धरती के गर्म होने की प्रक्रिया ग्रीन हाउस एफेक्ट कहलाती है। दरअसल ग्रीन हाउस ठंडे इलाकों में कांच के घर होते हैं, जिनके अंदर खेती की जाती है। कांच के इस घर की दीवारें धूप को अंदर आने देती हैं, जिसे धरती सोख लेती है लेकिन कांच की छत और दीवारों की वजह से ये किरणें वापस नहीं जा पातीं। इससे कांच के घर के भीतर का तापमान बाहर के वातावरण के मुकाबले ज्यादा हो जाता है, और बर्फीले इलाकों में भी सब्जियां उगाना मुमकिन हो पाता है।
धरती को सूरज से प्रति वर्ग मीटर ३४३ वाट सौर विकिरण मिलता है। ऊर्जा की यह मात्रा बहुत ज्यादा है, हमारी कायनात को जलाकर राख कर देने के काबिल...लेकिन हम सुरक्षित हैं क्योंकि इस ऊर्जा का ज्यादातर हिस्सा अंतरिक्ष में वापस चला जाता है।
सूरज से आने वाली किरणों का करीब तीस फीसद हिस्सा बादलों से टकरा कर अंतरिॿ में वापस लौट जाता है। करीब बीस फीसद हिस्सा धरती की कुदरती कामकाज यानी पौधों के खाना बनाने की प्रक्रिया यानी प्रकाश संश्लेषण , और दूसरी भौतिक-रासायनिक बदलावों में खर्च होता है।
बचे हुए 50 प्रतिशत विकिरण में से तकरीबन 49 फीसद हिस्से को धरती की सतह सोख लेती है और और फिर उसे इंफ्रारेड किरणों यानी ताप किरणों में बदलकर वापस अंतरिक्ष में भेज देती है।
लेकिन हमारे वायुमंडल में मौजूद कार्बन डाइ ऑक्साइ़ड, नाइट्रस ऑक्साइड, मीथेन, कार्बन मोनोक्साइड और जलवाष्प इस ऊर्जा को रोकने का काम करती हैं। ऐसे में वायुमंडल में इन गैसों मौजूदगी बढ़ने से धरती गर्म हो रही है तय है। तापमान में इस बढो़त्तरी से ध्रुवों पर बर्फ तेजी से पिघलती है जिसके साथ शुरु होती है प्राकृतिक असंतुलन की एक लंबी श्रृंखला।
इस मुश्किल की शरुआत हूई 18 वीं सदी में यूरोप की औद्योगिक क्रांति के बाद से। पूरी दुनिया में तेजी से कल कारखानों का विकास हुआ और हमने वायुमंडल में धुआं और दूसरी जहरीली गैस छोड़नी शुरु कर दीं।
हवा को जहरीला बनाने के साथ ही धरती द्वारा अंतरिक्ष में छोड़ी जा रही इंफ्रारेड ताप किरणों का पहले से ज्यादा हिस्सा इन गैसों की वजह से वायुमंडल में ही रुकने लगा है। धरती का बढ़ता तापमान इसी प्रक्रिया का नतीजा है।
पृथ्वी का औसत तापमान 18 वीं सदी के बाद अब तक 0.6 डिग्री सेन्टीग्रेट तक बढ़ गया है। समुद्र का जलस्तर बीसवीं सदी में औसतन 10 से 20 सेमी तक बढ चुका है। 21वी सदी के पहले दशक के अंत तक इस स्तर में 10 सेमी और इजाफा होने की आशंका जताई जा रही है।
धरती के गरम होते जाने से आर्कटिक की बर्फ लगातार पिघल रही है।
अनुमान है कि बीसवीं सदी के दौरान उत्तरी गोलार्ध में सात फ़ीसदी बर्फ पिघल चुकी है। हिमालय की चोटियां भी इसकी जद से दूर नहीं.....
ग्लेशियर हर साल घटते जा रहे हैं जिससे बाढ़ औरभूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएं आने की आशंका भी पहले से काफी ज्यादा हो चुकी हैं।
हिमालय की बर्फ पिघलने की अगर यही रफ्तार रही तोे मैदानी इलाकों को सींचने वाली नदियों में पहले बाढ़ आएगी और फिर वो सूखने के कगार पर पहुंच जाएंगी। भारत, चीन, नेपाल, बांग्लादेश और म्यामां इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।
जलवायु परिवर्तन की अगली मार होगी खाद्यान्न के उत्पादन पर, धरती के गर्म होने से गेहूं और धान की पैदावार पर असर पड़ेगा और फसल चक्र पूरी तरह गड़बड़ा जाएगा।
जलवायु परिवर्तन के कारण एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीकी देशों में होने वाली खेती में दिक्कतें आएंगी। इसका सबसे ज्यादा असर उन छोटे किसानों पर पड़ेगा जो कई पीढ़ियों से खेती के लिए मौसमी बरसात पर ही निर्भर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से आने वाले दशकों में बरसात के पैटर्न में बदलाव आएगा और इसके चलते खाद्यान्न उत्पादन में तेजी से गिरावट आएगी।
समस्या ये है कि इसका सबसे ज्यादा असर उस आबादी पर पड़ेगा जिसका वैश्विक तापमान बढ़ाने में सबसे कम योगदान है।
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