साल 2014 की गर्मियों में उम्मीद की राजनीति ने भ्रम और भुलावे की राजनीति पर जीत हासिल की थी. नियति ने वंशवाद को हरा दिया था. आशा ने निराशा को भगा दिया. और गुजरात के वडनगर का शख्स 7 रेसकोर्स रोड का नया बाशिंदा बन गया था. भारत के जनमानस ने नरेंद्र मोदी में अपनी सामूहिक अपेक्षाओं का मूर्त रूप पाया था.
पांच साल की मंदी से सुस्त पड़ा विकास, कमजोर नेतृत्व और घोटालों से दागदार सार्वजनिक जीवन-ऐसे में मोदी ऐसा विचार था जिसका समय आ पहुंचा था. 81.4 करोड़ मतदाताओं ने, जिनका पांचवां हिस्सा पहली बार मतदान कर रहा था-अपना विश्वास, अपनी आस्था और भरोसा एक संघ प्रचारक और कभी रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने का दावा करने वाले शख्स को सौंप दिया था.
2014 में राष्ट्रीय पार्टियों का प्रदर्शन
दोहराने की जरूरत नहीं कि भाजपा ने अब तक का सबसे बड़ा जनमत हासिल किया था. फिर भी 2019 की समीकरणों के हिसाब-किताब के लिए यह जरूरी है कि बुनियादी आंकड़ों और अंकतालिका को ख्याल में रखा जाए.
इस पोस्ट में हमने सिर्फ राष्ट्रीय पार्टियों के प्रदर्शन का आंकड़ा पेश किया है. राज्यस्तरीय अन्य पार्टियों का आंकड़ा हम अलग से देंगे. ताकि सनद रहे और वक्त पड़ने पर काम आए. यह बात भी याद रखने लायक है कि 2014 के बाद हुए लोकसभा सीटों के उपचुनावों में भाजपा अधिकतर सीटों पर हार गई और इस वक्त लोकसभा में उसके 271 सांसद ही हैं और कांग्रेस ने अपनी सीटों में बढोतरी की है.
कइयों का तर्क है कि 2014 का आम चुनाव भारत के दो विचारों के बीच चयन था. एक विचार था धर्मनिरपेक्ष भारत का जो विविधता का जश्न मनाता है, दूसरा उस विभाजित भारत का था जो एकरूपता को पूजता है. मोदी ने इस बहस को एक टैलेंट शो में बदल दिया, जहां प्रतिभाशाली भारत का सामना सामंतवादी भारत से था. कांग्रेस इसके प्रतिरोध में कुछ नहीं कह पाई क्योंकि मोदी ने एक दशक से विकास अवरुद्ध करने, खासकर नेहरू-गांधी परिवार पर मुफ्तखोरी की संस्कृति पोषित करने का आरोप लगाकर, उसके पांव के नीचे से जमीन पहले ही सरका दी थी.
फिलहाल, लोकसभा चुनाव 2019 की रणभेरी बज चुकी है. हालांकि, मोदी सरकार पहले साल से ही चुनाव मोड में ही है. पर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के नतीजों ने लोकसभा चुनाव को दिलचस्प बना दिया है. दूर दूर तक रेस में कहीं दिख नहीं रही कांग्रेस ऐन वक्त पर ताल ठोंक रही है. पिछले साढ़े चार साल में मोदी लहर कमजोर पड़ी है और मोदी का इकबाल भी कम हुआ है. उसके छोटे सहयोगी दल अब भाजपा को आंखें दिखा रहे हैं. पहले उपेंद्र कुशवाहा अलग हुए और अब अपना दल ने कमर कस ली है.
ऐसे में, चुनाव में अपनाए जाने वाले पैंतरे वाक़ई दिलचस्प ही होंगे.
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पांच साल की मंदी से सुस्त पड़ा विकास, कमजोर नेतृत्व और घोटालों से दागदार सार्वजनिक जीवन-ऐसे में मोदी ऐसा विचार था जिसका समय आ पहुंचा था. 81.4 करोड़ मतदाताओं ने, जिनका पांचवां हिस्सा पहली बार मतदान कर रहा था-अपना विश्वास, अपनी आस्था और भरोसा एक संघ प्रचारक और कभी रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने का दावा करने वाले शख्स को सौंप दिया था.
2014 में राष्ट्रीय पार्टियों का प्रदर्शन
दोहराने की जरूरत नहीं कि भाजपा ने अब तक का सबसे बड़ा जनमत हासिल किया था. फिर भी 2019 की समीकरणों के हिसाब-किताब के लिए यह जरूरी है कि बुनियादी आंकड़ों और अंकतालिका को ख्याल में रखा जाए.
2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने कुल 428 सीटों पर चुनाव लड़ा था. उसके 282 उम्मीदवार जीते थे और उन्हें 31.34 वोट प्रतिशत हासिल हुआ था. बहुजन समाज पार्टी 503 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और उसका कोई भी उम्मीदवार अपनी सीट जीत नहीं सका था और कुल वैध मतों का उन्हें महज 4.19 प्रतिशत वोट ही हासिल हुआ था. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 67 उम्मीदवार खड़े किए थे और इन्हें सिर्फ एक सीट हासिल हुई थी. वोट प्रतिशत था सिर्फ 0.79.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 464 उम्मीदवार खड़े किए थे और इन्हें सिर्फ 44 सीटें हासिल हुईं थी. 19.52 फीसदी वोट इन्हें पूरे देश में दिए गए वोटों के प्रतिशत के रूप में हासिल हुआ था. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने 93 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे और उनमें से 9 ने जीत दर्ज की थी. उन्हें कुल वोट प्रतिशत हासिल हुआ था 3.28. एक अन्य राष्ट्रीय पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने 36 उम्मीदवार खड़े किए थे और उनको 6 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. उनका वोट प्रतिशत था 1.58 फीसदी.
इस पोस्ट में हमने सिर्फ राष्ट्रीय पार्टियों के प्रदर्शन का आंकड़ा पेश किया है. राज्यस्तरीय अन्य पार्टियों का आंकड़ा हम अलग से देंगे. ताकि सनद रहे और वक्त पड़ने पर काम आए. यह बात भी याद रखने लायक है कि 2014 के बाद हुए लोकसभा सीटों के उपचुनावों में भाजपा अधिकतर सीटों पर हार गई और इस वक्त लोकसभा में उसके 271 सांसद ही हैं और कांग्रेस ने अपनी सीटों में बढोतरी की है.
कइयों का तर्क है कि 2014 का आम चुनाव भारत के दो विचारों के बीच चयन था. एक विचार था धर्मनिरपेक्ष भारत का जो विविधता का जश्न मनाता है, दूसरा उस विभाजित भारत का था जो एकरूपता को पूजता है. मोदी ने इस बहस को एक टैलेंट शो में बदल दिया, जहां प्रतिभाशाली भारत का सामना सामंतवादी भारत से था. कांग्रेस इसके प्रतिरोध में कुछ नहीं कह पाई क्योंकि मोदी ने एक दशक से विकास अवरुद्ध करने, खासकर नेहरू-गांधी परिवार पर मुफ्तखोरी की संस्कृति पोषित करने का आरोप लगाकर, उसके पांव के नीचे से जमीन पहले ही सरका दी थी.
फिलहाल, लोकसभा चुनाव 2019 की रणभेरी बज चुकी है. हालांकि, मोदी सरकार पहले साल से ही चुनाव मोड में ही है. पर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के नतीजों ने लोकसभा चुनाव को दिलचस्प बना दिया है. दूर दूर तक रेस में कहीं दिख नहीं रही कांग्रेस ऐन वक्त पर ताल ठोंक रही है. पिछले साढ़े चार साल में मोदी लहर कमजोर पड़ी है और मोदी का इकबाल भी कम हुआ है. उसके छोटे सहयोगी दल अब भाजपा को आंखें दिखा रहे हैं. पहले उपेंद्र कुशवाहा अलग हुए और अब अपना दल ने कमर कस ली है.
ऐसे में, चुनाव में अपनाए जाने वाले पैंतरे वाक़ई दिलचस्प ही होंगे.
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