भले ही इसे चुनावी आंकड़ों का अंधविश्वास कहा जाए, पर ट्रेंड है कि झारखंड गठन के बाद से हर बार पीठासीन विधानसभा अध्यक्ष अपना अगला चुनाव हार जाते हैं. इस बार भी निवर्तमान विधानसभा स्पीकर दिनेश उरांव पराजय की कगार पर खड़े हैं
लेकिन एक दिलचस्प बात है कि सन् 2000 में झारखंड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद से यहां की सियासत में कई उतार-चढ़ाव आए. 10 बार नेतृत्व परिवर्तन हुआ यानी मुख्यमंत्री पद पर बदलाव हुए. लेकिन एक बात हर बार सही होती रही. चुनाव के समय पीठासीन विधानसभा अध्यक्ष अपना अगला चुनाव हारते रहे. ऐसा 2005, 2009 और 2014 में हो चुका है. अब तक सारे पीठासीन विधानसभा अध्यक्ष अपना चुनाव जीतने में नाकाम रहे हैं. इस वक्त तक, सिसई विधानसभा सीट से किस्मत आजमा रहे निवर्तमान विधानसभा अध्यक्ष दिनेश उरांव करीब 29 हजार मतों से पीछे चल रहे हैं. (आखिरकार पराजित भी हुए)
2005 में झारखंड में विभाजन के बाद पहले चुनाव हुए थे और तब विधानसभा अध्यक्ष के पद पर एम.पी. सिंह बैठे थे. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने उन्हें टिकट नहीं दिया था, क्योंकि जमशेदपुर पश्चिम सीट से पार्टी ने सरयू राय को टिकट दे दिया था. एम.पी. सिंह बगावत पर उतर आए और उन्होंने पार्टी छोड़कर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का दामन थाम लिया और उसके टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे. पर उन्होंने चुनाव मैदान में मात खानी पड़ी थी.
इसी तरह, 2009 के चुनाव से पहले विधानसभा अध्यक्ष की कुरसी पर आलमगीर आलम काबिज थे. पर उस चुनाव में कांग्रेस, राजद और झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने गठबंधन की बजाए अलग-अलग चुनाव लड़ा था और पाकुड़ सीट से आलमगीर आलम चुनाव हार गए थे. पाकुड़ में झामुमो ने जीत दर्ज की थी. इसी तरह 2014 में झामुमो कांग्रेस और राजद फिर से किसी गठजोड़ के समझौते पर नहीं पहुंच पे थे और तब के स्पीकर शशांक शेखर भोक्ता देवघर जिले की सारठ विधानसभी सीट से चुनाव हार गए.
हालांकि, यह महज एक संयोग हो सकता है पर हर चुनावी हार के पीछे एक तर्क और मजबूत कारण तो होते ही हैं.
बहरहाल, विधानसभा के निवर्तमान अध्यक्ष दिनेश उरांव सिसई सीट से भाजपा उम्मीदवार हैं. इस खबर के लिखे जाने तक दिनेश उरांव को 42,879 वोट मिले थे जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी और झारखंड मुक्ति मोर्चा के उम्मीदवार जीगा सुसरन होरो ने 71737 वोट हासिल कर लिए थे. करीब 29 हजार वोटो का यह अंतर इस वक्त पाटना मुश्किल ही लग रहा है.
ऐसे में भले ही पीठासीन विधानसभा अध्यक्ष के चुनावी प्रदर्शन को अंधविश्वास से जोड़ा जाए, पर लगातार चौथी बार आए नतीजे इस बात को पुष्ट ही करते हैं. आखिर, चुनावी नतीजे आंकड़ों के आधार पर ही तो विश्लेषित किए जाते हैं.
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