल में बड़े पैमाने पर इंसानी सहयोग की जड़ें उन साझा मिथकों में फैली होती हैं, जिनका अस्तित्व सिर्फ समाज की सामूहिक कल्पना में होता है. दो मुस्लिम, या कैथोलिक इसाई कभी एक दूसरे से मिले भी न हों पर धर्मयुद्ध में एक साथ जा सकते हैं. अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए महाराष्ट्र और बिहार के कारसेवक हाथ मिला सकते हैं. या केरल बाढ़ राहत के लिए चंदा दे सकते हैं. क्योंकि इन दो इंसानों को विश्वास होता है कि ईश्वर ने इंसान के रूप में, या ईश्वर के पुत्र के रूप में अवतार लिया था और हमारे पापों से बचाने के लिए खुद को सूली पर लटका लिया था या केरल भी उनके राष्ट्र का एक हिस्सा है.
राष्ट्र राज्यों की कल्पना राष्ट्रीय मिथकों में फैली हैं. दो भारतीय जो आपस में कभी नहीं मिले, वो पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में एकदूसरे की जान बचाने के लिए खद को जोखिम में डाल सकते हैं. क्योंकि दोनों को भारतीय राष्ट्र, भारत माता और इसके तिरंगे में विश्वास है. 1947 के पहले यह स्थिति अकल्पनीय होती. जबकि 1965 में पूर्वी पाकिस्तान के लोग भारत के दुश्मन थे और 1971 में यह स्थिति बदल गई. इसी तरह न्यायिक व्यवस्था भी है. न्याय भी सामाजिक मिथकों का पारंपरिक संकलन ही है. डेढ़ हजार साल पहले हम्बूराबी के न्याय, 1776 के अमेरिका के स्वतंत्रता की घोषणा वाले न्याय और भारतीय संविधान के निर्माण में न्याय की दृष्टि बदली हुई है क्योंकि हमारे मिथक बदल गए.
हालांकि कुछ भी हो, इन सबका अस्तित्व उन कहानियों के बाहर नहीं होता है, जो लोगों ने गढ़ी होती है. जिन्हें वे एक दूसरे को सुनाते हैं. मनुष्यों की साझा कल्पना से बाहर विश्व में कोई और देवता नहीं है, कोई राष्ट्र, कोई पैसा, कोई मानव अधिकार, कोई कानून या न्याय नहीं है.
यह सब किस्सा है. कारगर किस्से कहना आसान नहीं होता. मुश्किल किस्सा सुनाने में नहीं, बल्कि उस पर विश्वास करने के लिए हर किसी को राजी करने में होता है. ज्यादातर इतिहास इस प्रश्न के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता हैः ईश्वर, या राष्ट्रों, या सीमित दायित्वों वाली कंपनियों के बारे में गढ़े गए खास किस्सों पर विश्वास करने के लिए कोई व्यक्ति लाखों लोगों को किस तरह राजी करता है? जब भी इसमें कामयाबी मिलती है तो सेपियंस को अपरिमित शक्ति प्रदान करती है, क्योंकि यह लाखों अजनबियों को आपस मे सहयोग करने तथा साझा लक्ष्यों की दिशा में काम करने के लिए सक्षम बनाती है.
जरा यह कल्पना कीजिए कि अगर हम सिर्फ नदियों, वृक्षों, शेरों या उन्हीं जैसी सिर्फ वास्तविक चीजों पर बात कर सकते तो हमारे लिए राज्यों, राष्ट्रों और वैधानिक व्यवस्था का निर्माण करना कितना मुश्किल हो जाता.
किस्सों के नेटवर्क के माध्यम से लोग जिस तरह की चीजें रचते हैं, उन्हीं को कल्पना, सामाजिक निर्मितियों, या कल्पित वास्तविकताओं का नाम दिया जाता है. कल्पित वास्तविकताएं झूठ नहीं हैं. झूठ मैं तब कह सकता हूं कि दिल्ली में एक शेर इंडिया गेट के पास है. जबकि मैं जानता हूं कि इंडिया गेट पर कोई शेर नहीं है. झूठ में कोई विशेष बात नहीं होती है.
झूठ से उलट, कल्पित वास्तविकता एक ऐसी चीज होती है जिस पर हर कोई भरोसा करता है. जब तक यह सामूहिक विस्वास बना रहता है, तब तक यह कल्पित वास्तविकता संसार में अपने बल का प्रयोग करती रहती है. हम सब वैदिक देवताओं समेत नरसिंह और वराह जैसे अवतारों के अस्तित्व में यकीन करते हैं. कुछ ओझा धूर्त होते हैं लेकिन अधिकतर लोग ऐसे होते हैं जो सच्चे मन से देवों और दानवों के अस्तित्व में यकीन करते हैं.
संज्ञानात्मक क्रांति के बाद सेपियंस लगातार दोहरी वास्तविकता में रह रहे हैं. समझिए कि हम पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण मानते हैं लेकिन यह तो सिर्फ धरती के संदर्भ में है. अगर हम अंतरिक्ष में चले जाएं तो यह दिशाएं किधर जाएंगी? नदियों, वृक्षों, शेरों की वस्तुनिष्ठ वास्तविकता, और दूसरी तरफ देवताओं, राष्ट्रों और कंपनियों की कल्पित वास्तविकता. समय के साथ कल्पित वास्तविकताएं शक्तिशाली होती गईं. यहां तक कि वस्तुनिष्ठ वास्तविकताओं का जीवन कल्पित वास्तविकताओं की कृपा पर निर्भर रहने लगा है.
जारी रहेगा...
No comments:
Post a Comment