Tuesday, January 7, 2020

एक था पीयूष

पीयूष नाम था उसका. जिसके नाम का अर्थ ही अमृत था, वह नहीं रहा. उसके जाने की खबर पर यकीन नहीं हो रहा. वह जब मुस्कुराता था तो उसके गालों पर गड्ढे पड़ते थे. इतना खुशमिजाज कि साथ में चलते चलते भी चुटीली बातें करके उदास से उदास दिन को जिंदादिली में बदल जाता. 

पीयूष और धीरज (नीले टीशर्ट में)


हमने बचपन साथ गुजारा था. उससे पहली बार मुलाकात तो तब हुई जब उसका परिवार मधुपुर के एक दूरस्थ मुहल्ले में कुमार साहब नाम के प्रतिष्ठित अध्यापक के यहां किराए में रहता. तब मेरी उम्र पांच-छह साल की रही होगी. फिर कुछ महीनों बाद 1986 या 87 में वे लोग हमारे घर में आ गए थे. 
बचपन के दोस्त विजय की गोद में पीयूष

और उसके बाद से हमारी दोस्ती गाढ़ी हो गई. फिर हाइस्कूल तक पढ़ाई हो या क्विज कंपीटिशन और चित्रकला प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना, हम साथ रहे. वह मन से चित्रकार था, उसकी गणित की कापियों में समीकरणों की बजाए चित्र खिंचे होते थे. उसका मन कवि का था...बेहतरीन लिखता था. 
मधुपुर के पास के गांव पननिया में घुघनी खाने पहुंचे सारे बैचमेट. पीयूष नीली कमीज में है


उसने मुझसे वायदा लिया था कि वह एक कविता संग्रह प्रकाशित करवाएगा और उसका संपादन मुझे करना होगा. जब हम छोटे थे तब भी उसके खेल निराले थे, वह दीवार पर जमने वाले हरे मॉस (काई) उखाड़ लाता और रेत पर उससे सजाकर महलें और पार्क बनाता...
दोस्तों के झुंड में

सोशल मीडिया पर आने के बाद वैचारिक रूप से हममें तकरारें भी हुईं, पर हर बार गर्मागर्म बहस के बाद वह फोन करता था, भाई, प्यार अपनी जगह. तर्क अपनी जगह. फोन रखते समय हम दोनों मुस्कुराते हुए बात खत्म करते थे. मधुपुर की सड़कों पर बिना बात, बेमकसद घूमने से लेकर अपनी किसी कहानी के प्लॉट तक के बारे में बात करने के लिए पीयूष से निकट मित्र नहीं मिला था मुझे. 

पीयूष और अरविंद

मुझे नहीं मालूम कि प्रेम में आकंठ डूबकर जीवन के बेहतर तरीके से जीने में यकीन रखने वाले, पीयूष की तबीयत दिन ब दिन कैसे बिगड़ती गई. दो बरस पहले मधुपुर गया था तो वह सख्त बीमार था और चाचाजी (उसके पिता) उसे बरेली से वापस मधुपुर ले गए थे. चाचाजी ने मुझसे कहा, स्टेशन पर से उसने जिद करके इंडिया टुडे मैगजीन खरीदवाई और तुम्हारी रपट देखकर खुश हो गया था. मानो उसी के नाम से खबर छपी हो. 


उस साल मधुपुर के हमारे दोस्तों के वॉट्सऐप ग्रुप में उसको जोड़ा, जबरिया. क्योंकि वह बीमार पड़ने के बाद से ग्रुप्स में जोड़े जाने से सकुचाने लगा था. पर, फिर ग्रुप में दोस्तों के साथ ठठाकर हंसते देखा उसको...तो लगा भाई ठीक होने लगा है. पर अचानक आज जो खबर आई वह स्तब्ध कर गई. 

इतनी हिम्मत नहीं कि मौसी (उसकी मां) को फोन कर पाऊं...एक मां के दिल पर क्या बीत रही होगी, इसका अंदाजा लगाकर ही सन्न रह जाता हूं. पीयूष अपना वादा तोड़कर चला गया. उसकी कविताओं के संग्रह का संपादन बाकी ही रह गया. बड़े गौर से सुन रहा था ज़माना, तुम्हीं सो गए दास्तां कहते-कहते. लौट आओ दोस्त पीयूष, नए साल का यूं आगाज़ बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा. तुम ताजिंदगी याद आओगे.

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

जाना सभी को है पर असमय जाना अधिक पीड़ादायक है। धैर्य रखें और मौसी जी से बात करें उन्हें भी साँत्वना दें। जाने वाले के लिये शाँति की प्रार्थना है।