Wednesday, March 19, 2008

कब गंभीर होंगी भोजपुरी फिल्में..

पिछले साल नबंवर में गोवा में हुए भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भोजपुरी फिल्मों की गैरमौजूदगी पर पॼकार बिरादरी ने कुछ सवालात उठाए थे। आयोजकों के जवाब से और लोगों की राय से जो बात सामने आई कि ज्यादातर लोग भोजपुरी फिल्मों को समारोह के लायक नहीं मानते। मलयालम, तमिल और कन्नड़ सिनेमा के बेहतर प्रतिनिधित्व के बरअक्स भोजपुरी फिल्मों का मौजूदा स्तर थोड़ा हताश करने वाला है।

भारतीय सिनेमा के ॿितिज पर भोजपुरी फिल्मों के उदय के दूसरे चरण को देखकर सुखद आश्चर्य होता है। ससुरा बड़ा पईसावाला, दारोगाबाबू आईलवयू से चलकर भोजपुरी फिल्मों ने गंगा और ऐसी ही फिल्मों से अलग मुकाम हासिल कर लिया है।

लेेकिन सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर क्या वजह रही कि संघर्षरत लोकगायक मनोज तिवारी अचानक सुपरस्टार बन जाते हैं। अमिताभ, नगमा, अजय देवगन और जैकी ॽॉफ जैसे कलाकार भोजपुरी फिल्मों में काम करने के लिए तैयार है। जाहिर है, काल के स्तर पर बेहद निचले दर्जे का होने पर भीै भोजपुरी का बेहतरीन बिज़नेस नामी बनियों को इस भाषा तक खींच लाया है। 30 लाख की लागत से बनीे मनोज तिवारी की ससुरा बड़ा पईसावाला जैसी सेक्स कॉमिडी ने 15 करोड़ का बिज़नेस किया और उन्ही की दूसरी फिल्म दारोगा बाबू आईलवयू ने 4 करोड़ की कमाई की।

भोजपुरी फिल्मों में अब पुराने बॉलिवुड हिट फिल्मों के रीमेक का दौर आ रहा है। शोले, नमकहलाल जैसी कई फिल्मों का भोजपुरीकरण किया जा रहा है। स्पाइडरमैन जैसी अंतरराष्ट्रीय फिल्म के मकड़मानव के रूप में रिलीज़ होना भोजपुरी के बाज़ार की ताकत का इज़हार ही तो है। नमकहलाल भी बबुआ खिलाड़ी, ददवा अनाड़ी के नाम से तैयार की जा रही है।

यहां तक सब कुछ बेहतर है। हिंदी फिल्मों का हिंदी पट्टीवाला भदेस दर्शक भोजपुरी फिल्मों की ओर शिफ्ट हो गया है। ससुरा... और दारोगा बाबू.. जैसी छोटे बजट की फिल्मों ने उस वक्त रिलीज हुईं बॉलिवुड की ए-ग्रेड की फिल्मों अभिषेक-अमिताभ-रानी की बंटी और बबली और आमिर की मंगल पांडे- द राइजिंग के कारोबार पर बढ़त पा ली थी। लेकिन, लगता है कि अब भोजपुरी फिल्मों के जागने का वक्त आ गया है। द्विअर्थी संवादों और खराब संपादन, और कहानी में लौंडा नाच जैसी चीजें दर्शक को सिनेमाहॉल तक खींच लाने के लिए ज़रूरी तो है, लेकिन किस्सागोई की जो शानदार परंपरा बंगला, मलयालम और कन्नड़ सिनेमा में है, गंभीर दर्शक भोजपुरी में भी वैसा स्तर देखने की उम्मीद में है।

क्या ये वक्त नहीं है कि भोजपुरी सिनेमा थोड़ा गंभीर होकर सोचे..। आखिर हिंदी फिल्मों के दर्शक ने भोजपुरी की ओर क्यों रुख किया है। जा़हिर है, कारपोरेट, कभी खुशी कभी ग़म, कुछ-कुछ होता है या ऐसी ही बड़ी तादाद में बन रही फिल्मों से हिंदी पट्टी का गंवई दर्शक जुड़ नहीं पा रहा था। दरअसल ये फिल्में बनी भी गंवई दर्शकों के लिए नहीं थी।


ये तो बनी ही थीं, सात समुंदर पार बसे अप्रवासी दर्शकों के लिए। पहले भी फिल्मों की तड़क-भड़क और ग्लैमर में गांव नकली था। नकली किसान और गांव की गोरी भी नकली। ऐसे में भोजपुरी फिल्मों ताज़ा हवा के झोके की तरह नमूदार हुईँ। ससुरा.. में ही देखें, तो असली परिवेश में असली चौकी,लोटे, और घटनाओं के साथ कहानी को फिल्माया गया है। ऐसे में दर्शक सीधे अपने आसपास की चीज को परदे पर देखकर सम्मोहित हो गया। इन फिल्मों में वह सब था, जो मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों से गायब हो गया था।

लेकिन बीतते वक्त के साथ भोजपुरी फिल्मों में ताज़ा बयार बहाने की उम्मीद अब धूमिल पड़ती जा रहा है। इन फिल्मों में भी वही सब - यानी मारधाड़, रोमांस, फूहड़ हास्य और बेढभ गाने हैं- जो हिंदी फिल्मों में देख-देखकर दर्शक ऊब गया था और उसी वजह से भोजपुरी की ओर शिफ्ट हुआ था।

ऐसे में भोजपुरी सिनेमा को ज़रूर तमिल सिनेमा से सबस सीखने की ज़रूरत है। कुछ साल पहले तक तमिल सिनेमा भी कथानक के स्तर पर उसी दौर से गुजर रहा था, जहां अभी भोजपुरी का सिनेमा खड़ा है। लेकिन हाल में युवा निर्देशकों की टीम ने मणिरत्नम की राह चलते हुए एक नई ज़मीन फोड़ी है। तमिल में कादल के बाद कल्लूरी इस साल की कामयाब फिल्म साबित हुई है। दरअसल, तमिल सिनेमा में एक ऩई धारा पैदा हुई है।

समकालीन तमिल सिनेमा में आ रहे शांत लेकिन रेखांकित किए जाने लायक बदलाव की कहानी बयां कर रहा है। यह धारा एक नए बौद्धिक, यथार्थवादी और मजबूत पटकथा वाली किस्सागोई वाली फिल्मों की है।
फिल्म में चरित्रों, प्लॉट और संवादों को अचूक तरीके से पिरोया गया है। ये चरित्र छोटे शहरों के होने पर भी हीनभावना से ग्रस्त नहीं है और अपने खांटी गंवईपन को संवेदनाओं के साथ उघाड़ते हैं। फिल्म के सारे चरित्र बिलाशक दॿिण भारतीय दिखते हैं। जाहिर है, उन्हें दिखना भी चाहिए। फ्रेम में दिख रहा हर चेहरा असली दिखता है। पात्रों के चेहरे पर जबरन मेकअप पोतकर सिनेमाई दिखाने की कोई कोशिश नहीं है।


क्या सवाल महज इन फिल्मों की कला, उम्दा निर्देशन या उत्कृष्ट कहानी ही है..। जी नहीं, इन फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर तगड़ी कमाई भी की है। कल्लूरी जैसी फिल्में अपने कम बजट और यथार्थवाद के बावजूद बड़े सितारे वाले फिल्मों की बनिस्पत ज़्यादा मनोरंजक साबित हो रही हैं। दरअसल, तमिल सिनेमा की इस नई धारा ने व्यावसायिक सिनेमा की ऊर्जा और मनोरंजन को कला सिनेमा की जटिलता और संवेदना में खूबसूरती से पिरों दिया है। इस धारा की झलक तो मणिरत्नम् की नायकन और आयिता इझूथु में ही मिल गई थी, लेकिन ऩई पीढी के फिल्मकारों तक यह संदेश पहुंचने में एक दशक से ज़्यादा का वक्त लग गया।

इन फिल्मों के साथ ही तमिल सिनेमा के एक नए दर्शक वर्ग, युवा दर्शकों का उदय हुआ है। जो नई चीज़ देखना पसंद कर रहा है। पिछली दिवाली पर धड़ाके के साथ रिलीज़ हुई आझागिया तमिल मागन, वोल और माचाकाईन जैसी व्यावसायिक बड़े बजट की फिल्में दर्शकों के इस वर्ग को मनोरंजक नहीं लगता। दरअसल, दर्शकों के इस वर्ग को नई धारा के खोजपूर्ण सिनेमा का चस्का लग गया है। तमिल फिल्मों की इस नई धारा की एक और खासियत है- शैली। हर निर्देशक का अंदाजे बयां ज़ुदा है। इनमें गाने सीमित है, आम तौर पर ये गाने भी पृष्ठभूमि में होते हैं।

छोटी अवधि की इन फिल्मों में कॉमिडी के लिए भी अलग से समांतर कथा नहीं चल रही होती, बल्कि हास्य को कथानक के भीतर से ही सहज स्थितियों से पैदा किया जा रहा है। ज़्यादातर फिल्मों के विषय बारीकी से परखे हुए होते हैं- गंवई कहानियों का बारीक ऑब्जरबेशन। तमिल सिनेमा की इस नई बयार के ज्यादातर चरित्रों की जड़े परिवार, संस्कृतियों और परंपरा में गहरे धंसी हैं। नए तमिल निर्देशकों ने एक ऐसे दर्शक वर्ग के बारे में संकेत दे दिया- जो चरित्रप्रधान, अच्छी पटकथा वाले कम बजट की फिल्मों को सर आंखों पर बैठाने के लिए तैयार है।

तो सवाल ये है कि क्या भोजपुरी दर्शक अच्छी फिल्मों से उदासीन ही रहना चाहता है या फिर उसे ठीक फिल्में मिल नहीं पा रही है। कैमरे की भाषा को और अच्छा किया जा सकने के ढेरों संभावना भोजपुरी में मौजूद हैं। स्थानीय मुद्दों पर बात करने के लिए ज़रूरी नहीं कि हर फिल्म में होली का फूहड़ गीत या लौंडा नाच डाला जाए। भोजपुरी फिल्मों के प्रति अश्लील होने की मानसिकता बन चुकी है, क्या वह बदल नहीं सकती। क्या भोजपुरी निर्देशकों में कोई शक्तिवेल, कोई ऋत्विक घटक,सत्यजित् रे या अडूर नहीं है।

1 comment:

Unknown said...

Bhai ji paranam

Aaj hum bhojpuri ke khoj main aap tak pahuch gail bani

haut achaa lagal ki aap log apna sahitya ke parti soch rakhat bani.
ego anurodh baa ki aaj kal praych tour per Net pe bhojpuri khatir kaam hot baa,

Ager yh per aap logan ke vichar ke sahyog milit t aur logan ke bhi aage awe main madat milit

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PankajPraveen
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