वसीम अकरम का यह उपन्यास नई हिंदी को नए तेवर दे रही है. इसमें देशज शब्दों का धुआंधार और सटीक इस्तेमाल है जो नई हिंदी की बाकी बिरादरी से इस किताब को अलहदा जगह और ऊंचाई पर खड़ी करती है.
हम सबमें, कम से कम हिंदी पट्टी वालों के भीतर एक गांव जिंदा है. शहरी जिंदगी के भागमभाग में अगर हम सबसे अधिक कुछ छूटता और फिसलता-सा महसूस करते हैं तो वह है हमारा गांव, जिसे हम आगे बढ़ने के लिए कहीं पीछे छोड़ आए थे. पर, हम अपने गांव को अब भी वैसा ही देखना चाहते हैं जैसा हमने छोड़ा था. शहर में हम गांव को 'मिस' करते हैं और गांव जाकर जब उसको बदलता हुआ और शहरी ढब का होता हुआ देखते हैं तो फिर एक नई कसक लेकर लौटते हैं. वसीम अकरम के उपन्यास 'चिरकुट दास चिन्गारी' को पढ़ना इसी कसक को किताब की शक्ल में देखने सरीखा है.
हम सबमें, कम से कम हिंदी पट्टी वालों के भीतर एक गांव जिंदा है. शहरी जिंदगी के भागमभाग में अगर हम सबसे अधिक कुछ छूटता और फिसलता-सा महसूस करते हैं तो वह है हमारा गांव, जिसे हम आगे बढ़ने के लिए कहीं पीछे छोड़ आए थे. पर, हम अपने गांव को अब भी वैसा ही देखना चाहते हैं जैसा हमने छोड़ा था. शहर में हम गांव को 'मिस' करते हैं और गांव जाकर जब उसको बदलता हुआ और शहरी ढब का होता हुआ देखते हैं तो फिर एक नई कसक लेकर लौटते हैं. वसीम अकरम के उपन्यास 'चिरकुट दास चिन्गारी' को पढ़ना इसी कसक को किताब की शक्ल में देखने सरीखा है.
वसीम अकरम की किताब चिरकुट दास चिन्गारी. फोटोः मंजीत ठाकुर |
वसीम अकरम पेशे से पत्रकार हैं और मिजाज से लेखक, ऐसे में पत्रकारीय नजर और लेखकीय मुलायमियत के साथ उन्होंने जो उपन्यास लिखा है, वह आपको अंदर तक छूता है. मुझे यह कहने में गुरेज़ नहीं है कि 'चिरकुट दास चिन्गारी' पढ़ते समय मुझे यह कई दफा लगा कि उपन्यासकार डॉ. राही मासूम रजा के 'आधा गांव' के असर में है.
अकरम के उपन्यास में हर किरदार जिंदा नजर आता है. परिदृश्य सिरजने में, गांव की तस्वीर पन्नों पर उकेरने में अकरम सिनेमा देखने जैसा अनुभव देते हैं. इसमें कुछ गजब भी नहीं क्योंकि अकरम खुद फिल्मकार भी हैं. ऐसे में, आपको लगता है कि पन्नों पर लिखे अल्फाजों से माटी की खुशबू आ रही हो.
किरदार रचने में संवादों की गंवई शैली एकदम वैसी ही है, जैसे पात्र आपस में बोलते होंगे. असल में एक किरदार रचने के बाद हम उसे कॉलर पकड़कर नहीं चला सकते. किरदारों के नाम भी वैसे ही हैं, जैसे गांवों में होते हैं. मंगरुआ, अंड़वा, टंड़वा...आपको सब पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों के लोगों के नामों जैसे लगेंगे. और उनके मुंह से गालियों की बौछार, उनके अपने देशी तकियाकलामों के साथ. थोड़ी देर तक यह उपन्यास आपको इमली को गुड़ की भेली के साथ खाने का मजा देगा.
अपने लेखकीय में अकरम पहले ही आगाह करते हैं कि उपन्यास में भाषा के भदेस होने के साथ कुछ गालियां हैं, निवेदन है कि गालियों को वहां से हटाकर न पढ़ें नहीं तो उपन्यास की ज़बान कड़वी हो जाएगी. और फिर आप मानसिक रूप से घटिया गालियों के लिए तैयार हो जाते हैं. पर पन्नों में गालियां कब आती हैं, और आप संवादों के साथ उसको हजम कर जाते हैं, आपको पता भी नहीं चलता. इतने स्वाभाविक ढंग से गालियों को निकाल ले जाना, यह अकरम की कला है.
उपन्यास ‘चिरकुट दास चिन्गारी’ की भाषा बहुत ही सरल-सहज और गंवई शब्दावलियों से भरी हुई है. यही नहीं, वसीम अकरम ने कुछ ऐसे नए शब्द-शब्दावलियों के साथ कई मुहावरे भी रच डाले हैं. ‘सालियाना मुस्कान’, ‘यदि मान ल कि जदि’, ‘नवलंठ’, ‘पहेंटा-चहेटी’, ‘चिरिक दें कि पलपल दें’, ‘चुतरचहेंट’, ‘रामरस’, ‘परदाफ्फास’, ‘बलिस्टर’, ‘लतुम्मा एक्सप्रेस’, ‘फिगरायमान’, ‘इक्स’, ‘लौंडियास्टिक’, ‘गलती पर सिंघिया मांगुर हो जाना’, ‘कान्फीओवरडेंस’, ये सारे अल्फाज आपको गांवों की सैर पर लिए चलते हैं.
लेकिन, दिक्कत यह है कि उपन्यास में कोई एक केंद्रीय कथा नहीं है. एक गांव है जिसमें कई सारी जगहों पर कई कहानियां होती हैं, घटनाएं होती हैं. आप इससे थोड़ा विचलित हो सकते हैं. आखिर, कथा तत्व में खासकर उपन्यास में एक केंद्रीय पात्र और उसके आसपास सहायक पात्र होने चाहिए. कथा में केंद्रीय रूप से कॉन्फ्लिक्ट की कमी खलती है.
आंचलिकता भरी भाषा के लिए संवादों में आंचलिकता का प्रयोग दाल में हींग के छौंक की तरह होती है लेकिन अगर ज्यादा हींग में कम दाल डालें तो क्या उससे जायका आएगा? शुरु के पन्नों में अकरम अपने ही गढ़े कुछ शब्दों पर रीझे हुए लगते हैं और, मिसाल के तौर पर 'नवलंठ', उनका बारंबार इस्तेमाल करते हैं. इससे पाठक थोड़ा चिढ़ सकता है. दूसरी बात, कथाक्रम में संवादों के अलावा जब भी जरूरत से अधिक भदेस शब्दों का इस्तेमाल होता है वह भोजपुरी से अनजान या कम परिचित पाठकों के लिए बोझिल भी हो सकता है.
लेकिन, अकरम की यह किताब रोमन में अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल वाली आजकल की नई हिंदी को नए तेवर दे रही है. नए तेवर इस अर्थ में कि इसमें देशज शब्दों का धुआंधार इस्तेमाल है जो नई हिंदी के बाकी बिरादरी से इस उपन्यास को अलहदा जगह और ऊंचाई पर खड़ी करती है. अब इंतजार अकरम की अगली किताब का होगा कि आखिर वह अपनी इस भाषा की चमक अपने अगले उपन्यास में बरकरार रखते हैं या नहीं.
किताबः चिरकुट दास चिन्गारी (उपन्यास)
लेखकः वसीम अकरम
प्रकाशकः हिंद युग्म प्रकाशन, दिल्ली
कीमतः 125 रुपये (पेपरबैक)
अकरम के उपन्यास में हर किरदार जिंदा नजर आता है. परिदृश्य सिरजने में, गांव की तस्वीर पन्नों पर उकेरने में अकरम सिनेमा देखने जैसा अनुभव देते हैं. इसमें कुछ गजब भी नहीं क्योंकि अकरम खुद फिल्मकार भी हैं. ऐसे में, आपको लगता है कि पन्नों पर लिखे अल्फाजों से माटी की खुशबू आ रही हो.
किरदार रचने में संवादों की गंवई शैली एकदम वैसी ही है, जैसे पात्र आपस में बोलते होंगे. असल में एक किरदार रचने के बाद हम उसे कॉलर पकड़कर नहीं चला सकते. किरदारों के नाम भी वैसे ही हैं, जैसे गांवों में होते हैं. मंगरुआ, अंड़वा, टंड़वा...आपको सब पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों के लोगों के नामों जैसे लगेंगे. और उनके मुंह से गालियों की बौछार, उनके अपने देशी तकियाकलामों के साथ. थोड़ी देर तक यह उपन्यास आपको इमली को गुड़ की भेली के साथ खाने का मजा देगा.
अपने लेखकीय में अकरम पहले ही आगाह करते हैं कि उपन्यास में भाषा के भदेस होने के साथ कुछ गालियां हैं, निवेदन है कि गालियों को वहां से हटाकर न पढ़ें नहीं तो उपन्यास की ज़बान कड़वी हो जाएगी. और फिर आप मानसिक रूप से घटिया गालियों के लिए तैयार हो जाते हैं. पर पन्नों में गालियां कब आती हैं, और आप संवादों के साथ उसको हजम कर जाते हैं, आपको पता भी नहीं चलता. इतने स्वाभाविक ढंग से गालियों को निकाल ले जाना, यह अकरम की कला है.
उपन्यास ‘चिरकुट दास चिन्गारी’ की भाषा बहुत ही सरल-सहज और गंवई शब्दावलियों से भरी हुई है. यही नहीं, वसीम अकरम ने कुछ ऐसे नए शब्द-शब्दावलियों के साथ कई मुहावरे भी रच डाले हैं. ‘सालियाना मुस्कान’, ‘यदि मान ल कि जदि’, ‘नवलंठ’, ‘पहेंटा-चहेटी’, ‘चिरिक दें कि पलपल दें’, ‘चुतरचहेंट’, ‘रामरस’, ‘परदाफ्फास’, ‘बलिस्टर’, ‘लतुम्मा एक्सप्रेस’, ‘फिगरायमान’, ‘इक्स’, ‘लौंडियास्टिक’, ‘गलती पर सिंघिया मांगुर हो जाना’, ‘कान्फीओवरडेंस’, ये सारे अल्फाज आपको गांवों की सैर पर लिए चलते हैं.
लेकिन, दिक्कत यह है कि उपन्यास में कोई एक केंद्रीय कथा नहीं है. एक गांव है जिसमें कई सारी जगहों पर कई कहानियां होती हैं, घटनाएं होती हैं. आप इससे थोड़ा विचलित हो सकते हैं. आखिर, कथा तत्व में खासकर उपन्यास में एक केंद्रीय पात्र और उसके आसपास सहायक पात्र होने चाहिए. कथा में केंद्रीय रूप से कॉन्फ्लिक्ट की कमी खलती है.
आंचलिकता भरी भाषा के लिए संवादों में आंचलिकता का प्रयोग दाल में हींग के छौंक की तरह होती है लेकिन अगर ज्यादा हींग में कम दाल डालें तो क्या उससे जायका आएगा? शुरु के पन्नों में अकरम अपने ही गढ़े कुछ शब्दों पर रीझे हुए लगते हैं और, मिसाल के तौर पर 'नवलंठ', उनका बारंबार इस्तेमाल करते हैं. इससे पाठक थोड़ा चिढ़ सकता है. दूसरी बात, कथाक्रम में संवादों के अलावा जब भी जरूरत से अधिक भदेस शब्दों का इस्तेमाल होता है वह भोजपुरी से अनजान या कम परिचित पाठकों के लिए बोझिल भी हो सकता है.
लेकिन, अकरम की यह किताब रोमन में अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल वाली आजकल की नई हिंदी को नए तेवर दे रही है. नए तेवर इस अर्थ में कि इसमें देशज शब्दों का धुआंधार इस्तेमाल है जो नई हिंदी के बाकी बिरादरी से इस उपन्यास को अलहदा जगह और ऊंचाई पर खड़ी करती है. अब इंतजार अकरम की अगली किताब का होगा कि आखिर वह अपनी इस भाषा की चमक अपने अगले उपन्यास में बरकरार रखते हैं या नहीं.
किताबः चिरकुट दास चिन्गारी (उपन्यास)
लेखकः वसीम अकरम
प्रकाशकः हिंद युग्म प्रकाशन, दिल्ली
कीमतः 125 रुपये (पेपरबैक)
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1 comment:
इतनी अच्छी समीक्षा पढ़कर किताब लेनी ही पड़ेगी.
बहुत सुंदर!
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